आत्मा शरीर में कहां रहती है? भाग ___11
जीव अर्थात आत्मा जब पंचभूत और सूक्ष्म शरीर को प्राप्त करता है उस समय की जन्म लेने की स्थिति और मृत्यु के समय समस्त इंद्रियों के द्वारा जीव की विदाई की स्थिति पर दसवीं किस्त में चर्चा हो चुकी है।
इससे आगे बृहदारण्यक उपनिषद का अध्ययन करते हैं। जिसके पृष्ठ संख्या 1170 पर निम्न प्रकार उल्लेख मिलता है।
“जब मनुष्य अंत समय में निर्बलता से मूर्छित सा हो जाता है तब आत्मा की चेतनामय शक्ति जो समस्त बाहर और भीतर इंद्रियों में फैली भी रहती है उन्हें सिकोड़ती हुई हृदय में पहुंचती है। जहां वह उसकी समस्त शक्ति इकट्ठी हो जाती है जो शक्तियों के सिकोड़ लेने का इंद्रियों पर क्या प्रभाव पड़ता है?इसका वर्णन आगे किया जाएगा।
जब आंख से वह चेतनायुक्त शक्ति इस उपनिषद में ‘चाक्षुष पुरुष ‘(चक्षु अर्थात आंख में रहने वाला पुरुष यानी कि जीवात्मा)कहा गया है, निकल जाती है तब आंखें ज्योति रहित हो जाती है। और मनुष्य किसी को देखने अथवा पहचान के अयोग्य हो जाता है”
पृष्ठ संख्या 1118, 1119 पर निम्न उल्लेख मिलता है।
“उस प्रसिद्ध आत्मा के हृदय का अग्रभाग चमकने लगता है। यह आत्मा इस चमक के साथ निकल जाता है। आंख से या सर के द्वारा या शरीर में अन्य अवयवों से उसके निकलते ही प्राण उसके पीछे निकलता है ।प्राण के निकलते ही समस्त इंद्रियां पीछे-पीछे चल देती हैं। वह जीव ज्ञानवान होता है ।और सविज्ञान या ज्ञान सहित शरीर से निकलता है ।ज्ञान, कर्म और पूर्व जन्म की प्रज्ञा( वासना, स्मृति ,संस्कार आदि )उसके साथ जाते हैं,।”
“जब वह चेतनमय शक्ति आंख, नाक ,जुबान, वाणी ,श्रोत्र, मन, और त्वचा आदि से निकलकर आत्मा में समाविष्ट हो जाती है तो ऐसे मरने वाले व्यक्ति के पास बैठे हुए लोग कहते हैं कि अब यह नहीं देखता ,नहीं सुनता इत्यादि। इस प्रकार इन समस्त शक्तियों को लेकर वह जीव हृदय में पहुंचता है। और जब वह हृदय को छोड़ना चाहता है तो आत्मा की ज्योति से उस हृदय का अग्रभाग प्रकाशित होता है। तब हृदय से भी उस ज्योति चेतन की प्रकाश में शक्ति को लेकर उसके साथ हृदय से निकल जाता है। हृदय से निकलकर यह जीव शरीर के किस भाग में से निकला करता है, इस संबंध में कहते हैं कि वह आंख, मूर्धा अथवा शरीर के अन्य भागों कान, नाक और मुंह आदि से निकला करता है। इस प्रकार शरीर से निकलने वाले जीव के साथ प्राण और समस्त इंद्रियां भी निकल जाया करती है ।शरीर से इस प्रकार निकलता हुआ जीव सज्ञान होता है, अर्थात उसे जानकारी रहती है कि वह इस प्रकार शरीर छोड़ रहा है। इस प्रकार निकलने वाले जीव के साथ उसका उपार्जित ज्ञान, उसके किए हुए कर्म और पिछले जन्मों के संस्कार वासना ,स्मृति आदि जाया करती हैं।”
पृष्ठ संख्या 1120 पर एक बहुत ही महत्वपूर्ण विषय आ रहा है कृपया पढ़ें।
“एक शरीर को छोड़कर नए गर्भ में जीव कब पहुंच करता है इस जटिल प्रश्न का उत्तर यहां दिया गया है। जैसे एक कीट जोंक जब एक तिनके से दूसरे तिनके के ऊपर जाने लगती है तो वह पहले तिनके के अंत में पहुंचकर दूसरे तिनके के एक सिरे पर अपने शरीर के अग्रभाग को पहुंचाती है और उसे दृढ़ता से पकड़कर तब बाकी शरीर को पहले तिनके से हटाकर दूसरे तिनके पर पहुंच जाती है। इसी प्रकार यह जीव पहले शरीर को छोड़ने से पहले जान लेता है की उसे किस जगह जाकर गर्भ की स्थापना में सहायक होना है ।तब उस शरीर को छोड़कर तत्काल दूसरी जगह दूसरे शरीर में पहुंच जाता है ।इसमें कुछ समय तो अवश्य लगता है परंतु वह इतना कम होता है कि मनुष्यों के बनाए समय नापने के पैमानों सेकंड, मिनट आदि से उसकी नाप तो नहीं की जा सकती”
उपनिषद के इस भाग को पढ़ने के बाद यह स्पष्ट हुआ कि इतनी सी देर लगती है एक शरीर से दूसरे शरीर में जाने के लिए जीवात्मा को।
पृष्ठ संख्या 1123 पर निबंध प्रकार उल्लेख आता है।
“स्वभाव से जीव अल्पज्ञ है। कुछ ज्ञानी कुछ अज्ञानी।उसके अच्छे और बुरे दोनों पहलू होते हैं।
क्रमश:
अग्रिम किस्त में।
देवेंद्र सिंह आर्य एडवोकेट,
ग्रेटर नोएडा ।
चलभाष ,
9811838317
782 7681439