जिस समय रामचंद्र जी को युवराज बनाने का संकल्प उनके पिता दशरथ ने लिया, उस समय भरत अपने ननिहाल में थे।
कई लोगों ने इस बात पर शंका व्यक्त की है कि जिस समय भरत ननिहाल में थे ,उसी समय राजा ने रामचंद्र जी को युवराज बनाने का संकल्प क्यों लिया? क्या राजा दशरथ को इस बात का डर सता रहा था कि यदि भरत की उपस्थिति में रामचंद्र जी को युवराज घोषित किया गया तो भरत विद्रोह कर सकते हैं या उन्हें अपनी रानी कैकेयी पर विश्वास नहीं था, जिसे उन्होंने दो वचन मांगने का वरदान दिया हुआ था ? भरत के चरित्र पर यदि विचार किया जाए तो कोई भी यह नहीं कह सकता कि यदि भरत की उपस्थिति में राम का राजतिलक हो रहा होता तो वह विद्रोह करते ? हां, रानी अवश्य कोई वितंडा खड़ा कर सकती थी। जिसके साथ उसका पितृपक्ष भी खड़ा हो सकता था । बहुत संभव है कि राजा दशरथ इस बात को लेकर पहले से ही आशंकित रहे हों कि रानी कैकेई राम और भरत के बीच घृणा की दीवार खड़ी कर सकती है । इसलिए राजा ने राम को युवराज बनाने के महत्वपूर्ण निर्णय की सूचना तक भी भरत के ननिहाल पक्ष को नहीं दी और ना ही इस शुभ अवसर पर भरत और शत्रुघ्न को आमंत्रित किया। आश्चर्य की बात यह है कि उस समय रामचंद्र जी ने भी यह नहीं कहा कि यदि उन्हें युवराज बनाया जा रहा है तो उनके दोनों भाई अर्थात भरत और शत्रुघ्न भी इस अवसर पर उपस्थित होने चाहिए।
भरत गए ननिहाल को, ले शत्रुघ्न साथ।
भरत महात्मा वीर थे, और गुणों की खान।।
राजा दशरथ ने अपने पुत्र राम के विषय में स्वयं ही निर्णय नहीं ले लिया था। उन्होंने जनमत को भी जानने का प्रयास किया था। उस समय लोगों की सामान्य इच्छा रामचंद्र जी को ही राजा का उत्तराधिकारी बनाने की थी। इस इच्छा का सम्मान करते हुए दशरथ ने रामचंद्र जी को अपना उत्तराधिकारी घोषित करने का निर्णय लिया।
पिता का संकल्प था , राम बनें युवराज।
शुभ गुण धारी राम हैं , जनता के सरताज।।
राजा के इस निर्णय से जनता में प्रसन्नता की लहर दौड़ गई। ऋषि मंडल ने भी राजा के इस निर्णय का स्वागत किया। ऋषियों ने अब से पूर्व रामचंद्र जी के पराक्रम को देख लिया था। उन्हें इस बात का निश्चय हो गया था कि समकालीन परिस्थितियों में जिस प्रकार आतंकवादी अनाचारी लोगों का वर्चस्व बढ़ता जा रहा है, उसका विनाश करने के लिए रामचंद्र जी ही उपयुक्त हैं।
ऋषिगण सहमत हो गए, राजा का मत नेक।
सभी सभासद कह रहे, इसमें मीन ना मेष।।
दिव्य गुणों में राम हैं , इंद्र जी के समान।
महा धनुर्धर राम जी, सत्यवादी भगवान।।
नक्षत्र पुष्य में राम को, बनना था युवराज।
पलटी मारी काल ने, बिगड़ गया सब काज।।
रामचंद्र जी को युवराज घोषित करने की सारी तैयारियां पूर्ण हो चुकी थीं। परंतु नियति कुछ और करने जा रही थी। तभी मंथरा नाम की दासी ने कैकेई को राजा द्वारा दिए गए वचनों की याद दिलाई । उसने रानी से कहा कि आप राजा द्वारा दिए गए वचनों से राजा को बांधकर एक वरदान के रूप में अपने पुत्र भरत के लिए राज्य मांग लें और दूसरे से राम को 14 वर्ष का वनवास मांग लें । रानी प्रारंभ में तो मंथरा की बातों को सुनकर उस पर मारे क्रोध के टूट पड़ी, पर उस उल्टा दासी ने जब अनेक प्रकार के तर्क कुतर्क देने आरंभ किये तो रानी अपनी बात से फिसल गई और उसने मंथरा के अनुसार कार्य करने पर सहमति प्रदान कर दी। फलस्वरुप :-
कैकेयी ने हठ मार ली, हुए दशरथ मजबूर।
मंथरा कुलटा बन गई, किया पुत्र को दूर।।
डॉ राकेश कुमार आर्य