मेरी नई पुस्तक : मेरे मानस के राम – अध्याय 5 : राम का वन गमन और भरत
जब रानी कैकेई ने हठ करते हुए अपने निर्णय से राजा दशरथ को अवगत कराया तो वह हतप्रभ रह गए। उन्हें जिस बात की आशंका थी, वही उनके सामने आ चुकी थी। इसके उपरांत भी कहीं ना कहीं वह मान रहे थे कि रानी इतनी निष्ठुर नहीं हो सकती, पर रानी ने सारी मर्यादाओं को तोड़ते हुए त्रिया हठ का रूप धारण कर लिया । उसने राजा को इतना विवश कर दिया कि वह अपने निर्णय से पीछे भी नहीं हटना चाहते थे और दिए गए वचन को भी लौटना उनके लिए असंभव हो गया था। ऐसी स्थिति में राजा भारी तनाव में आ गए। जब रामचंद्र जी को इस सारे घटनाक्रम की जानकारी हुई तो उन्होंने अपने पिता महाराज दशरथ और माता कैकई के मध्य के वार्तालाप की जानकारी लेकर स्वयं ही वन चले जाने का निर्णय लिया। रामचंद्र जी के इस निर्णय पर दशरथ और भी अधिक टूट गए । जबकि रानी कैकेई को रामचंद्र जी के इस निर्णय को सुनकर अत्यंत प्रसन्नता हुई।
राम ने सच को जानकर, ले लिया व्रत कठोर।
स्वीकार किया वनवास को,चल दिए अगली भोर।।
चल दी सीता साथ में, सेवक लक्ष्मण भ्रात।
पलक झपकते राम ने त्याग दिए सब ठाठ।।
सारा तांडव देखकर , दशरथ करें विलाप।
वियोग में श्री राम के, त्याग दिए थे प्राण।।
कभी-कभी व्यक्ति के जीवन में कैसे पल आ जाते हैं ? साथ जीने मरने की सौगंध उठाने वाले लोग ही हृदय को आघात पहुंचाने वाली बातें करने लगते हैं। जिस रानी ने अब से पूर्व कितनी ही बार राजा से साथ-साथ जीने मरने का संकल्प लिया था, वही रानी आज राजा के लिए प्राणलेवा बन चुकी थी। उस पर निहित स्वार्थ का रंग इतना गहराई से चढ़ चुका था कि अब उसे देश – धर्म या पति और राम जैसे पुत्र की कोई चिंता नहीं थी। उसे केवल अपने पुत्र भरत को राज दिलाने की ही चिन्ता थी। अपनी इसी योजना को सिरे चढ़ाने के लिए रानी पूर्णतया क्रूर बन चुकी थी । उसकी आंखों में रक्त उतर चुका था। राजनीति कितनी घातक हो सकती है ?- यह इस समय रानी कैकेई की आंखों को देखकर पढ़ा जा सकता था। इस घटना से यह भी समझा जा सकता है कि राजनीति में संवेदनशून्यता का इतिहास भी बहुत पुराना है। साथ ही यह भी समझा जा सकता है कि जब राजनीति संवेदनाशून्य होती है तो उसके परिणाम क्या आते हैं ?
निज पत्नी पापी बनी, हरे पति के प्राण।
राज दिलाया भरत को ,भेजे वन को राम।।
राम गए वनवास में, भरत पहुंचे निज गेह।
सुने सभी हालात तो, भूल गए निज देह ।।
रानी की हठ के कारण रामचंद्र जी वनवास चले गए। महाराज दशरथ ने प्राण त्याग दिए। तब गुरु वशिष्ठ ने मंत्रिमंडल की आपातकालीन बैठक बुलाकर निर्णय लिया कि ननिहाल गए भरत और शत्रुघ्न को तत्काल अयोध्या बुलाया जाए। सूचना प्राप्त होते ही भरत अयोध्या लौट आए। पर तब तक उन्हें वस्तुस्थिति का बोध नहीं था। जब अयोध्या पहुंचने पर उन्हें वास्तविकता का बोध हुआ तो वह बालकों की भांति रोने लगे। पिता के संसार छोड़ जाने के शोक समाचार ने तो उन्हें आहत किया ही भाई के वनवास जाने की वेदना तो उन्हें पूर्णतया हिला गई और जब पता चला कि यह सब उनकी मां के कारण हुआ है, तो वह मारे वेदना के चीख-चीखकर रोने लगे। तब उनकी स्थिति कुछ इस प्रकार हो गई थी :-
भरत अचंभित देखते, लुटा हुआ संसार।
पिता गए परलोक तो, बंधु गए वनवास।।
माता पर क्रोधित हुए, था मन में कष्ट अपार।
कहां से कुलटा आ गई, दु:खी किया परिवार।।
हत्यारी महाराज की, जीवन पाप से पूर्ण।
कभी नहीं हो पाएगी, तेरी इच्छा पूर्ण।।
अपने भाई राम के बारे में भरत कह रहे हैं कि :-
पवित्र आत्मा राम की, चित्त है बड़ा उदार ।
तू पापदर्शिनी हो गई , तुझको है धिक्कार।।
माता कौशल्या के सामने भरत जाते हैं तो अपने निष्पाप होने का विश्वास दिलाते हुए कहने लगते हैं कि :-
कौशल्या के सामने , करता भरत विलाप।
माता ! जिसने भी किया, किया घोर यह पाप।।
सौगंध उठा के कह रहा, हृदय से निष्पाप।
मेरी मां ने जो किया, उसका मुझे संताप ।।
भरत जी ने बहुत ही शोकपूर्ण परिवेश में अपने गुरु वशिष्ठ के दिशा निर्देश में अपने पिता दशरथ का अंतिम संस्कार किया।
राजा और युवराज दोनों के न होने की स्थिति में मंत्रिमंडल के सर्वसम्मत निर्णय के अनुसार उस समय गुरु वशिष्ठ ही राज्य संचालन का कार्य कर रहे थे। अतः कार्यकारी राजा के रूप में काम कर रहे गुरु वशिष्ठ की आज्ञाओं का यथावत पालन करना भरत के लिए उस समय अनिवार्य था।
दशरथ की महायात्रा, किया अंतिम संस्कार।
उमड़ – घुमड़ आते रहे, मन में कई विचार।।
यहीं हम यह भी स्पष्ट कर देना चाहते हैं कि जब रामचंद्र जी को युवराज घोषित किए जाने की पूरी तैयारी हो चुकी थी तो उन्हें इस बात की सूचना देने के लिए विधिवत निमंत्रण देकर राजभवन में आमंत्रित किया गया था। तब उन्हें राजा दशरथ की ओर से सभी मंत्रियों और अधिकारीगण के द्वारा लिए गए निर्णय से अवगत कराया गया कि उन्हें युवराज घोषित किया जा रहा है। उसी दिन रामचंद्र जी को उनके पिता दशरथ ने अकेले में अपने भवन में बुलाकर यह भी स्पष्ट बता दिया था कि जब उनका विवाह कैकेई के साथ हुआ था तो उनके पिता ने उनसे यह वचन लिया था कि मेरी पुत्री से जो पुत्र उत्पन्न होगा, उसी को राजा बनाया जाएगा। ऐसी स्थिति में राजा दशरथ चाहते थे कि भरत के ननिहाल पक्ष को उनके द्वारा लिए गए निर्णय की जानकारी होने से पहले ही सारा काम संपन्न हो जाए। यही कारण था कि भरत और शत्रुघ्न की अनुपस्थिति में वे राम को युवराज घोषित करने जा रहे थे।
डॉ राकेश कुमार आर्य
(लेखक सुप्रसिद्ध इतिहासकार और भारत को समझो अभियान समिति के राष्ट्रीय प्रणेता है )
मुख्य संपादक, उगता भारत