Categories
स्वर्णिम इतिहास

अफगानिस्तान का हिंदू वैदिक अतीत : *राजा जयपाल का अफगानिस्तान*

       *जिन* लोगों ने हिंदू इतिहास के उज्ज्वल पृष्ठों को अथवा काल को अथवा स्मारकों को 'भारतीय इतिहास से लुप्त करने का या उन्हें कम महत्त्व देने का प्रयास किया है, उनके ऐसे घृणित प्रयास के पीछे एकमात्र कारण यह है कि इस देश का इतिहास किसी भी प्रकार के राष्ट्रीय संकल्प से हीन करके प्रस्तुत किया जाए। जिससे कि भारत की हिंदू जाति में अपने अतीत के प्रति कोई जिज्ञासा अथवा श्रद्धाभाव उत्पन्न न हो। इसलिए रघुनंदन प्रसाद शर्मा ने लिखा है- *" भारत का इतिहास आज जिस रूप में सुलभ है उस पर इस दृष्टि से विचार करने पर निराशा ही हाथ लगती है। क्योंकि उससे वह प्रेरणा मिलती ही नहीं, जिससे भावी पीढ़ी का कोई मार्गदर्शन हो सके। रोथ, वेबर, व्हीटलिंग, कूहन आदि लेखक इस बात के लिए कृतसंकल्प हैं कि जिस प्रकार से भी हो भारत का प्राचीन गौरव नष्ट किया जाए। उनके लिए यह असहय और अन्याय की बात ही रही है कि जब उनके पितृ वनचरों के समान गुजारा कर रहे थे, उस समय हिंदुओं के भारतवर्ष में पूर्ण सभ्यता और आनंद का डंका बज रहा था।"* 

   ऐसे शत्रुभाव के इतिहास लेखकों ने अफगानिस्तान और भारत के पश्चिमी क्षेत्र के उन सभी क्षेत्रों के सही इतिहास को प्रस्तुत करने में भी प्रमाद और उपेक्षापूर्ण शत्रुभाव का प्रदर्शन किया है जो कभी अखंड भारत के अंग हुआ करते थे। भारत के अतीत के गौरवमयी पक्ष के प्रति ईर्ष्या या शत्रुभाव रखने वाले इन इतिहास लेखकों के द्वारा वहाँ के लोगों की उस पीड़ा को पूर्णतया उपेक्षित कर दिया गया है जो उन्होंने विदेशी आक्रमणकारियों के आक्रमणों, लूट, हत्या, डकैती, बलात्कार आदि को सहन करके झेली थी। इसके स्थान पर घटनाओं को कुछ इस प्रकार दिखाया जाता है कि जैसे यह लोग भारत की केंद्रीय सत्ता से पहले से ही दुखी थे और जब विदेशी आक्रमणकारी यहाँ आए तो इन लोगों ने उनके धर्म को सहर्ष स्वीकार कर लिया। इस प्रकार भारतीय लोगों के साथ उस समय हुए अत्याचारों की मर्मान्तक कहानी पर रहस्यमयी पर्दा डाल दिया जाता है।

*राजा गज की गजनी-* जब से मुसलमानों ने सिंध राज्य पर आक्रमण किया,तब से महमूद गजनवी के काल तक गुर्जर प्रतिहार वंश के शासक और हिन्दूशाही शासक ही मुसलमान आक्रमणकारियों का सामना करते रहे। हम पूर्व में ही यह उल्लेख कर चुके हैं कि प्रतिहार वंश के गुर्जर शासकों ने लगभग तीन सौ वर्ष तक मुसलमानों को भारत में प्रवेश नहीं करने दिया।

               यहाँ पर यह भी उल्लेखनीय है कि राजस्थान में उस समय कृष्ण वंश के यादव लोग शासन कर रहे थे। उनमें से बहुत से यदुवंशी भारत के पश्चिमोत्तर भाग में जाकर बस गये थे और उन्होंने अपने राज्य स्थापित किये थे। श्रीकृष्ण की 12वीं पीढ़ी में गज नामक एक राजा हुआ था, जिसने खैबर घाटी के पार एक क्रिला बनवाया था, जो उसके नाम से ग़ज्जनी कहलाता था। उस समय ईरान, इराक, अफगानिस्तान, पाकिस्तान सहित टर्की तक के समस्त क्षेत्र पर भारत के महान् प्रतापी शासकों क्रा शासन था, जो अपने शासन को मनु स्मृति जैसे धर्म शास्त्रों के आधार पर चला रहे थे।

“राजा गज की नौवीं पीढ़ी में राजा मर्यादपति हुआ, जिसने गजनी से लेकर पंजाब तक शासन किया था।”

      गुर्जर प्रतिहार वंश के शासकों ने गजनी पर अपना स्वाभाविक अधिकार माना। क्योंकि उन्हें गजनी के इतिहास के बारे में यह पूर्ण जानकारी थी कि इसे हमारे ही पूर्वजों के द्वारा बसाया गया था। जैसे मुगलों से चित्तौड़ को लेने के लिए महाराणा प्रताप और उनके वंशजों के हृदय में पीड़ा सदा बनी रही, वैसे ही मानवीय स्वभाव की यह गौरवमयी भावना गुर्जर प्रतिहार वंश के शासकों को भी आंदोलित करती रही कि उनके हाथों से किसी भी प्रकार गजनी निकल ना जाए और ना ही उस पर किसी विदेशी आक्रांता का अधिकार स्थापित हो जाए। उनकी इस प्रकार की गौरवमयी भावना से ही अनुमान लगाया जा सकता है कि जब गजनी उनके हाथों से निकली होगी तो उन्हें कितनी पीड़ा इस बात की हुई होगी ?

           स्वाभाविक है कि विदेशी आक्रमणकारी जितना ही गजनी या उसके आसपास के क्षेत्र पर अपना अधिकार करने के लिए प्रयास करते होंगे गुर्जर प्रतिहार वंश के शासकों के लिए यह उतना ही अधिक मरने-मारने का प्रश्न बनता जाता होगा। इस सब के उपरांत भी गुर्जर प्रतिहार शासकों के लिए देश, धर्म व संस्कृति की रक्षा करना अपना सर्वोपरि कर्तव्य समझा गया। वहाँ रहने वाले चुगताई, बलोच और पठान सभी मूल रूप में हमारे ही प्राचीन हिंदू लोगों की वंश परंपरा के लोग थे। अब देश, काल और परिस्थिति के अनुसार यदि यह चगताई, पठान और बलोच भारत से या भारत के लोगों से कुछ दूरी बनाने लगे थे तो भी भारत के लोगों में उनके प्रति वह आकर्षण और प्रेम था जो अपनी ही वंश परंपरा के लोगों के प्रति सामान्यतया लोगों में मिला करता है।

          ग़जनी के मुसलमान शासक सुबुक्तगीन के समय में हिंदूशाही वंश के राजा जयपाल का शासन था। उसका सुबुक्तगीन से कई बार संघर्ष हुआ। राजा जयपाल बहुत ही स्वाभिमानी, पराक्रमी, वीर और साहसी शासक थे। उनके भीतर देशभक्ति कूट-कूट कर भरी थी। वह भारत की भूमि के लिए इंच-इंच के लिए लड़ने वाले वीर शासकों में गिने जाते हैं। उनकी महानता और वीरता का लोहा उनके विरोधी लोगों ने भी माना है। राजा जयपाल ने सुबुक्तगीन की किसी भी विजय योजना को सफल नहीं होने देने का संकल्प लिया। जिससे वह विदेशी आक्रांता अपनी भारत विजय को अपने मनोनुकूल संकल्प के साथ पूर्ण नहीं कर पाया था।

     काबुल के शाही राजवंश का प्रसिद्ध शासक था-राजा जयपाल। जिसने 964 से 1001 ई. तक सफलतापूर्वक शासन किया था। कहा जाता है कि उसका राज्य लघमान से कश्मीर तक और सरहिंद से मुल्तान तक फैला हुआ था। राजा जयपाल पेशावर को अपनी राजधानी बनाकर शासन करते रहे थे। उनके पिता का नाम हतपाल और पुत्र का नाम आनंदपाल था। 977 ई. में ग़जनी के सुबुक्तगीन ने उन पर आक्रमण किया। इस विदेशी आक्रांता ने कुछ स्थानों पर अपना अधिकार करने में भी सफलता प्राप्त की। कहते हैं कि परिस्थितियों को समझ कर इस बार राजा जयपाल को सुबुक्तगीन से संधि करनी पड़ी। जिस से पेशावर तक मुस्लिम राज्य स्थापित हो गया।

   ठाकुर देशराज इस विषय में कहते हैं कि राजा जयपाल की अपने पूर्वजों के गढ़ रहे गजनी, काबुल व कंधार पर शासन करने की इच्छा थी। इसलिए उन्होंने सुबुक्तगीन पर अपनी ओर से चढ़ाई की। जिसमें सुबुक्तगीन को भारी हानि उठानी पड़ी। उसने महाराज को कुछ ले देकर उस समय विदा कर दिया। कुछ वर्षों के पश्चात् राजा जयपाल ने सुबुक्तगीन के राज्य पर पुनः चढ़ाई की। इस बार सुबुक्तगीन लड़ाई को संधि समझौता करने के बहाने से टालता रहा। उसका राजा जयपाल की विशाल सेना का सामना करने का साहस नहीं हुआ। तब ठंड का मौसम आ गया। उन दिनों बहुत अधिक पाला पड़ा। जिससे राजा के बहुत से सैनिक ठंड से मारे गए। अन्त में राजा को सुबुक्तगीन को अपनी ओर से ही कुछ देने का वचन देकर संधि करनी पड़ी। बाद में राजा ने अपने राजदरबारी पंडितों के परामर्श पर सुबुक्तगीन को दिए वचन के अनुसार उसका धन देने से मना कर दिया।

             जब सुबुक्तगीन का देहांत हुआ तो उसके पुत्र महमूद गजनवी ने भारत पर आक्रमण करने का संकल्प लिया। उसकी योजना न केवल अपने साम्राज्य का विस्तार करने की थी, अपितु वह इसके साथ ही साथ इस्लाम का विस्तार करना भी चाहता था। वह चाहता था कि जिस राजा जयपाल ने उसके पिता को हराया था और धन देने का वचन देकर भी धन नहीं दिया था, वह स्वयं उसे परास्त करे और उसके विशाल साम्राज्य पर अपना अधिकार स्थापित करे। अपनी इसी योजना को सिरे चढ़ाने के संकल्प के साथ महमूद गजनवी ने एक विशाल सेना के साथ जयपाल पर आक्रमण किया।

“महमूद का राजा जयपाल के साथ भयंकर संघर्ष हुआ। राजा और उसकी सेना बड़ी वीरता से युद्ध लड़े।”

      कहा जाता है कि महमूदं राजा जयपाल और उसकी सेना की वीरता से इतना भयाक्रांत हो गया था कि वह मैदान छोड़कर भागने ही वाला था। अब से पूर्व उसने ऐसी भयंकर लड़ाई नहीं देखी थी, हिंदुओं का शौर्य और वीरता देखते ही बनते थे। भारत के पौरुष से आज उसका पहली बार आमना-सामना हो रहा था। अब से पहले तो उसने भारत के इस पौरुष के बारे में सुना ही था, परंतु आज उससे सीधा पाला पड़ने पर वह बहुत ही हतप्रभ था। वह युद्ध के मैदान से भाग जाना चाहता था। तभी एक ऐसी घटना घटित हुई, जिसने युद्ध का पासा ही पलट दिया। कहते हैं कि एक राजकुमार जाकर महमूद गजनवी से मिल गया और वह मुसलमान बन गया। उसके बारे में कहा जाता है कि यह राजकुमार किसी मुस्लिम सुंदरी के मोह में फँसकर मुसलमान बन गया था। फलस्वरूप उसने राजा जयपाल को हराने के लिए महमूद गजनवी को उसके सारे भेद बता दिये। यह राजकुमार अभिषार का युवराज सुखपाल माना जाता रहा है। यदि इस नीच युवराज पर उस समय वासना का भूत न चढ़ा होता तो आज भारत का इतिहास ही कुछ और होता। किसी ने सही ही कहा है कि-

“लम्हों ने खता की थी
सदियों ने सजा पाई”

         इस मूर्ख, व्यभिचारी, लंपट राजकुमार के कारण देश का इतिहास बदल गया। हमारे पूर्वजों ने इसीलिए राजा के लिए चरित्रवान और ब्रह्मचर्य का पालन करने वाला होना आवश्यक माना है, क्योंकि राजनीति के क्षेत्र में राजा को पथभ्रष्ट, चरित्रभ्रष्ट और धर्मभ्रष्ट करने के लिए प्राचीन काल से ही सुंदरियों का प्रयोग किया जाता रहा है जो राजा चरित्रवान और ब्रह्मचर्य का पालन करने वाला होता है, वही इन सुंदरियों के मोह से अपने आपको बचा सकता है। विश्व के राजनीतिज्ञों ने आज तक भारत के ऋषियों द्वारा प्रतिपादित राजा के लिए अनिवार्य इस चारित्रिक गुण को स्वीकार नहीं किया है। यही कारण है कि भारत सहित संपूर्ण भूमंडल के देशों में राजाओं के चरित्रभ्रष्ट होने के किस्से-कहानी अक्सर समाचार पत्रों में सुर्खियाँ बनते रहते हैं। सचमुच भारत विश्व गुरु है। उसके आदर्शों को अपनाकर ही संसार उन्नति कर सकता है।

         राजकुमार के देशद्रोही और धर्मद्रोही होने के साथ-साथ उसके इस अक्षम्य अपराध से राजा जयपाल को बहुत अधिक आघात पहुँचा। वे इतने अधिक दुखी हुए कि उन्होंने अपना राजपाट अपने बेटे आनंदपाल को देकर स्वयं को अग्नि के समर्पित कर अपना प्राणान्त कर लिया। इस प्रकार देश का एक महान् शासक, महान् वीर योद्धा एक लंपट राजकुमार की लंपटता के कारण हमसे सदा-सदा के लिए विदा हो गया। उसका विदा होना देश के लिए बड़ा घातक रहा, क्योंकि उसके पश्चात् अफगानिस्तान का हिंदू अतीत बहुत अधिक धुंधला पड़ गया।

    राजा जयपाल की मृत्यु के पश्चात् उक्त राजकुमार को अपने किए पर पश्चाताप हुआ। जब उस पर से वासना का भूत उतरा तो उसकी आँखें खुलीं और उसे लगा कि उसने अपने देश और धर्म के साथ सचमुच अक्षम्य अपराध कर डाला है। उसने समय रहते फिर एक महत्त्वपूर्ण निर्णय लिया। तब उसने फिर से अपने आपको मुसलमान से हिंदू बनाया। मौलाना हसन निजामी लिखता है कि यह राजकुमार कुछ समय के पश्चात् फिर मुसलमान से हिंदू हो गया था। हिंदू होने के बाद उसने महमूद गजनवी के सूबेदारों को हिंदुस्तान से मार भगाया था। यद्यपि राजा जयपाल की हार का कारण यह राजकुमार ही था, परंतु उसने अपने द्वारा किए गए उस पाप को अब थो डालने का हर संभव प्रयास किया, जिसके कारण राजा राजपाल इस संसार से चले गए थे। अब तीर कमान से निकल चुका था, इसलिए राजकुमार के द्वारा किया गया यह वंदनीय कार्य भी पाप की कालिमा से उसी प्रकार ढक गया जैसे चंद्रमा काले बादलों से ढक जाता है और धरती पर अंधकार छा जाता है। पुनश्च राजकुमार के इस महान् कार्य का परिणाम यह निकला कि पापी गजनवी को भारत में जीत मिलने के उपरांत भी अपना राज्य स्थापित करने का अवसर नहीं मिला, उसे शीघ्र ही यहाँ से बोरिया बिस्तर बाँधकर भागना पड़ा।

     फरिश्ता कहता है कि जब कुर्रम की घाटी में शाही राजा जयपाल और महमूद की सेनाओं की मुठभेड़ हुई तब जयपाल की सहायता में पास पड़ोस के विशेषतः दिल्ली, अजमेर, कालिंजर और कन्नौज के राजाओं ने अपनी सेनाएँ और रुपए पैसे भेजे। उनकी सेनाएँ पंजाब में इकट्ठा हुई और उनकी संख्या एक लाख तक पहुँच गई। आगे वह कहता है कि जब 1008 ई. में महमूद ने जयपाल के पुत्र आनंदपाल पर पंजाब में चढ़ाई की तो उस समय कन्नौज के राजा ने उसकी सहायता में बड़ी भारी सेना भेजी और उसके उदाहरण पर उज्जैन, ग्वालियर, कालिंजर, दिल्ली और अजमेर के राजाओं ने भी सेना भेजी।

“विदेशी मुस्लिम इतिहासकारों के इस प्रकार के वर्णन से हमारे राजाओं के बीच संगठन भाव और ‘संघे शक्ति’ में उनके विश्वास रखने की भावना का पता चलता है।”

    इस आक्रमण का एक दुखद परिणाम यह हुआ कि अफगानिस्तान से हिन्दू शाही राजाओं का राज्य लगभग समाप्त हो गया और तुर्क आक्रमणकारियों ने भारत में प्रवेश किया। डा. आशीर्वादीलाल लिखते हैं कि - *"हिंदू शाही राज्य एक बाँध की भाँति तुर्की आक्रमणों की बाढ़ को रोके हुए था। उसके टूट जाने से समस्त उत्तरी भारत मुसलमानों के आक्रमणों की बाढ़ में डूब गया।"* भारत के इस पश्चिमी क्षेत्र को बचाए रखने के लिए बड़े संघर्ष करने पड़े और बलिदान दे दे कर इस क्षेत्र की रक्षा की गयी। महमूद गजनवी ऐसा पहला मुसलमान आक्रमणकारी बना जिसने भारत के आंतरिक भागों में भी जाकर भीषण लूट-मार की।

    महमूद गजनवी यमीनी वंश के तुर्क सरदार गजनी के शासक सुबुक्तगीन का पुत्र था। उसका जन्म सं. 1028 वि. (ई. 971) में हुआ माना जाता है। 27 वर्ष की आयु में सं. 1055 (ई. 998) में वह अपने पिता के राज्य का उत्तराधिकारी बना था। महमूद बचपन से भारतवर्ष की अपार समृद्धि और धन-दौलत के विषय में सुनता रहा था। कहते हैं कि उसने 17 बार भारत पर आक्रमण किया और यहाँ की अपार सम्पत्ति को वह लूट कर गज्जनी ले गया था। उसके आक्रमण और लूटमार के काले कारनामों से तत्कालीन ऐतिहासिक ग्रंथों के पन्ने भरे हुए है।

क्रमशः

Comment:Cancel reply

Exit mobile version