Categories
विश्वगुरू के रूप में भारत

मेरी नई पुस्तक : मेरे मानस के राम – अध्याय 8 : महर्षि अत्रि और शरभंग के आश्रम में

श्री राम वन में रहते हुए सीता जी और लक्ष्मण जी के साथ चित्रकूट से आगे के लिए प्रस्थान करते हैं। वाल्मीकि जी कहते हैं कि चित्रकूट में रहते हुए श्री राम जी इस बात का अनुभव रह रहकर कर रहे थे कि इस स्थान पर मेरा भाई भरत, मेरी माताएं और नगरवासी उपस्थित हुए थे ,उनकी स्मृतियां मुझे बार-बार आती रहेंगी और मुझे शोकाकुल करती रहेंगी। अतः यहां से चलना ही उचित है। तब यहां से चलकर वे महर्षि अत्रि के आश्रम में पहुंचे। महर्षि ने उनका हार्दिक स्वागत सत्कार किया और उन्हें पुत्रभाव से देखा।

चित्रकूट से राम जी, पहुंचे अत्रि पास।
दंडकवन में रह रहे, वह महात्मा खास।।

महर्षि अत्रि ने अपनी पत्नी अनुसूया से कहा कि तुम सीता जी को अपने साथ ले जाकर इनका आदर सत्कार करो । तब अनुसूया ने सीता जी से कहा कि “यह बड़े सौभाग्य की बात है कि तुम पतिव्रत धर्म की ओर ध्यान देती हो। वनवासी राम की अनुगामिनी हुई हो । पति चाहे कठोर स्वभाव का हो अथवा कामी हो या दरिद्र हो किंतु श्रेष्ठ स्वभाव वाली स्त्रियों के लिए पति ही परम देवता है।”

अनुसूया ने दे दिया, सीता को उपदेश।
पति ही नारी के लिए कहलाता परमेश।।

सीता जी कहने लगीं, पति सेवा है श्रेष्ठ।
हृदय से स्वीकार है, आपका यह उपदेश।।

अत्रि ऋषि के आश्रम से प्रस्थान करने के पश्चात श्री राम जी सीता जी और लक्ष्मण के साथ दंडकारण्य में पहुंचे । जहां पर ऋषियों ने उनका भरपूर स्वागत किया। महाभाग ऋषियों ने अपूर्व और महान अतिथि श्री राम को ले जाकर अपनी पर्णशाला में ठहराया। यहीं पर श्री राम जी का विराध से सामना हुआ । विराध नाम का वह राक्षस बहुत ही दुष्ट आचरण का था।

अत्रि आश्रम से चले, पहुंचे दंडकारण्य।
राम के आने से हुए, सभी ऋषि प्रसन्न।।

वनवासी श्री राम को ,मिल गया दुष्ट विराध।
मुनियों की हत्या करे, खावे उनका मांस।।

पाप वासना बढ़ चली , लपका सीता ओर।
दुर्गुणी वह नीच था, कामी, पापी, चोर।।

देख नीच की नीचता, राम को आया क्रोध।
किया अंत उस दुष्ट का, तुरत लिया प्रतिशोध।।

विराध का वध करने के पश्चात श्री राम जी शरभंग ऋषि के आश्रम में पहुंचते हैं । जिस समय श्रीराम शरभंग के आश्रम में पहुंचे उस समय वे अग्निहोत्र कर रहे थे। श्री राम ने उनके चरण छूकर उन्हें प्रणाम किया और अपना परिचय दिया। साथ ही उनसे निवेदन किया कि आप मुझे यहां रहने के लिए कोई स्थान बताइए। श्री राम के ऐसा कहने पर शरभंग ने कहा कि महातेजस्वी धर्मात्मा सुतीक्ष्ण नामक एक ऋषि इस वन में रहते हैं । आप उनके पास जाइए। वह आपके कल्याण के लिए स्थान आदि का सब प्रबंध कर देंगे।

शरभंग ऋषि के पास में, आ पहुंचे श्री राम।
सुतीक्ष्ण के संदर्भ में, बतलाया सब हाल।।

राह बताई राम को , फिर बोले शरभंग।
ब्रह्म – धाम मैं जा रहा , देखो मेरा ढंग ।।

तेजस्वी शरभंग ने , अग्नि करी प्रचण्ड।
अग्नि में गए कूद फिर, राम देख हुए दंग।।

दंडकारण्य में आ गए, ऋषि- तपस्वी- संत।
दुष्टों से हम हैं दु:खी, करो राम अब अंत।।

ऋषि शरभंग मृत्युंजय थे। उन्होंने अपने जीर्ण – शीर्ण शरीर को स्वेच्छा से अग्नि के समर्पित कर दिया। ऋषि शरभंग के दिवंगत हो जाने पर दंडकारण्यवासी तपस्वीगण एकत्र होकर श्री राम के पास आए और उन्हें अपनी व्यथा – कथा बताने लगे। उन्होंने बताया कि यहां पर अनेक प्रकार के दुष्ट, पापी , राक्षस लोग आकर उन्हें उत्पीड़ित करते हैं। तब:-

ऋषिगण की सुनकर व्यथा, राम को आया क्रोध।
प्रतिज्ञा तत्काल ली, लूंगा मैं प्रतिशोध।।

सीता जी कहने लगीं, मत लो आफत मोल।
अपने शब्द सुधारिए , जो तुमने दिए बोल।।

सुन , बोले श्री राम जी, क्षत्रिय मेरा वंश।
अत्याचारी जो मिले ,करूं उसका विध्वंस।।

आर्त्तनाद दु:खिया करें, मुझको है धिक्कार।
धर्म की रक्षा के लिए , चुनौती है स्वीकार।।

डॉ राकेश कुमार आर्य

Comment:Cancel reply

Exit mobile version