एक महान क्रांतिकारी शहीद उधम सिंह के बलिदान दिवस पर
- आज के दिन ही दी गई थी 1940 में फांसी
- आज ही के दिन 1974 में ब्रिटेन ने सौंपे थे उनकी अस्थियों के अवशेष
- दुखद है कि आज तक भी नहीं मिला इतिहास में उचित सम्मान
पंजाब के ऐतिहासिक नगर अमृतसर का जलियांवाला (जलियां नामक एक माली का) बाग भारत के क्रांतिकारी स्वतंत्रता आंदोलन का गौरवमयी स्मारक है। यहां देश के 2000 उन स्वतंत्रता सेनानियों का स्मारक है, जिन्हें पंजाब के तत्कालीन मुख्य प्रशासक ओडायर और लैफ्टिनेन्ट गवर्नर डायर (दोनों नाम और व्यक्ति अलग अलग हैं) ने अपनी पाशविकता का शिकार बनाया था। जी हां, हम 13 अप्रैल 1919 की बैशाखी के दिन घटित उसी जलियांवाला बाग हत्याकांड की चर्चा कर रहे हैं, जिस के ‘लाल-गारे’ से क्रांतिकारी शहीद ऊधम सिंह के जीवन का निर्माण हुआ था। सचमुच यह ‘लाल-गारा’ भारत की अस्मिता और गौरव की हत्या करके बनाया गया था। भारत की इसी अस्मिता और गौरव की रक्षा इस घटना के 21 वर्ष पश्चात भारत की माटी के लाल ऊधम सिंह ने लंदन में 12 जून 1940 को इस बाग के हत्याकांड के मुख्य हीरो ‘ओडायर’ की हत्या करके की थी।
एक उपेक्षित क्रांतिकारी
सरदार ऊधम सिंह भारतीय क्रांतिकारी स्वतंत्रता आंदोलन के एक उपेक्षित पात्र हैं। जिस नौजवान ने अपना जीवन और पूरा यौवन देश के लिए दे दिया उसके साथ इतिहास का दण्ड अभी तक जारी है। उसकी क्रांतिकारी विचार धारा को अब तक समुचित स्थान इतिहास में नही दिया गया है। शोक! महाशोक!!
इस क्रांतिकारी महायोद्घा का जन्म पंजाब की पटियाला रियासत के सुनाम नामक गांव में सरदार टहल सिंह के परिवार में दूसरी संतान के रूप में हुआ। बड़े भाई का नाम साधू सिंह था। जब ऊधम सिंह मात्र दो वर्ष के थे तो सन 1901 में जननी जन्मदात्री माता का देहांत हो गया था। तब पिता टहल सिंह अपने दोनों बेटों को सुनाम से अमृतसर ले आए। परंतु पिता का स्वास्थ्य भी अच्छा नही रहता था, आर्थिक स्थिति भी अत्यंत खराब हो चुकी थी। इसलिए चिकित्सा के लिए भी कोई साधन नही थे, फलस्वरूप ऊधम सिंह जब पांच वर्ष के हुए तो सन 1907 में पिता का साया भी साथ छोड़कर चला गया। यह वही अवस्था होती है जब पिता अपनी संतान की ऊंगली पकड़कर उसे विद्यालय की सीढ़ियां चढ़ाता है, परंतु यहां तो उल्टा हो रहा था पिता की उंगली छूट रही थी। दोनों अनाथ भाई इधर उधर घूम घूमकर अपना जीवन यापन करने लगे। कठिनाइयों और विषमताओं का दौर अभी समाप्त नही हो रहा था। एक भजनोपदेशक भाई चंचल सिंह ने उन्हें एक अनाथाश्रम में डलवा दिया जहां बच्चों को पढ़ाई के साथ साथ दस्तकारी भी सिखाई जाती थी। दोनों भाई जीवन पथ पर आगे बढ़ रहे थे-परंतु 19 वर्ष के तरूण भाई साधूसिंह का स्वास्थ्य अचानक बिगड़ा और सन 1917 में एक दिन वह भी भाई का साथ छोड़कर चले गये।
अब ऊधम सिंह नितांत अकेले थे। ईश्वर की छत्रछाया और मजबूत इच्छा शक्ति से बना आत्मबल ही अब उनके मित्र थे। मजबूत इरादे के धनी इस युवक ने अपने इन दोनों मित्रों का दामन पकड़ा और फिर उठकर चल दिया-क्रांति पथ की ओर। क्योंकि उसे एक महान दायित्व का निर्वाह करना था अब उसकी मां भारत माता थी, पिता भारतीय राष्ट्र था तो भाई देश के करोडा़ें नौजवान थे। इस उदात्त भावना के वशीभूत होकर ऊधम सिंह बैठे-बैठे अनंत में खो जाते और भविष्य की योजनाओं को सिरे चढ़ाने के सपने संजोते रहते। क्योंकि उस समय स्वतंत्रता आंदोलन चल रहा था और उससे उन जैसा क्रांतिकारी नौजवान भला कैसे अछूता रह सकता था?
नियति ने मार्ग दिखा दिया
तभी पंजाब के मुख्य प्रशासक जनरल ओडायर ने रौलट एक्ट के खिलाफ भारतीयों के उबलते खून को शांत करने के लिए कड़ाई बरतने के संकेत देते हुए 13 अप्रैल 1919 को बैशाखी के दिन पंजाब के अमृतसर में भारतीयों को कोई सभा न करने देने की चेतावनी दी। इसी क्रम में पंजाब के दो नेता डा. सत्यपाल और श्री किचलू को गिरफ्तार कर लिया गया। जनता इससे उत्तेजित हो गयी और गांधीजी की अपील पर नियत दिन को जलियांबाला बाग में जाकर सभा करने लगी। तब जनरल ओडायर ने बाग को आकर घेर लिया और उसने 1650 चक्र गोलियां चलाईं, जिससे 2000 लोगों की मौके पर ही मौत हो गयी, तथा 3600 के लगभग लोग घायल हो गये। घायलों ने बाग से भागने का प्रयास किया तो उनमें से कितनों ने ही अमृतसर के गली मौहल्लों में भागते भागते अपने प्राण गंवा दिये। इस प्रकार अमृतसर की गली गली में लाशें फैल गयीं थीं। इस जघन्य हत्याकाण्ड में ओडायर के साथ साथ लेफ्टिनेंट गर्वनर डायर भी था।
क्रांतिकारी ज्वाला से धधकता ऊधम सिंह इस घटना का साक्षी था। वह एक स्वयंसेवी नवयुवक के रूप में वहां उपस्थित था, परंतु निहत्था था। इस घटना की जघन्यता इस नवयुवक के खून को अंदर तक खौलाकर रख दिया था। वह बाबा टलनाम नामक स्थान से होकर रात में गुजर रहा था तभी पेशावर की रत्नादेवी नामक एक महिला के रूदन पूर्ण विलाप की चीख उनके कानों में पड़ी। नवयुवक के पूछने पर महिला ने बताया कि वह और उसका पति बैशाखी स्नान के लिए अमृतसर आए थे-परंतु पति जलियांवाला बाग की इस घटना में शहीद हो चुके हैं-अब मैं उनकी लाश को लेने के लिए व्याकुल हूं। नवयुवक ऊधम सिंह ने बहन की सहायता का संकल्प लिया और उससे कहा कि तुम मेरे साथ चलो, पर शर्त ये है कि तुम रोओगी नही। महिला ने हां कह दिया और ना रोने का व्रत लिया।
तब दोनों गोरे सिपाहियों को झांसा देकर किसी तरह से बाग में घुसने में सफल हो गये। बड़े प्रयत्न से और बड़ा जोखिम लेकर रात्रि के अंधेरे में लाशों के ढेर में किसी प्रकार वे दोनों वांछित लाश को पहचानने में सफल हो गये। लेकिन धर्मपरायण रत्नादेवी ने जैसे ही पति की खून से लथपथ लाश देखी तो उसकी चीख निकल गयी। वह भूल गयी कि उसने ऊधम सिंह को क्या वचन दिया था? उसकी चीख को सुनते ही गोरे सिपाहियों ने गोली चला दी, जो ऊधम सिंह के बाजू में आकर लगी, पर उस शेर ने अपनी पगड़ी उतारी और बाजू को कसकर बांध लिया। इस बहन के पति की लाश को उठाकर किसी तरह बाहर ले आया और उसे रत्नादेवी को अंतिम संस्कार के लिए सौंप दिया। पर उसने इस हत्याकांड के हीरो अंग्रेज जनरल ओडायर को मारने का संकल्प ले लिया।
दो बार विदेश यात्रा की
अंग्रेज ओडायर ने 14 अप्रैल को भी जलियांबाला बाग पर विमानों से बमबारी की थी। जब उसे इस घटना की जांच कर रही हंटर कमेटी के समक्ष प्रस्तुत किया गया था तो उसने बड़े गर्व से कहा था कि मैंने गोलियां बड़ी सावधानी से इस प्रकार चलवाई थीं कि कोई भी गोली खाली ना जाए और प्रत्येक गोली से कोई न कोई भारतीय मरना ही चाहिए।
इस प्रकार की अंग्रेजों की मानसिकता से भारतीयों को मुक्ति दिलाने के लिए भारत मां का यह अमर सपूत ऊधम सिंह भारत से अफ्रीका और अफ्रीका से अमरीका चला गया। वहां उन्होंने क्रांतिकारी साथियों को खोजना आरंभ किया। उनकी बहादुरी की चर्चा भगत सिंह व चंद्रशेखर जैसे क्रांतिकारियों के कानों तक भी जा पहुंची थी, उन्होंने इसलिए इन्हें स्वदेश बुला लिया। ऊधम सिंह के साथ अमरीका से 25 साथी भारत आए, जिनमें एक अमेरिकन युवती भी थी, जिसे स्वदेश लौटने के लिए ऊधम सिंह ने भी कहा था परंतु वह गयी नही और उनके साथ क्रांतिकारी गतिविधियों में लग गयी। वह युवती इस महान क्रांतिकारी की त्याग और तपस्यामयी राष्ट्रभक्ति से अत्यंत प्रभावित थी।
1928 में एक बार लाहौर के पास वह युवती और भगत सिंह के दो अन्य क्रांतिकारी साथी एक तांगे में बैठकर कहीं जा रहे थे तभी वहां अचानक पुलिस आई और उसने वह तांगा रोक लिया। भगत सिंह वस्तु स्थिति को ताड़ गये उन्होंने उस युवती से तथा अपने साथियों से अजनबी बने रहने का संकेत किया और उन तीनों ने ऐसा ही किया भी कि वे भगत सिंह को नही जानते। इसलिए पुलिस भगत सिंह को उनकी एक संदूक के साथ पकड़कर थाने ले गयी। वहां संदूक खोला गया तो उसमें 400 कारतूस मिले। जिन्हें लेकर ऊधम सिंह को 4 साल की सजा सुनाई गयी। 1932 में भारत मां का ये शेर सजा काटकर बाहर आया। तब उन्होंने फिर विदेश का रास्ता पकड़ा। इस बार वे लंदन गये और अपने शिकार ओडायर की तलाश में रहने लगे। दिन रात ये अपने शिकार का काम तमाम करने के लिए योजनाएं बनाते और उन्हीं में व्यस्त रहते। डूब जाते अपनी योजना को सिरे चढ़ाने की योजनाओं में।
अंतत: 1940 में वह घड़ी आई ही गयी। जब 13 मार्च 1940 की शाम को कैक्सन हॉल की कांफ्रेंस में ओडायर के द्वारा एक सभा को संबोधित करने की सूचना उन्हें मिली। वह उस हॉल में जाकर पीछे की ओर बैठ गये। सभा में ओडायर भारत के विषय में भी बोला और जलियांबाला बाग के हत्याकांड की चर्चा भी उसने की। अपने भाषण में वह भारतीयों को कायर तक कह गया था। इसके भाषण की समाप्ति 4 बजकर 30 मिनट पर हुई थी। जैसे ही वह मंच से उठकर चला तो ऊधम सिंह ने अपने रिवाल्वर को अपने जीवन के सबसे महत्वपूर्ण क्षणों में और महत्वपूर्ण कार्य के लिए अंतिम बार बड़े प्यार से देखा और ओडायर के निकट आकर 6 गोलियां उस पर दाग दीं। दो गोली उस क्रूर अंग्रेज को सदा के लिए शांत करती हुई भारत के जलियांबाला बाग के शहीदों को अपना अंतिम लेकिन गौरवमयी सलाम करती हुई निकल गयीं।
कई क्रूर अंग्रेजों को भी घायल किया
ऊधम सिंह की गोलियों ने लार्ड जैटलैण्ड, लार्ड लेमिंगटन और मि. लुईडेन को भी घायल किया था। लुईडेन पंजाब का गवर्नर रहा था। ऊधम की गोली ने इसकी बांह तोड़ दी थी। लार्ड लेमिंगटन बंबई का गवर्नर रहा था, जिसे एक बार दुर्गा भाभी भी मारने के लिए बंबई गयी थीं। आज उसे भी लहुलुहान कर ऊधम सिंह ने भाभी की दुआएं ले ली थीं। जबकि जैटलैण्ड भारतमंत्री रहा था। वह भी बड़ा क्रूर था आज उसे भी घायल कर ऊधम सिंह ने भारत के शेरत्व का परिचय दिया था। इस प्रकार एक शिकार की ओट में ऊधम सिंह ने कई शिकारों को भारत का सही परिचय दे दिया था। सारी सभा में सन्नाटा छा गया, तभी एक अंग्रेज महिला ऊधम सिंह के सामने आ गयी। उस पर भारत मां के इस अमर सपूत ने हमला नही किया और संकट के क्षणों में भी भारत के जीवन मूल्यों का परिचय दिया।
मुकदमे के पश्चात जीवन होम
अंग्रेजों ने औपचारिकता के लिए ऊधम सिंह के विरूद्घ मुकदमा चलाया। जब उनसे उनका नाम पूछा गया तो मां भारती के इस सच्चे आराधक ने अपना नाम ‘राम मुहम्मद सिंह आजाद’ बताया। परंतु बाद में तहकीकात करने से पता चला कि उनका वास्तविक नाम ऊधम सिंह है, जो कि पहले भारत में भी जेल काट चुका है। ‘ओल्ड वेली सेंट्रल क्रिमिनल मार्ट’ नामक न्यायालय में चले मुकदमे में सारी जूरी के जज ऊधम सिंह के प्रति पूर्वाग्रह ग्रस्त थे। उनके सामने फिर भी उन्होंने बड़ी निर्भीकता से कह दिया कि उन्हें अपने किये का कोई पाश्चाताप नही है। क्योंकि भारत मां के साथ और मेरे देशवासियों के साथ अब से पूर्व जो कुछ किया गया है उसकी प्रतिक्रिया में ही मैंने यह कार्य किया है। ओडायर के साथ जो कुछ किया गया है वह वास्तव में उसी के योग्य था। उन्होंने अंग्रेजों से पूछा था कि क्या लार्ड जैटलैण्ड अभी तक नही मरे? मैंने उन्हें यहां (अपने पेट से कपड़ा उठाकर) गोली मारी थी। ।इस प्रकार की निर्भीकता को देखकर ऊधम सिंह को जजों ने प्राणदण्ड देने का फैसला किया और 12 जून 1940 को फांसी की सजा सुना दी गई और 31 जुलाई 1940 को उन्हें ‘पेंटनविले जेल’ में फाँसी दे दी गयी।
इस प्रकार भारत मां का एक अमर सपूत, भारत मां का एक अमर क्रांतिकारी भारत मां के सम्मान के लिए उसके गौरव के लिए तथा मां की महिमा के लिए अपना आत्मोत्सर्ग दे गया। 31 जुलाई 1974 को ब्रिटेन ने उनके अवशेष भारत को सौंप दिए थे। ऊधमसिंह की अस्थियाँ सम्मान सहित भारत लायी गईं। उनके गाँव में उनकी समाधि बनी हुई है।स्वतंत्रा पूर्व उन जैसे लोगों को अंग्रेज और उनके कुछ स्वामिभक्त चाटुकार भारतीय उग्रवादी कहा करते थे और उनके प्रयासों को तथा राष्ट्रभक्ति से ओतप्रोत कार्यों को कम करके आंकते थे। पर आज तो हम आजाद हैं, हम पर किसी का शासन नही है, तब भी हम अपने क्रांतिकारी और इस देश के कोहिनूरों को कम करके क्यों आंक रहे हैं? भारत का युवा इन महान क्रांतिकारियों की जीवनियों से क्यों वंचित रखा जा रहा है? इतिहास की गौरवमयी कोख में छिपे इन अनमोल हीरों को जनसाधारण से आखिर क्यों छिपाया जा रहा है ?
कौन देगा धधकते हुए इन प्रश्नों का उत्तर?
यह भारत ऊधम सिंह का भारत तब तक नही बनेगा जब तक हम अपने स्वाभिमान की रक्षा के लिए शत्रु को उसके घर तक जाकर मारने के लिए तैयार नही होंगे, तब तक हमारा देश ेविश्व-बिरादरी में दब्बू ही बना रहेगा। चीन हमारी सीमा में घुसकर 19 किलोमीटर तक सड़क बना ले ( यह घटना संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन अर्थात मनमोहन सिंह सरकार के समय की है )और हमें पता तक भी नही चले, इसे देखकर शहीद ऊधम सिंह की आत्मा स्वर्ग में भी तड़फ रही होगी, और यह देखकर तो और भी दुखी हो रही होगी कि इस देश पर शासन भी एक सरदार का है। इस देश को सरदार तो चाहिए, पर मनमोहन सिंह नही अपितु ऊधम सिंह चाहिए। आओ, चलो बनाएं फिर ऊधम सिंह के सपनों का भारत। इसके लिए इतिहास के छुपे इन अनमोल हीरों को आज की युवा पीढ़ी के सामने उनके वास्तविक स्वरूप में लाना ही पड़ेगा, अन्यथा मां भारती के ऋण से कभी उऋण नही हो पाएंगे।
इतिहास के पुन्: लेखन के हमारे शिव संकल्प के साथ जुड़ राष्ट्र सेवा का सौभाग्य प्राप्त करें ।
डॉ राकेश कुमार आर्य
संपादक : उगता भारत