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भारतीय संस्कृति

क्या सचमुच अयोध्या शापित है?

आचार्य डॉ राधेश्याम द्विवेदी

सब प्रभु श्री राम की लीला :-

जो घटित हुआ, हो रहा और जो होगा वह सब प्रभु श्री राम की लीला है। अयोध्या का गौरव सदियों से बार बार बिखरता रहा। अब जैसे- जैसे अयोध्या अपने आप को संयोजित कर रही है, समेट और सहेज रही है तो क्रिया प्रतिक्रिया और दावेदारी भी बढ़ती जा रही है। अयोध्या कितनी बार बसी और कितनी बार उजाड़ हुई, इसका हिसाब करना सहज नहीं है।

  सच पूछिये तो भगवान श्रीरामचन्द्र की लीला- संवरण के बाद ही अयोध्या पर विपत्ति आई। कोशलराज के दो भाग हुये। श्रीरामचन्द्र के ज्येष्ठ कुमार महाराज कुश ने अपने नाम से नई राजधानी " कुशावती” बनाई और छोटे पुत्र लव ने "शरावती"/ श्रावस्ती” की शोभा बढ़ाई। राजा के बिना राजधानी कैसी? अयोध्या थोड़े ही दिनों पीछे आप से आप श्रीहीन हो गई।      

    अयोध्या के दुर्दशा के समाचार सुन महाराज कुश फिर अयोध्या में आये और कुशावती ब्राह्मणों को दानकर पूर्वजों की प्यारी राजधानी और उनकी जन्म-भूमि अयोध्या में रहने लगे। शाक्यसिंह बुद्धदेव के जन्म से फिर अयोध्या का पता चलता है और कुछ कुछ वृत्तान्त भी मिलता है। बुद्धदेव कपिलवस्तु में उत्पन्न हुये, श्रावस्ती में रहे और कुशीनगर वा कुशीनर में निर्वाण को प्राप्त हुए। यह सब स्थान कोशल देश में विद्यमान थे।

     उन दिनों कोशल वा अवध की राजधानी का राज सिंहासन 'श्रावस्ती' में था जिसको भगवान श्रीरामचन्द्रदेव के कनिष्ठ पुत्र लव ने 'शरावती' के नाम से बसाकर अपनी राजधानी बनाया था। अंग्रेजी राज में अयोध्या पाँच छः हजार की आबादी का एक छोटा सा नगर सरयू नदी के बायें तट पर बसा था। 

विकास सत्ता रहने पर ही निर्भर :-

भारतीय लोकतंत्र में एक अहम बुराई यह है कि जिस निर्वाचन क्षेत्र से सत्ताधारी पार्टी चुनाव जीतती है या उस क्षेत्र के प्रतिनिधि को सत्ता में महत्व पूर्ण ओहदा मिलता है,वहीं विकास का कार्य होता है, वहीं रौनक रहती है। जहां से सत्ता पक्ष के प्रतिनिधि नहीं चुने जाते हैं, वहां की सड़कें भी वीरान हो जाती हैं। यहां तक उन क्षेत्रों को पर्याप्त रोशनी के लिए बिजली भी नहीं मिलती। सारे चालू प्रोजेक्ट ठप पड़ जाते हैं, नई योजनाएं तो दूर की कौड़ी हो जाती हैं। रामपुर, सैफई, मैनपुरी, इटावा,अमेठी, रायबरेली, वाराणसी, अयोध्या ,मथुरा और गोरखपुर में इस प्रकार का लक्षण और घटना देखी और सुनी जा सकती है।

क्या अयोध्या के साथ भी कुछ होने वाला है ?

जबसे केंद्र में सत्ताधारी पार्टी भारतीय जनता पार्टी को संसदीय चुनावों में आपेक्षित सीटें नहीं मिली है, सोशल मीडिया पर विपक्ष के समर्थन में लोगअयोध्या के शापित होने की बात करने लगे हैं। उन्हें इस बात का डर है कि एक बार फिर अयोध्या पर सीता माता के श्राप की छाया तो नहीं पड़ गई है? फैजाबाद सीट हारने को अयोध्या के हारने की प्रोपगंडा क्यों फैलाया जा रहा है?

सीता माता के श्राप की छाया :-

चुनाव के नतीजों के बाद अयोध्या और माता सीता के श्राप की चर्चा जोर पकड़ने लगी है। पौराणिक कथाओं केअनुसार, जब श्री राम ने लोगों की बातों में आकर माता सीता को एक अदना सा धोबी के कहने पर राजधर्म का परिपालन करते हुए अयोध्या राज्य से निकाल दिया था, तब माता सीता ने अयोध्या को सुखी ना रहने का श्राप दिया था। कहा जाता है कि इस श्राप के कारण ही अयोध्या में आपेक्षित विकास नहीं हो पाता रहा है।

राजा प्रजा में तालमेल का अभाव:-

पौराणिक मान्यताओं के अनुसार, अयोध्या की जनता का अपने शासकों के साथ तालमेल कम होता है। श्री राम के बाद, उन्होंने किसी भी शासक को पूरी तरह से स्वीकार नहीं किया। राजा सगर के पुत्र असमंजस और असमंजस के पुत्र अंशुमान को भी अयोध्या की जनता ने राज्य से निकलने पर मजबूर कर दिया था।

पौराणिक कथाएं राजनीति के अंग बने :-

अयोध्या का चुनाव परिणाम और इसके पीछे की पौराणिक कथाएं राजनीतिक और सामाजिक बातों का हिस्सा बन गई हैं। अब देखना ये होगा कि आने वाले समय में अयोध्या में विकास की गति कैसी रहती है और क्या जनता का तालमेल अपने नए नेताओं के साथ सही रहता है की नहीं है।

राजा द्वारा भी किंवदंती की पुष्टि :-

एक बार टीवी चैनल से बात करते हुए ‘अयोध्या के राज परिवार के प्रतिनिधि ‘ के रूप में जाने जाने वाले श्री बिमलेंद्र मोहन प्रताप मिश्रा ने कहा था , “ स्थानीय किंवदंती के मुताबिक, जब भगवान राम ने अफवाहों की वजह से माता सीता को अयोध्या से बाहर निकाला था, तो उन्होंने श्राप दिया था। कई अन्य लोगों का भी मानना है कि इस अभिशाप की वजह से ही शहर में कभी भी तीव्र गति से विकास नहीं हुआ।”

एकाएक होटल व्यवसाय में सहसा वृद्धि:-

जिस अयोध्या में कुछ साल पहले तक एक भी बढ़िया होटल नहीं था, वहां अब फाइव स्टार होटल बनाने की परमिशन मांगने वालों की लाइन लग गई है। अयोध्या में फाइव स्टार होटल बनाने की अनुमति मांगने के लिए प्रशासन को 100 से ज्यादा आवेदन मिले हैं। इस परिप्रेक्ष्य में लोधा ग्रुप, ताज होटल ग्रुप तथा अमिताभ बच्चन जैसे अनेक नामी गिरामी लोग और यहां पदस्थ अधिकारी सांसद और विधायक पर भी उंगलियां उठने लगी है।

अयोध्या ने स्वयं आकार लिया था :-

पौराणिक कथाओं की मानें तो अयोध्या को किसी ने बसाया नहीं था। इस शहर ने अपने आप ही आकार ले लिया और साकेत नाम से इसकी पहचान बन गई। भारत में सात धार्मिक शहरों की चर्चा होती है, जिसमें हर शहर की उत्पत्ति की कोई न कोई कहानी है पर अयोध्या शहर कैसे बना इसकी कोई कहानी नहीं है। जैसे काशी के बारे में कहा जाता है कि यह शंकर भगवान के धनुष पर स्थित है। द्वारका के बारे में कहा जाता है कि इसे कृष्ण ने बसाया पर अयोध्या की कोई किवदंती भी नहीं है।

अयोध्या राम से पहले भी उत्कृष्ट रही:-

राम के पहले उनके कई पुश्तों ने यहां राज किया है। कालिदास लिखते हैं कि राजा दशरथ के समय तक अवधपुरी समृद्ध, सुंदर और अच्छी तरह से किलेबंद शहर था। समय के साथ अयोध्या के नाम बदलते रहे जैसे कोसलपुरी, साकेत आदि। इतिहास के पन्नों के पलटने पर अयोध्या को अलग-अलग 12 नामों से जाना जाता था. जिनके नाम हैं, अयोध्या, आनंदिनी, सत्यनामा, सत, साकेत, कोशला, विमला, अपराजिता, ब्रह्मपुरी, प्रमोदवन, सांतानिकलोका और दिव्यलोका। शिव संहिता के पांचवे पटल के बीसवें अध्याय में कहा गया है –

अयोध्या नंदिनी सत्यनामा साकेत इत्यापि।

कोशला राजधानी च ब्रह्मपुरपराजिता।

  जिस तरह यहां का इतिहास शैव धर्म, बौद्ध धर्म, जैन धर्म, वैष्णव धर्म आदि का केंद्र बनता रहा, उससे यही लगता है कि यह शहर हमेशा आबाद रहा होगा। फिर भी इसे शापित क्यों कहा जाता है, यह समझ में नहीं आता है।

साहित्यकारों की निगाह में अयोध्या :-

हिंदी की प्रसिद्ध साहित्यकार और पत्रकार मृणाल पांडेय एक ऑर्टिकल में लिखती हैं कि 1858 की सर्दियों में विष्णु भट्ट ने जिस भयभीत शहर को देखा, वह निश्चित रूप से त्रेता युग की चमचमाती पौराणिक अयोध्या नहीं थी।

  अमृतलाल नागर ने 1957 में जो अयोध्या देखी, उसके स्मारकों पर घास-फूस उग आए थे और लोग ग़दर के बाद हुए अपमान को साझा करने से कतराते थे, वह फिर भी अलग थी।

 वाल्मीकि से लेकर भवभूति और विद्यापति तक के कवियों और लोकगीतों के अनाम रचनाकारों ने राम राज्य की न्याय व्यवस्था पर सवाल उठाए हैं, जिसने एक निर्दोष महिला सीता को दंडित किया।

राम ने अयोध्या में राज्य नहीं उपासना की थी:-

'जौं अनीति कछु भाषौं भाई, 

 तौ मोहि बरजहूं भय बिसराई ।'

  श्रीराम अयोध्यावासियों से कहते हैं कि अगर मैं भी कुछ अनीति की बात कहूं तो आप सभी भय को त्याग कर मुझे रोक देना । तभी नारद वाल्मीकि से कहते हैं कि -

“रामो राजम उपासित्वा

ब्रह्मलोकं प्रयास्यति।।”

(यानि राम अपने राज्य की उपासना करने के बाद ब्रह्मलोक चले गए ।)

   आखिर राम क्यों अपनी अयोध्या का शासन न करके उसकी उपासना करते रहे । क्योंकि राम जानते थे कि अयोध्या और वहां की प्रजा का मिजाज किसी भी शासन को स्वीकार नहीं करता। श्री मिश्र लिखते हैं कि यही कारण रहा कि राम ने पहले अपने वंश के राजाओं का इतिहास देखा और जब वो ये जान गए थे कि अयोध्या किसी की नहीं सुनती तो वो ब्रह्मलोक जाने से पहले अयोध्या किसी को नहीं सौंप गए । न तो अपने पुत्रों लव और कुश को और न ही अपने भाइयों को। उन्होंने प्रकांतर से हनुमान जी को अयोध्या की जिम्मेदारी सौंपी है।

अयोध्या को किसी को नही दिया गया:-

राम ने अयोध्या किसी को नहीं दी. दोनों पुत्रों यानि कुश को कसूर ( पंजाब) और लव को लाहौर में राज्य की स्थापना करने का आदेश दिया। शत्रुघ्न के पुत्रों को मथुरा तो लक्ष्मण के पुत्रों को लखनऊ का क्षेत्र दिया । राम अपने साथ अयोध्या की जनता को ही नहीं उसके सभी प्राणियों यहां तक की पशु पक्षियों को भी अपने साथ ब्रह्मलोक ले गए और अयोध्या वीरान हो गईं। कहा जाता है कि अयोध्या की देवी ने खुद कुश के पास जा कर अयोध्या को फिर से बसाने की प्रार्थना की , लेकिन अयोध्या फिर वैसी नहीं रह गईं जैसी श्रीराम के वक्त थी।

राम जानते थे कि ये वही अयोध्या की जनता है जिसने उनके पूर्वज राजा सागर के पुत्र असमंजस को राज्य से निकालने के लिए विवश कर दिया था, क्योंकि असमंजस अयोध्या के बच्चों को सरयू में डूबो कर मार डालता था। अंशुमान अपने पूर्वजों की मुक्ति के लिए राजकाज छोड़ ताउम्र तपस्या में ही लीन रहे।

अयोध्‍या अपने शासकों से कम ही बनती है:-

ये वही अयोध्‍या है जो राजा दशरथ के राम को वनवास पर भेजे जाने के फैसले का विरोध करते हुए राम के साथ चल पड़ती है। और ये वही अयोध्‍या है जो सीता की पवित्रता पर सवाल उठाकर उनकी अग्नि-परीक्षा सुनिश्चित करवाती है। अयोध्‍या की अपने शासकों से जरा कम ही बनती है। वह उनके अधीन तो रहती है पर हर अच्छे बुरे कार्य पर उसकी निगाहें भी लगी रहती है। भास ने प्रतिमा नाटक में राम की अंतर्दशा इस प्रकार कहा है –

“स्नेहं दयां च सौख्यं च,

यदि वा जानकीमपि,

आराधनाय लोकस्य

मुञ्चतो नास्ति मे व्यथा।”

अर्थात् लोकाभिराम भगवान श्रीराम ने कहा कि, न केवल स्नेह, दया, करुणा, मैत्री अपितु जगज्जननी जानकी का भी लोकहित हेतु परित्याग करने में लेशमात्र भी दुःख नहीं होगा।प्रजापालन में तत्पर श्री राम का यह आदर्श राजधर्मावलम्बियों के लिए अनिवार्य रूप से अनुकरणीय व पालनीय हो तो रामराज्य का स्वप्न साकार होने में लेशमात्र भी सन्देह नहीं है। “

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