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बिखरे मोती

देव दयानन्द क्रान्तिवीर था, गुलामी की रात में प्रकाशवीर था।

महर्षि देव दयानन्द की बहुमुखी प्रतिभा के संदर्भ में कविता:-

देव दयानन्द क्रान्तिवीर था,
गुलामी की रात में प्रकाशवीर था।
भारत मां आज़ाद हो,
प्रति पल अधीर था।
ढोंग और पाखण्ड पर,
पैनी शमशीर था।

देव दयानन्द *क्रान्तिवीर था …

वो इन्सानी चोले में,
रहवर-ए-जमीर था।
वो ब्रहमज्ञानी, तत्ववेत्ता,
तपस्वी और गम्भीर था।

देव दयानन्द क्रान्तिवीर था..

वह युग दृष्टा और अनुमन्ता था, और हृदय से पामीर था,
वह धर्म का विश्लेषक,
और सत्य का अन्वेषक,
ज्ञान और चरित्र में,
गंगा जैसा नीर था।

देव दयानन्द क्रान्तिवीर धा..

सुयश की सुगन्ध में,
वो मलयाचल की समीर था।
संकल्प से सिद्धी की,
फौलादी प्राचीर था।

देव दयानन्द क्रान्तिवीर था..

दया का धाम था,
करुणा का सागर था, .
वह वीतरागी फकीर था,
भारत मां के ताज में,
वो हीरा बेनज़ीर था।
देव द‌यानन्द क्रान्तिवीर… गुलामी की रात में….

तीन शब्द भक्ति के संदर्भ में अति महत्त्वपूर्ण हैं, इन पर चिन्तन करो…

जानो, अच्छी बात है,
वैसा – वैसा जीना,
और भी अच्छी बात है,
फिर वैसा ही हो जाना।
सबसे अच्छी बात है,

अर्थात्- पूर्णता को प्राप्त हो जाना निर्विचार हो जाना, निद्वन्द् हो जाना, निर्बी हो जाना, अकाम हो जाना, प्रभु से तादात्म्य हो जाना।

जीवन जीने का रहस्य क्या है:-

स्वामी शरणानन्द रचित इन निम्नलिखित पंक्तियों पर विचार करें –

जग की सेवा, खोज अपनी,
प्रीत उनसे कीजिए।
जिन्दगी का राज है,
ये जानकर जी लीजिए।

भावार्थ :- यह स्थूल शरीर प्रकृति अर्थात् संसार के पंचभूतों से मिलकर बना है, इसलिए स्थूल शरीर से संसार की सेवा करो, सूक्ष्म शरीर अर्थात् मन, बुद्धि, चित्त अहंकार को सदैव पवित्र रखो, आत्मतत्त्व की खोज करो, उसे जानो, पहचानों क्योंकि तुम शरीर नहीं अपितु अविनाशी अजर-अमर पवित्र आत्मा हो। प्रीति करनी है, तो परमपिता परमात्मा से करो। वहीं शाश्वत सत्य है जबकि संसार की वस्तुएँ तो क्षणिक हैं,आज हैं कल समाप्त हो जायेंगी। संसार में परमपिता परमात्मा सार्वभौमिक, सर्वाधार और सर्वकालिक है। वास्तव में जीवन जीने का यही रहस्य है।

विशेष ‘ शेर ‘ – आध्यात्मिक व्यक्ति की पहचान शौहरत और दौलत के ढेरों से नहीं अपितु दिव्य गुणों से करो: –

किताबों से ज्यादा पढ़ों आदमी को,
दिल का है कोमल निरख सादगी को।
न शौहरत न दौलत के ढेरों को देखो,
निहारो रूहानी तुम ज़िन्दगी को॥2687॥

        *' दोहा '* 

मनुष्य का जीवनादर्श क्या हो : –

जीवन का एक लक्ष्य है,
दुरितो से रहो दूर।
आत्मगुण विकसित करों,
मन होवै अक्रूर॥2687॥

तत्वार्थ :- मानव जीवन का जीवनादर्श के संदर्भ में महर्षि दयानन्द ने कहा था के मनुष्य का यह लक्ष्य होना चाहिए के वह व्यसनों, बुरी आदतो से बुरे विचारों से, सर्वदा दूर रहे वह मन का स्वामी बनकर रहे, मन का गुलाम नहीं।
आत्मा के जो दिव्यगुण है, वह परमपिता परमात्मा के दिव्यगुणों से तादात्म्य रखते है उन्हें जितना हो प्रतिपल जीवन में विकसित करते रहों और अपने मन को सब प्राणियों के प्रति उदार रखो कूटिलता और क्रूरता से भी सर्वदा दूर रखों।

‘ शेर ‘ शराब के संदर्भ में –

अंगूर में निहा थी,
पानी की चार बूँदे।
जबसे वो खिंच गई,
तलवार बन गई॥2688॥

शिक्षा शेरनी का दूध है,
जो भी पीयेगा,
वहीं दहाड़ेगा।
वह वर्तमान को ही नहीं,
भविष्य को भी सवारेगा॥2689॥
क्रमशः

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