शरीर में आत्मा कहां रहता है ? भाग___ 14

यजुर्वेद के 34वें अध्याय के प्रथम छः मंत्र शिव संकल्प के विषय में लिखे गए हैं इन शिव संकल्प के मंत्रों का ऋषि शिव संकल्प है। मन इनमें देवता है। स्वर धैवत है। विराट त्रिष्टुप छंद है ।इन मंत्रों में प्रतिपाद्य विषय मन है।
मन का उपादान कारण प्रकृति है। मन के भी कई प्रकार हैं। जो उसके द्वारा सोचे गए, किए गए कर्मों के आधार पर विभक्त किए गए हैं।
उनमें से एक हमारा दैव मन होता है। जिसके पास ज्ञान तंतुओं के द्वारा इंद्रियों से प्रकाशित किए गए विषयों की सूचनाऐं भेजी जाती है। यही मन जो ज्ञान को कार्य प्रणाली के योग्य समझता है,उसकी सूचना कर्म तंतुओं के द्वारा हृदय में वर्तमान कर्म इंद्रियों के अधिष्ठाता मन के पास भेज देता है। और वह मन कर्म तंतुओं तथा इंद्रियों के द्वारा सूचना के आधार पर काम करना प्रारंभ कर देता है। कर्म के आरंभ से प्रथम संकल्प विकल्प की भावनाएं भी इसी मन में उठती है। इन सब भावनाओं का निर्णय करना बुद्धि के अधीन होता है।
दैव मन की कार्य प्रणाली के इस प्रकार को अवधान कहते हैं।
जिस प्रकार से शारीरिक साधना और इंद्रियों के बिना मन का कोई कार्य संपन्न नहीं होता। उसी प्रकार आत्मा के बिना भी वह अकेला कुछ नहीं कर सकता। आत्मा के द्वारा प्रेरित और उसी के नियंत्रण में मन के सब कार्यों का संचालन होता है। आत्मा का मन के साथ अन्योन्याश्रित संबंध है ,अटूट संबंध है अर्थात जहां आत्मा रहेगी वहीं मन रहेगा।
इस प्रकार आत्मा यदि हृदय में है तो मन भी हृदय में है ।आत्मा यदि मस्तिष्क में है तो मन भी मस्तिष्क में है। आत्मा शरीर के जिस अंग में भी घूमती है वहीं पर मन होगा।
आत्मा स्वयं एक चेतनावन तत्व है इंद्रियां ,मन, मस्तिष्क आदि सब के सब ज्ञान में आत्मा के साधन मात्र हैं। इनमें से कोई भी ऐसा नहीं कि जो चेतनावान हो और पदार्थ का अनुभव कर सकता हो। इसलिए आत्मा का तथा मन, मस्तिष्क और इंद्रियों का संबंध स्वामी और सेवक का अथवा साधक और साधन का है।
उपनिषदकार महर्षियों ने आत्मा का स्थान हृदय कहा है। वह हृदय हमारे शरीर में कहां है?
यहां पर समझ लेने की बात है विशेष रूप से कि उपनिषदों में हृदय शब्द शरीर के किसी स्थान विशेष के अर्थ में ही आता है। परंतु कहीं-कहीं पर हृदय शब्द मन अथवा चित्त के अर्थ में भी आ जाता है ।जहां यह शब्द मन अथवा चित्त में आता है उपनिषदों में उन प्रसंगों के अनेक उल्लेख मिलते हैं।
उदाहरण के तौर पर बृहदारण्यक उपनिषद (एक /पांच /तीन) में जो मंत्र दिया है उसमें जो प्रार्थना की गई है वह इस प्रकार की है।
” जब सब कामनाएं छूट जाती हैं जो इसके हृदय में वर्तमान है, उस समय मनुष्य अमर हो जाता है। और यहां ही ब्रह्मानंद का उपभोग करने लग जाता है, जीवन मुक्त हो जाता है,
यहां हृदय शब्द मन का वाचक है शरीर के किसी स्थान का वाचक नहीं क्योंकि कामनाओं का स्थान मन है,न कि कोई स्थान विशेष।

इसी प्रकार कठोपनिषद में यह वर्णन आया है कि “जब हृदय की सब गांठें खुल जाती हैं फिर मनुष्य अमर हो जाता है।
यह गांठे संस्कारों की और अविद्या की चित में स्थित होती है। शरीर के किसी स्थान विशेष में नहीं ।अत:यहां भी हृदय शब्द चित्त अथवा मन का वाचक है।

कामनाएं ,संकल्प, संशय, श्रद्धा, अश्रद्धा ,धैर्य ,अधीरता ,लज्जा, बुद्धि सब मन की ही स्थिति हैं। अर्थात इन सब की ग्रंथियां मन में ही होती हैं ।शरीर के हृदय अथवा अन्य प्रदेश में नहीं। इन्हीं को मन की गांठ कहते हैं।
जिनके खुलते ही मनुष्य अमर होता है तो हृदय की गांठ नहीं बल्कि मन की गांठ है। इसलिए हृदय शब्द का स्थान विशेष से तात्पर्य नहीं है,बल्कि मन से है।

और अधिक स्पष्ट करने के लिए उपनिषदकार ऋषियों ने शरीर में आत्मा और मन के रहने के आधार दो हृदय माने हैं। उनमें से एक हमारी छाती में स्तन के नीचे के बायें भाग में और दूसरा सर में ब्रह्मरंध्र में है। इन दोनों हृदयों का स्पष्टीकरण उपनिषदों में दिया
गया है।
यजुर्वेद के 34वें अध्याय के प्रथम
6 मंत्रों में जो छठा मंत्र है वह
बहुत ही महत्वपूर्ण है।
जिसका अर्थ निम्न प्रकार है”
जैसे एक अच्छा सारथी घोड़ों को
उसी प्रकार वश में करके रखता है जैसे एक मनुष्य अपने मन को अपने वश में करके भली भांति आगे ले जाता है। अर्थात उन्नति के मार्ग पर चलता है अथवा यूं कह लें कि इधर-उधर न भटक कर सीधे मार्ग पर ईश्वर को प्राप्त करता है। ऐसा हमारा मन है जो कभी बुड्ढा नहीं होता और जो अत्यंत वेग वाला है ,उसको मनुष्य अच्छे सारथी की तरह (जैसे एक अच्छा सारथी अपने घोड़े को रोक कर रखता है) ही (हत्प्रतिष्ठम) हृदय में हमारा मन प्रतिष्ठित अथवा स्थित या ठहर जाना चाहिए। अर्थात हृदय में मन को स्थिर रखना चाहिए। इस प्रकार का मेरा मन शिव संकल्प वाला हो।
यहां हृदय में स्थित रहने वाली आत्मा के संबंध में वाचन नहीं है बल्कि यजुर्वेद के 34 वे अध्याय के छठे मंत्र में मन को हृदय में रहना बतलाया गया है। परंतु यह भी स्पष्ट कर देना उचित होगा कि यहां पर हृदय में आत्मा के संबंध में नहीं कहा गया है बल्कि मन के स्थित होना बताया गया है।इसके संबंध में ऊपर लिखा जा चुका है कि हृदय का तात्पर्य उपनिषद कारों ने मन से भी लिया है। छठे मंत्र में अत्यंत वेग वाले मन को हृदय में स्थित रखने की बात कही गई है। आत्मा अत्यंत वेग वाली नहीं होती। इस मंत्र में अत्यंत वेग वाला होना मन का विशेषण दिया गया है। इससे भी यही अर्थ स्पष्ट होता है कि यहां आत्मा के संबंध में नहीं बल्कि मन के संबंध में कहा गया है।

इस प्रकार यहां पर यह कहा गया है कि हृदय में जहां आत्मा स्थित है , आत्मा के द्वारा वश में करते हुए मन को रखना चाहिए। इससे यह भी सिद्ध हुआ कि आत्मा और मन एक साथ हृदय में निवास करते हैं। हम कभी-कभी अपने हृदय पर हाथ रखकर यह कहते हैं कि मेरा मन नहीं मानता।
इसका मतलब मन भी हृदय में रहता है। परंतु मन के मानने अथवा न मानने की यहां कोई बात हम नहीं कहना चाहते। मन को आदेश करने वाला तो आत्मा है। मन को प्रेरणा देने वाला तो आत्मा है। मन से काम लेने और काम कराने वाला तो आत्मा है। मन तो आत्मा का साधन है जैसे अन्य इंद्रियां साधन है। इसलिए कहा जाता है की आत्मा ही कर्ता एवं भोक्ता है।

शेष अग्रिम किस्त में।

देवेंद्र सिंह आर्य एडवोकेट
ग्रेटर नोएडा।
चलभाष
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