लेखक- श्री रामधारी सिंह ‘दिनकर’
उन्नीसवीं सदी के हिन्दू नवोत्थान के इतिहास का पृष्ठ-पृष्ठ बतलाता है कि जब यूरोप वाले भारतवर्ष में आये तब यहां के धर्म और संस्कृति पर रूढ़ि की पर्तें जमी हुई थीं एवं यूरोप के मुकाबले में उठने के लिए यह आवश्यक हो गया था कि ये पर्तें एकदम उखाड़ फेंकी जाएँ और हिन्दुत्व का वह रूप प्रकट किया जाए जो निर्मल और बुद्धिगम्य हो। स्वामी जी के मत से यह हिन्दुत्व पौराणिक कल्पनाओं के नीचे दबा हुआ था। उस पर अनेक स्मृतियों की धूल जम गयी थी एवं वेद के बाद के सहस्रों वर्षों में हिन्दुओं ने जो रूढ़ियां और अन्धविश्वास अर्जित किये थे उनके ढूहों के नीचे यह धर्म दबा पड़ा था। राममोहन राय, रानाडे, केशवचन्द्र और तिलक से भिन्न स्वामी दयानन्द की विशेषता यह रही कि उन्होंने धीरे-धीरे पपड़ियां तोड़ने का काम न करके उन्हें एक ही चोट से साफ कर देने का निश्चय किया। परिवर्तन जब धीरे-धीरे आता है, तब सुधार कहलाता है किन्तु वही जब वेग से पहुंच जाता है, तब उसे क्रान्ति कहते हैं। दयानन्द के अन्य समकालीन सुधारकमात्र थे, किन्तु दयानन्द क्रान्ति के वेग से आये और उन्होंने निश्छलभाव से यह घोषणा कर दी कि हिन्दू-धर्म-ग्रन्थों में केवल वेद ही मान्य हैं। अन्य शास्त्रों और पुराणों की बातें बुद्धि की कसौटी पर कसे बिना मानी नहीं जानी चाहिएँ। छह शास्त्रों और अठारह पुराणों को उन्होंने एक ही झटके में साफ कर दिया। वेदों में मूर्तिपूजा, अवतारवाद, तीर्थों और अनेक पौराणिक अनुष्ठानों का समर्थन नहीं था अतएव स्वामी जी ने इन सारे कृत्यों और विश्वासों को गलत घोषित किया।
वेद को छोड़कर कोई अन्य धर्मग्रन्थ प्रमाण नहीं है। इस सत्य का प्रचार करने के लिए स्वामी जी ने सारे देश का दौरा करना आरम्भ किया और जहाँ-जहाँ वे गये, प्राचीन परम्परा के पण्डित और विद्वान् उनसे हार मानते गये। संस्कृत भाषा का उन्हें अगाध ज्ञान था। संस्कृत में वे धारावाहिक रूप से बोलते थे। साथ ही, वे प्रचण्ड तार्किक थे। उन्होंने ईसाई और मुस्लिम धर्म-ग्रन्थों का भी भली-भांति मंथन किया था। अतएव अकेले ही उन्होंने तीन-तीन मोर्चों पर संघर्ष आरम्भ कर दिया। दो मोर्चे तो ईसाइयत और इस्लाम के थे, किन्तु तीसरा मोर्चा सनातन धर्मी हिन्दुओं का था, जिनसे जूझने में स्वामी जी को अनेक-अनेक अपमान, कुत्सा, कलंक और कष्ट झेलने पड़े। उनके प्रचण्ड शत्रु ईसाई और मुसलमान नहीं, सनातनी हिन्दू ही निकले और कहते हैं अन्त में इन्हीं हिन्दुओं के षड्यन्त्र से उनका प्राणान्त भी हुआ। दयानन्द ने बुद्धिवाद की जो मशाल जलायी थी उसका कोई जवान नहीं था। वे जो कुछ कह रहे थे उसका उत्तर न तो मुसलमान दे सकते थे, न ईसाई, न पुराणों पर पलने वाले हिन्दू पण्डित और विद्वान्। हिन्दू नवोत्थान अब पूरे प्रकाश में आ गया था और अनेक समझदार लोग मन ही मन यह अनुभव करने लगे थे कि सच ही पौराणिक धर्म में कोई सार नहीं है।
आर्यसमाज की स्थापना
सन् १८७२ ई० में स्वामी जी कलकत्ता पधारे। वहाँ देवेन्द्रनाथ ठाकुर और केशवचन्द्र सेन ने उनका बड़ा सत्कार किया। ब्रह्मसमाजियों से उनका विचार-विमर्श भी हुआ, किन्तु ईसाईयत से प्रभावित ब्रह्मसमाजी विद्वान् पुनर्जन्म और वेद की प्रामाणिकता के विषय में स्वामी जी से एकमत नहीं हो सके। कहते हैं कलकत्ता में ही केशवचन्द्र सेन ने स्वामी जी को यह सलाह दी कि यदि आप संस्कृत छोड़कर हिन्दी में बोलना आरम्भ करें तो देश का असीम उपकार हो सकता है। तभी से स्वामी जी के व्याख्यानों की भाषा हिन्दी हो गयी और हिन्दी प्रान्तों में उन्हें अगणित अनुयायी मिलने लगे। कलकत्ता से स्वामी जी बम्बई पधारे और वहीं १० अप्रैल सन् १८७५ ई० को उन्होंने आर्य समाज की स्थापना की। बम्बई में उनके साथ प्रार्थना समाज वालों ने भी विचार-विमर्श किया किन्तु यह समाज तो ब्रह्मसमाज का ही बम्बई संस्करण था। अतएव स्वामी जी से इस समाज के लोग भी एकमत नहीं हो सके।
बम्बई से लौटकर स्वामी जी दिल्ली आये। यहाँ उन्होंने सत्यानुसंधान के लिए ईसाई, मुसलमान और पण्डितों की एक सभा बुलायी किन्तु दो दिनों के विचार-विमर्श के बाद भी लोग किसी निष्कर्ष पर नहीं जा सके। दिल्ली से स्वामी जी पंजाब गये। पंजाब में उनके प्रति बहुत उत्साह जागृत हुआ और सारे प्रान्त में आर्य समाज की शाखाएँ खुलने लगीं। तभी से पंजाब आर्यसमाजियों का प्रधान गढ़ रहा है।
स्वामी जी के देहावसान के बाद मादाम ब्लेवास्की ने लिखा था कि ‘जनसमूह के उभरते हुए क्रोध के सामने कोई संगमरमर की मूर्ति भी स्वामी जी से अधिक अडिग नहीं हो सकती थी। एक बार हमने काम करते देखा था। उन्होंने अपने सभी विश्वासी अनुयायियों को यह कहकर अलग हटा दिया कि तुम्हें हमारी रक्षा करने की कोई आवश्यकता नहीं है। भीड़ के सामने वे अकेले ही खड़े हो गये थे। लोग उतावले हो रहे थे, क्रुद्ध सिंह के समान वे स्वामी जी पर टूट पड़ने को तैयार थे किन्तु स्वामी जी की धीरता ज्यों की त्यों बनी रही। यह बिल्कुल सही बात है कि शंकराचार्य के बाद से भारत में कोई भी व्यक्ति ऐसा नहीं हुआ जो स्वामी जी से बड़ा संस्कृतज्ञ, उनसे बड़ा दार्शनिक, उनसे अधिक तेजस्वी, वक्ता तथा कुरीतियों पर टूट पड़ने में उनसे अधिक निर्भीक रहा हो।’
स्वामी जी की मृत्यु के बाद थियोसोफिस्ट अखबार ने उनकी प्रशंसा करते हुए लिखा था कि ‘उन्होंने जर्जर हिन्दुत्व के गतिहीन ढूह पर भारी बम का प्रहार किया और अपने भाषणों से लोगों के हृदयों में ऋषियों और वेदों के लिए अपरिमित उत्साह की ज्योति जला दी। सारे भारतवर्ष में उनके समान हिन्दी और संस्कृत का वक्ता दूसरा कोई और नहीं था।’
आर्यसमाज की विशेषता
स्वामी जी ने ईश्वर, जीव और प्रकृति तीनों को अनादि माना है, किन्तु, यह तो इस्लाम से अधिक भारतीय योगदर्शन का मत है। भिन्नता यह है कि स्वामी जी यह नहीं मानते कि भगवान् पापियों के पाप को भी क्षमा करते हैं, बल्कि भगवान् की कृपा के सहारे पाप करने की बात के लिए उन्होंने इस्लाम और ईसाइयत की बार-बार आलोचना की है। हाँ, जिन बुराइयों के कारण हिन्दू-धर्म का ह्रास हो रहा था तथा अन्य धर्मों के लोग जिन दुर्बलताओं का लाभ उठाकर हिन्दुओं को ईसाई बना रहे थे, उन बुराइयों को स्वामी जी ने अवश्य दूर किया, जिससे हिन्दुओं के सामाजिक संगठन में वही दृढ़ता आ गयी जो इस्लाम में थी। स्वामी जी ने छुआछूत के विचार को अवैदिक बताया और उनके समाज ने सहस्रों अन्त्यजों को यज्ञोपवीत देकर उन्हें हिन्दुत्व के भीतर आदर का स्थान दिया। आर्य समाज ने नारियों की मर्यादा में वृद्धि की एवं उनकी शिक्षा-संस्कृति का प्रचार करते हुए विधवा विवाह का भी प्रचलन किया। कन्या-शिक्षा और ब्रह्मचर्य का आर्य समाज ने इतना अधिक प्रचार किया कि हिन्दी-प्रान्तों में साहित्य के भीतर एक प्रकार की पवित्रतावादी भावना भर गयी और हिन्दी के कवि कामिनी नारी की कल्पनामात्र से घबराने लगे। पुरुष शिक्षित और स्वस्थ हों, नारियां शिक्षित और सबला हों, लोग संस्कृत पढ़ें और हवन करें, कोई भी हिन्दू मूर्तिपूजा का नाम न ले, न पुरोहित, देवताओं और पण्डों के फेरे में पड़ें, ये उपदेश उन सभी प्रान्तों में कोई पचास सालों तक गूँजते रहे, जहाँ आर्य समाज का थोड़ा बहुत भी प्रचार हुआ था।
हिन्दुत्व की वीर भुजा
आर्यसमाज हिन्दुत्व की खड्गधार बाँह साबित हुआ। स्वामी जी के समय से लेकर, अभी हाल तक, इस समाज ने सारे हिन्दी-प्रान्त को अपने प्रचार से आँटा डाला। आर्यसमाज के प्रभाव में आकर बहुत से हिन्दुओं ने मूर्तिपूजा छोड़ दी, बहुतों ने अपने घर के देवी-देवताओं की प्रतिमाओं को तोड़कर बाहर फेंक दिया, बहुतों ने श्राद्ध की पद्धति बन्द कर दी और बहुतों ने पुरोहितों के अपने यहाँ से विदा कर दिया। जो विधिवत् आर्य समाजी नहीं बने, शास्त्रों और पुराणों से उनका विश्वास हिल गया और वे भी, मन ही मन, शंका करने लगे कि राम और कृष्ण ईश्वर हैं या नहीं और पाषाणों की पूजा से मनुष्य को कोई लाभ हो सकता है या नहीं। आर्यसमाजियों ने जगह-जगह अपने उद्देश्यानुकूल विद्यालय स्थापित किये, जिनमें संस्कृत की विशेष रूप से पढ़ाई होती है और जहाँ के स्नातक स्वामी दयानन्द के उद्देश्यों के मूर्तिमान् रूप बनकर बाहर आते हैं। इन विद्यालयों में कन्या और युवक ब्रह्मचर्य-वास करते हैं।
आगे चलकर आर्य समाज ने शुद्धि और संगठन का भी प्रचार किया। सन् १९२६ ई० में मोपला (मालाबार) में मुसलमानों ने भयानक विद्रोह किया और उन्होंने पड़ोस के हिन्दुओं को जबरदस्ती मुसलमान बना लिया। आर्य समाज ने इस विपत्ति के समय संकट के सामने छाती खोली और कोई ढाई हजार भ्रष्ट परिवारों को फिर से हिन्दू बना लिया। इसी काण्ड के बाद आर्यसमाजियों ने मलकाना-राजपूतों की शुद्धि आरम्भ की, जिससे मुस्लिम सम्प्रदाय में क्षोभ उत्पन्न हुआ और लोग कहने लगे कि आर्यसमाजी मुसलमानों से शत्रुता कर रहे हैं। किन्तु शत्रुता की इसमें कोई बात नहीं। जब अन्य धर्म वालों को यह अधिकार है कि वे चाहे जितने हिन्दुओं को ईसाई या मुसलमान बना सकते हैं, तब धर्म-भ्रष्ट हिन्दुओं को फिर से हिन्दू बना लेने में ऐसा क्या अन्याय है? किन्तु, आर्यसमाजियों के इस साहस से मुसलमान बहुत घबराये एवं भारतीय एकता का संकट कुछ पीछे की ओर लुढ़क गया।
आर्यसमाजियों ने अपने साहस का दूसरा परिचय सन् १९३६ में दिया जब हैदराबाद की निजाम सरकार ने यह फरमान जारी किया था कि हैदराबाद राज्य में आर्य समाज का प्रचार नहीं होने दिया जाएगा। इस आज्ञा के विरुद्ध आर्यसमाजियों ने सत्याग्रह का शास्त्र निकाला और एक-एक करके कोई बारह हजार आर्यसमाजी सत्याग्रही जेल चले गये।
ईसाइयत और इस्लाम के आक्रमणों से हिन्दुत्व की रक्षा करने में जितनी मुसीबतें आर्य समाज ने झेली हैं, उतनी किसी और संस्था ने नहीं। सच पूछिये तो उत्तर भारत में हिन्दुओं को जगाकर उन्हें प्रगतिशील करने का सारा श्रेय आर्य समाज को ही है। पण्डित चमूपति ने सत्य ही कहा है कि ‘आर्य समाज के जन्म के समय हिन्दू कोरा फुसफिसिया जीव था। उसके मेरुदण्ड की हड्डी थी ही नहीं चाहे उसे कोई गाली दे, उसकी हंसी उड़ाये, उसके देवताओं की भर्त्सना करे या उसके धर्म पर कीचड़ उछाले, जिसे वह सदियों से मानता आ रहा है, फिर भी, इन सारे अपमानों के आगे वह दांत निपोरकर रह जाता था। लोगों को यह उचित शंका हो सकती थी कि यह गुस्से में आकर प्रतिपक्षी की ओर घूर भी सकता है या नहीं, किन्तु आर्य समाज के उदय के बाद अविचल उदासीनता की यह मनोवृत्ति विदा हो गयी। हिन्दुओं का धर्म एक बार फिर जगमगा उठा है। आज का हिन्दू अपने धर्म की निन्दा सुनकर चुप नहीं रह सकता। जरूरत हुई तो धर्म-रक्षार्थ अपने प्राण भी दे सकता है।’
[स्त्रोत- आर्य मर्यादा : आर्य प्रतिनिधि सभा पंजाब का प्रमुख पत्र का अप्रैल २०२१ का अंक; प्रस्तुति- प्रियांशु सेठ]
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