ओ३म् “वैदिक जीवन और यौगिक जीवन परस्पर पर्याय हैं”
ईश्वर, जीव और प्रकृति नित्य, अनादि व अनुत्पन्न सत्तायें हैं। विगत अनादि काल से जीवात्मा अपने कर्मानुसार जन्म लेता व मृत्यु को प्राप्त होता आ रहा है। अनेक बार जीवात्मा का मोक्ष भी हुआ है और मोक्ष से पुनः लौटकर मनुष्य व कर्मानुसार प्रायः सभी इतर योनियों में जन्म लेता रहा है। जीव की जीवन यात्रा का एक योनि व जीवन में आदि व अन्त होता है परन्तु प्रवाह से यह जीवनयात्रा अनादि है, आरम्भ व अन्त से रहित है। ईश्वर सच्चिदानन्द-स्वरूप है और जीव ज्ञान व गति (तप, कर्म व पुरुषार्थ आदि) गुणों वाला है। स्वाभाविक गुणों की उन्नति से ही जीवात्मा मनुष्य योनि में जन्म लेकर अपनी जीवन यात्रा को जीवन के उद्देश्य के अनुसार चला सकता है परन्तु महाभारतकाल के बाद ऐसी अवस्था उत्पन्न हुई कि परा विद्याओं के ज्ञान की असुलभता के कारण मनुष्य अपने उद्देश्य को भूलकर नाना प्रकार के मिथ्याचारों, ज्ञान, बुद्धि व ईश्वरीय की वेद-आज्ञा के विरुद्ध आचरण करते रहे जिससे उनकी उन्नति न होकर अवनति व पतन ही होता रहा। इसका एक परिणाम विदेशियों की दासता व घोर नैतिक पतन भी रहा। ऋषि दयानन्द ने सत्य की खोज करते हुए मनुष्य जीवन के यथार्थ उद्देश्य व उसकी प्राप्ति के साधनों का पता लगाया जो और कुछ न होकर वेद विहित कमों को करके ज्ञान प्राप्ति और वैदिक जीवन व्यतीत करते हुए ईश्वरोपासना से ईश्वर का साक्षात्कार कर सभी दुःखों, जन्म-मरण से अवकाश सहित मोक्ष प्राप्त करना ही सिद्ध होता है।
मनुष्य संसार में एक शिशु के रुप में माता-पिता से जन्म लेता है। माता-पिता उसे शिक्षित करते व कराते हैं। यदि मनुष्य को जन्म से अच्छा वातावरण मिले और गुरुकुलीय शिक्षा प्रणाली से वेदनिष्ठ आचार्यों से वेद और वैदिक साहित्य का पूर्ण ज्ञान हो जाये, तो वह मनुष्य उस ज्ञान के अनुसार आचरण करते हुए ईश्वरोपासना के सभी साधनों का उचित प्रयोग कर योग पथ पर आरुढ़ होकर समाधि अवस्था को प्राप्त कर ईश्वर साक्षात्कार कर सकता है। समाधि अवस्था में ईश्वर के साक्षात्कार से उसके जीवन का उद्देश्य पूर्ण हो जाता है। महर्षि पतंजलि के योग दर्शन में शरीर को स्वस्थ रखकर ज्ञान प्राप्ति और उपासना के प्रमुख साधन ईश्वर प्रणिधान सहित प्रत्याहार, धारणा, ध्यान व समाधि से जीवात्मा अपने दोषों को दूर कर ईश्वर के चिन्तन में डूब कर वा खो कर, उससे एकाकार होकर, उसमें एकनिष्ठ होकर व तदरूप बनकर ही जीवन का लक्ष्य प्राप्त होता है। उसके साक्षात्कार से ही जीवन के सभी दुःखों की निवृति व आवागमन से छूटकर मनुष्य की आत्मा एक परान्तकाल तक मोक्ष वा मुक्ति में चला जाता हैं। मुक्ति में रहते हुए वह ईश्वर के आनन्द का भोग करते हुए अनेकानेक दिव्य शक्तियों को प्राप्त कर ब्रह्माण्ड में स्वेच्छापूर्वक विचरता और मुक्त जीवात्माओं से सम्पर्क कर आनन्द को भोक्ता है। इसी लक्ष्य को प्राप्त कराने के लिए महर्षि पतंजलि ने योगदर्शन का प्रणयन किया जिसके आठ अंग समाधि अवस्था में जीवात्मा को ईश्वर का साक्षात्कार कराकर मृत्योपरान्त मोक्ष आनन्द का अनुभव व उपलब्धि कराते हैं।
योग के आठ अंग यम, नियम, आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा, ध्यान और समाधि हैं। यम व नियम से जीवात्मा को शुद्ध व पवित्र बनाने तथा आत्मा में विहित अविद्या वा दुष्प्रवृत्तियों सहित उसके असद्-संस्कारों को यम-नियमों के पांच-पांच अंगों अंहिसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य, अपरिग्रह, शौच, सन्तोष, तप, स्वाध्याय और ईश्वर प्रणिधान से दूर किया जाता है। आसन और प्राणायाम से शरीर को स्वस्थ, बलवान और निरोग बनाया जाता है और प्राणायाम से मन को एकाग्र व ईश्वर चिन्तन में लगाया जाता है। अष्टांग योग में पांचवे स्थान पर प्रत्याहार है। प्रत्याहार में सभी ज्ञानेन्द्रियों को अपने विषयों से हटा कर अपने चित्त व आत्मा में समाहित करना होता है। प्राणायाम के अभ्यास और मन व आत्मा को ईश्वर चिन्तन व जप आदि में लगाने से यह स्थिति प्राप्त होती है। योग का छठा सोपान धारणा है जो देह के किसी अंग विशेष अथवा लक्ष्य विशेष में चित्त को बांध देने व टिका देने को कहते है। धारणा के सिद्ध होने पर ईश्वर का ध्यान करना सुगम हो जाता है। ध्यान मन को सांसारिक व इन्द्रियों के विषयों के चिन्तन से पूर्णतया मुक्त व रोक देने को कहते है। जब मन में विषयों का चिन्तन रुक जायेगा तो आत्मा ईश्वर के चिन्तन-मनन, स्तुति-प्रार्थना व जप आदि में लग कर ईश्वर से जुड़ कर उससे एकाकार होकर समाधि अवस्था में ईश्वर साक्षात्कार को प्राप्त होते हैं। समाधि अवस्था वह अवस्था है कि जब योगी ईश्वर को समर्पित हो जाता है तथा उसे अपनी किसी इन्द्रिय व उसके विषयों का किंचित भी ज्ञान नहीं रहता। वह ईश्वर के ध्यान में निमग्न रहकर उसके आनन्द का अनुभव करता है। ईश्वर विषयक कोई शंका व जिज्ञासा इस अवस्था में शेष नहीं रहती और वह पूर्णतया निभ्र्रान्त ज्ञान को प्राप्त होता है। समाधि अवस्था को प्राप्त कर ईश्वर साक्षात्कार करना ही मनुष्य जीवन का परमोत्तम लक्ष्य व उद्देश्य है। इसको प्राप्त कर लेने पर संसार में कुछ भी प्राप्त करना शेष नहीं रहता। इस स्थिति को प्राप्त मनुष्य जीवनमुक्त कहा जाता है जो ईश्वर का साक्षात्कर होने पर मोक्ष का अधिकारी हो जाता है और कालान्तर में मृत्यु होने पर वह आत्मा वा साधक मुक्त हो जाता है। समाधि व मोक्ष में जीवात्मा ईश्वर के सान्निध्य से पूर्ण सुख का भोग करता है।
मर्यादा पुरुषोत्तम रामचन्द्र जी, योगेश्वर श्री कृष्ण जी और स्वामी दयानन्द जी के जीवन को देखने पर ज्ञात होता है कि यह महान् आत्मायें ईश्वर भक्त होने सहित वैदिक जीवन व्यतीत करती थीं। ईश्रोपासना वैदिक जीवन का प्रमुख कर्तव्य है। इसी से ईश्वर से प्रीति होकर अन्त में ईश्वर का साक्षात्कार होता है। ऋषि दयानन्द जी ने सन्ध्या सहित पंचमहायज्ञों का विधान व विधि देकर संसार के लोगों पर महान् उपकार किया है जिसका पालन कर सभी मनुष्य मोक्ष मार्ग के पथिक बनकर मोक्षगामी हो सकते हैं। योगी मनुष्य के लिए अहिंसा अनिवार्य है परन्तु वह श्री राम, श्री कृष्ण व दयानन्द जी के जीवन के अनुरूप अहिंसा ही होनी चाहिये जिसमें धार्मिक लोगों की रक्षा एवं आधार्मिक लोगों का विरोध एवं उनके प्रति यथायोग्य व्यवहार ही उचित होता है। सत्य का मण्डन और असत्य का खण्डन भी योगी के लिए आवश्यक होता है। जो मनुष्य असत्य का खण्डन करने के स्थान पर अपनी लोकैषणा व अन्य अवगुणों के लिए दुष्टों व दुर्दान्तों के प्रति भी अहिंसा का पोषण करता है वह योगी व सच्चा मनुष्य नहीं कहा जा सकता। श्री राम, श्री कृष्ण व ऋषि दयानन्द इन महापुरुषों का जीवन ही आदर्श जीवन था जिनका पूरा पूरा अनुकरण योगी को करना चाहिये। योगी के लिए योग दर्शन सहित वेद, उपनिषद, दर्शन व वेदानुकूल मनुस्मृति आदि ग्रन्थों का अध्ययन व उसके अनुरूप व्यवहार भी आवश्यक है। हमें महाभारतकाल के बाद एक ही सर्वोत्तम योगी अनुभव होता है और वह केवल महर्षि दयानन्द ही थे जिन्होंने अपने राष्ट्रीय व सामाजिक किसी कर्तव्य की उपेक्षा नहीं की। स्वार्थ उनको छू भी नहीं गया था। वह महलों व आलीशान भवनों में न रहकर खुले आसमान या कुटिया अथवा शहर के बाहर बगीचों व उद्यानों आदि में रहा करते थे। वेशभूषा में मात्र एक कौपीन व कुछ काषाय वस्त्र ही होते थे। अपरिग्रह का वह मूर्त रूप थे। वह ’भूतो न भविष्यति’ सदृश योगी, महायोगी व योगेश्वर थे। यदि हम उनके जीवन व उनके प्रत्येक कार्य को अपना आदर्श मानकर व बनाकर आचरण करें तो हमारा निश्चय ही कल्याण होगा। जो व्यक्ति वेद आदि ग्रन्थ का अध्ययन किसी कारण न कर सकें, वह सत्यार्थप्रकाश, ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका, संस्कारविघि, आर्याभिविनय, पंचमहायज्ञविधि आदि ग्रन्थों को पढ़कर भी सिद्ध योगी बन सकते हैं। योगी बनने की इच्छा करने वाले व्यक्ति के लिए ऋषि दयानन्द के जीवनचरित को पढ़कर उसके अनुरुप जीवनयापन व आचरण करना भी ‘योगः कर्मसु कौशलम्’ के अनुसार जीवन में उन्नति प्रदान करने वाला होगा, यह निश्चित है। इति शम्।
-मनमोहन कुमार आर्य