मित्रो ! आज 1 अगस्त है । आज ही के दिन 1920 में गांधी जी ने असहयोग आंदोलन आरंभ किया था । इस आंदोलन के संदर्भ में हमें यह बात ध्यान रखनी चाहिए कि 1857 की क्रांति के पश्चात भारत में अनेकों ऐसे क्रांतिकारी आंदोलन हुए थे , जिनसे भारत का जनमानस बहुत अधिक आंदोलित हो चुका था । यदि उसे कहीं से थोड़ा सा भी अंग्रेजों का विरोध करने का अवसर मिलता था तो वह तुरंत समरांगण में कूद पड़ता था ।
1 अगस्त 1920 को जब गांधीजी ने अंग्रेजो का विरोध करने के लिए असहयोग आंदोलन का शुभारंभ किया तो ऐसे आंदोलनों की प्रतीक्षा में सदा उद्यत रहने वाला भारत का जनमानस उनके साथ समरांगण में कूद पड़ा । पंजाब में गुरु राम सिंह जी के नेतृत्व में कूका आंदोलन 1870 के लगभग लड़ा गया । इस दौरान पंजाब के 22 जिलों के 700000 लोगों ने एक साथ अंग्रेजों के विरुद्ध आंदोलन में अपनी सहभागिता दर्ज कराई थी । इसी संख्या से अनुमान लगाया जा सकता है कि भारत के लोग आंदोलनों के लिए कितने आतुर रहते थे ? दूसरे , गुरु रामसिंह का यह आंदोलन भी असहयोग आंदोलन ही था । परंतु यह क्रांतिकारी लोगों का संगठन था , जिसे हमारे इतिहास में उतना सम्मानजनक स्थान नहीं दिया गया , जितना दिया जाना अपेक्षित था । 1872 में अंग्रेजों ने गुरु रामसिंह को गिरफ्तार कर रंगून भेज दिया था । परंतु गुरु जी की द्वारा जलाई गई ज्योति चुपचाप अभी तक भी अपना प्रकाश उत्कीर्ण कर रही थी।
कहने का अभिप्राय है कि भारत की क्रांतिकारी जनता अंग्रेजों का विरोध पहले से ही क्रांतिकारी आंदोलनों के माध्यम से करती आ रही थी । उसे जब गांधी जी ने फिर एक आंदोलन के लिए आवाज दी तो वह फिर एक क्रांति के लिए गांधीजी के साथ आकर खड़ी हो गई , परंतु जब गांधीजी ने चोरी चोरा कांड के पश्चात इस आंदोलन को अचानक रोकने की बात कही तो देश की जनता ठगी सी रह गई ।
आंदोलन के दौरान विद्यार्थियों ने सरकार द्वारा चलाए जा रहे स्कूलों और कॉलेजों में जाना छोड़ दिया । वकीलों ने अदालत में जाने से मना कर दिया ।कई कस्बों और नगरों में श्रमिक-वर्ग हड़ताल पर चला गया । सरकारी आँकड़ों के मुताबिक 1921 में 396 हड़तालें हुई जिनमें 6 लाख श्रमिक शामिल थे और इससे 70 लाख कार्यदिवसों का नुकसान हुआ । शहरों से लेकर गांव देहात में आंदोलन का असर दिखाई देने लगा ।
हमारा मानना है कि इतना जो कुछ भी हुआ वह गांधी जी के व्यक्तित्व के कारण नहीं ,अपितु इस देश के स्वतंत्रता प्रेमी संस्कार के कारण हुआ । जिससे सभी लोग सड़कों पर आ गए और गांधी जी को अपना नेता मानकर अंग्रेजों को भगाने का काम करने लगे । 712 में मोहम्मद बिन कासिम द्वारा किए गए आक्रमण से लेकर 1947 तक ऐसे कितने ही नेता भीड़ में से निकले जिनको लोगों ने अपना नेता मान कर विदेशी शासकों का विरोध किया। यदि समय आने पर गांधी को भी लोगों ने अपना नेता मान लिया था तो इसका अभिप्राय यह नहीं था कि गांधीजी इस देश के राष्ट्रपिता हो गए थे या उनसे पहले इस देश के लोग अपनी स्वतंत्रता के लिए कोई संघर्ष ही नहीं कर रहे थे ? यह भी नहीं था कि गांधीजी ही वह व्यक्ति थे जिन्होंने इस देश के लोगों को स्वतंत्रता के लिए लड़ना सिखाया था और यह भी नहीं था कि गांधीजी ही वह व्यक्ति थे जो इस देश को अहिंसा , प्रेम और बंधुत्व की शिक्षा दे रहे थे । यह शिक्षा भी इस देश के संस्कारों में प्राचीन काल से रची , बसी और रमी चली आ रही थी। फिर भी गांधीजी के उस असहयोग आंदोलन को इस सीमा तक अवश्य स्वीकार करना चाहिए कि इसके माध्यम से लोगों ने फिर अपनी एकता दिखाई थी और अंग्रेजी सरकार को उखाड़ फेकने के अपने संकल्प को प्रकट किया था।
डॉ राकेश कुमार आर्य
संपादक : उगता भारत
( लेखक भारतीय इतिहास पुन:लेखन समिति के अध्यक्ष हैं )
मुख्य संपादक, उगता भारत