- भारत के जिन राजाओं ने भारतीय संस्कृति को विश्व संस्कृति बनाए रखने के दृष्टिकोण से उसकी रक्षा को अपने जीवन का उद्देश्य समझा, उन महान् राजाओं में गुर्जर सम्राट मिहिरभोज का नाम सदा ही सम्मान के साथ लिया जाता रहेगा। यह हमारे देश का सौभाग्य ही था कि सम्राट मिहिरभोज जैसा शासक उसे उस समय मिला जब विदेशी मुस्लिम आक्रांता इस देश को और इस देश की संस्कृति को मिटाकर यहाँ पर अपनी संस्कृति को थोप देना चाहते थे। उन विदेशी आक्रमणकारियों की नीतियों में, उनकी सोच में, उनके आचरण में और उनके व्यवहार में सर्वत्र सांप्रदायिकता झलकती थी। ये आक्रमणकारी किसी भी अन्य धर्मावलंबी के प्रति सहिष्णुता का व्यवहार न करने के लिए जाने जाते थे।
स्पष्ट है कि ऐसी राज्य व्यवस्था के अंतर्गत भारत की सर्व समावेशी संस्कृति का विनाश होना निश्चित था। इसका अभिप्राय यह भी है कि यदि मुस्लिम आक्रांताओं की उस संस्कृति को इस देश में अपना लिया जाता या इस देश की राजनीति मुस्लिम राजनीतिक संस्कृति को अपना लेती तो हिंदुत्व यहाँ से कब का मिट गया होता ? सम्राट मिहिरभोज जैसे शासक विदेशी आक्रमणकारियों के सामने सीना तानकर खड़े हो गए। जिसका परिणाम यह हुआ कि उनके जीते जी मुस्लिम आक्रांता इस देश में अपनी मनोकामना को कभी पूर्ण नहीं कर पाए, अर्थात् इस देश पर अपना शासन स्थापित करने में सर्वथा असफल रहे। सम्म्राट मिहिरभोज ने इस देश के विशाल भू-भाग पर उस समय लगभग 49 वर्ष तक शासन किया। उनके शासन की सबसे बड़ी विशेषता यह रही कि उन्होंने पश्चिमी भारत में अर्थात् जहाँ आज का अफगानिस्तान है, उस पर अपनी एक ऐसी सुरक्षा दीवार खड़ी की जिसे लाँधकर कोई विदेशी आक्रमणकारी भारत में प्रवेश न कर सके। इनकी महान् देशभक्ति को हमारे धूर्त इतिहासकारों ने यह पुरस्कार दिया कि उनका नाम भारत के इतिहास से लगभग मिटाकर रख दिया। जिस महान् शासक के बारे में विदेशी विद्वानों या इतिहास लेखकों तक ने मुक्त कंठ से प्रशंसा की है और उनकी कीर्ति के गीत गाए हैं, उनके साथ अपने ही देश के इतिहासकारों के द्वारा किया गया यह व्यवहार सचमुच निंदनीय है। जबकि गुर्जर सम्राट मिहिरभोज ने आज के अफगानिस्तान की अपने जीवन काल में बहुत बड़ी सेवा की थी। उनके कारण तत्कालीन अफगानिस्तान विदेशी अरब आक्रमणकारियों से अपने धर्म और अपनी संस्कृति को बचाने में पूर्णतः सफल हुआ था।
भारतीय इतिहास का यह एक दुर्भाग्यपूर्ण तथ्य है कि यहाँ पर देशभक्ति को ‘देश निकाला’ देने की प्रवृत्ति पाई जाती है। यही कारण है कि हमारी इतिहास की वर्तमान पुस्तकों में इस महान् शासक मिहिरभोज के विषय में बहुत अधिक कुछ नहीं पढ़ा जा सकता।
मिहिरभोज ने 836 ईस्वीं से 885 ईस्वीं तक 49 वर्ष तक शासन किया। इनके साम्राज्य को उस समय गुर्जर देश के नाम से जाना जाता था। मिहिरभोज के साम्राज्य का विस्तार आज के मुलतान से पश्चिम बंगाल में गुर्जरपुर तक और कश्मीर से कर्नाटक तक माना जाता है। इतने विशाल साम्राज्य की रक्षा बाहुबल और बौद्धिक बल दोनों से ही संभव हुई थी। सम्राट मिहिरभोज जहाँ बाहुबली थे, वहीं बौद्धिक बल भी रखते थे। यही कारण था कि वह जहाँ अपने शत्रुओं को भयाक्रांत करने वाले माने जाते हैं, वहीं वह अपनी न्यायप्रियता के लिए भी जाने जाते हैं, अर्थात् उनकी शत्रुसंतापक की छवि जहाँ उन्हें बाहुबली सिद्ध करती है, वहीं उनकी न्यायप्रियता उन्हें बौद्धिक संपदा से संपन्न धर्मरक्षक सम्राट के रूप में भी भली प्रकार स्थापित करती है।
म्लेच्छों से की पृथ्वी की रक्षा
प्रत्येक काल में प्रत्येक शासक के लिए कोई न कोई चुनौती खड़ी रहती है। जो शासक अपनी समकालीन चुनौतियों से मुँह फेर कर निकलता है, या बचकर चलने में ही अपना भला देखता है, वह कभी इतिहास नायक नहीं बन पाता। इसके विपरीत जो शासक अपने समकालीन समाज में खड़ी चुनौतियों का समाधान करने के लिए कमर कस लेता है, वही समय का ‘भागीरथ’ कहलाता है। इतिहास उन्हीं की वंदना करता है जो इतिहास के लिए विशेष कार्य करते हैं और चुनौतियों से खेलने का साहस रखते हैं। सम्राट मिहिरभोज ऐसी ही प्रतिभा के धनी थे जो चुनौतियों से बचकर नहीं अपितु चुनौतियों को स्वीकार कर उनसे खेलने का साहस रखते थे।
गुर्जर सम्राट मिहिरभोज के लिए सबसे बड़ी चुनौती उस समय देश की संस्कृति और धर्म की रक्षा करने की थी। यही कारण रहा कि उन्होंने इस चुनौती को अपने लिए स्वीकार किया और देश को म्लेच्छों से सुरक्षित करने का बीड़ा उठा लिया। वैसे भी सम्राट मिहिरभोज की धमनियों में उस नागभट्ट प्रथम जैसे महान् शासक का रक्त प्रवाहित हो रहा था, जिसने अपने समय में हिंदू संघ की स्थापना कर म्लेच्छों को भारत भूमि से दूर रखने का सराहनीय कार्य किया था। यजुर्वेद में हम अपने वैदिक राष्ट्रगान में ईश्वर से यही प्रार्थना करते हैं कि हमारे देश के क्षत्रिय अरिदल विनाशकारी होने चाहिए। अरिदल यदि हमारी सीमाओं पर उत्पात मचा रहा हो या हमारी एकता और अखंडता को तार-तार करते हुए हमारे देश के भीतरी भागों तक में घुस आया हो और ऐसे समय में हमारे क्षत्रिय सोते रहें या शासक वर्ग प्रमाद का प्रदर्शन करे तो ऐसे शासकों के या क्षत्रियों के होने का कोई औचित्य नहीं। सम्म्राट मिहिरभोज हमारे वैदिक राष्ट्रगान की अपेक्षा पर खरे उतरते थे। तभी तो वह अरिदल विनाशकारी होना ही अपने लिए श्रेयस्कर समझते थे।
गुर्जर सम्राट मिहिरभोज का सिक्का गुर्जर देश की मुद्रा था। उस सिक्के को गुर्जर सम्राट मिहिरभोज ने 836 ईस्वीं में कन्नौज को गुर्जर देश की राजधानी बनाने पर चलाया था।
पुराणों के अनुसार गुर्जर सम्राट मिहिरभोज का एक नाम आदि वराह भी है। पौराणिक मान्यता के अनुसार उन्हें आदि वराह इसलिए कहा जाता है कि जिस प्रकार वाराह भगवान ने पृथ्वी की रक्षा की थी और हिरण्याक्षा का वध किया था। ठीक उसी प्रकार मिहिरभोज ने म्लेच्छों को मारकर अपनी मातृभूमि की रक्षा की। हमारे प्राचीन वैदिक वांग्मय में ऐसे ही शासकों की प्रार्थना ईश्वर से की जाती है कि वह शत्रुसंतापक हों और शत्रु का मान मर्दन करने वाले हों। भारतीय वैदिक धर्म की क्षत्रियोचित परंपरा पर प्रकाश डालते हुए भानु प्रताप शुक्ला लिखते हैं-" कुछ लोग और विशेषकर छद्म सेकुलरिस्ट इस पर प्रश्न करेंगे या कर सकते हैं कि यदि हिंदू लोक जीवन और हिंदुत्व इतना सर्वव्यापक, इतना उदार और इतना सर्व समावेशक है तो बीच-बीच में दूसरे मतों के साथ उसके टकराव और संघर्ष क्यों होते रहते हैं? यह प्रश्न अनुभवजन्य है, तो इसका उत्तर भी अनुभवजन्य ही होगा। यदि कोई किसी संत, ऋषि, आचार्य के आश्रम पर आक्रमण करके उसका यज्ञ ध्वंस करने का प्रयास करे तो वह ऋषि या आचार्य क्या करे? यदि कोई शांति और मानवता की प्रयोगशाला को तोड़ने लगे तो उसकी रक्षा की जाए कि नहीं? यदि कोई किसी नारी का शीलहरण करता हो, लोक मर्यादा तोड़ रहा हो, शुचिता को नष्ट और पवित्रता को भ्रष्ट कर रहा हो, लूट मार कर रहा हो तो उसे रोका-टोका जाए कि नहीं? यदि नहीं तो अमानुषी प्रवृतियाँ मनुष्य जीवन को नष्ट कर देती हैं या कर देंगी तो क्या होता था क्या होगा ? यही है सुरासुर संग्राम और संघर्ष का मूल कारण।" बात स्पष्ट है कि संस्कृति की रक्षा करना प्रत्येक क्षत्रिय और प्रत्येक शासक का प्रथम कार्य है, यही भारत का राजधर्म है।
अरब यात्रियों ने की सम्राट मिहिरभोज की प्रशंसा
अपने राजधर्म में निष्णात और क्षत्रियोचित् गुणों से संपन्न सम्राट मिहिरभोज न केवल भारतीयों के लिए आदरणीय और पूजनीय हैं, अपितु उनके चारित्रिक गुणों का वर्णन करते हुए अरब यात्रियों ने भी उनकी मुक्त कंठ से प्रशंसा की है और उनका यशोगान करते हुए उनकी कीर्ति के गीत गाए हैं। अरब यात्री सुलेमान ने अपनी पुस्तक ‘ सिलसिलीउत तुआरीख’ 851 ईस्वीं में लिखी थी। इस समय वह भारत भ्रमण पर था। यही वह काल था जब हमारे इस महान् सम्राट मिहिरभोज का शासन अपने स्वर्णिम यौवन पर था। सम्राट मिहिरभोज की शासन व्यवस्था के सुचारूपन और उत्तमता ने इस विदेशी यात्री को हृदय से प्रभावित किया था। वह इस बात से अत्यधिक प्रभावित था कि सम्राट मिहिरभोज के पास एक विशाल सेना थी, जो अपने देश के धर्म और संस्कृति के विनाश करने वाले विदेशी आक्रमणकारियों के लिए रखी गई थी। इसीलिए इस विदेशी यात्री सुलेमान ने सम्राट मिहिरभोज के बारे में लिखा था कि सम्राट मिहिरभोज के पास जितनी सेना है, उतनी सेना किसी अन्य राजा के पास नहीं है।
सम्राट मिहिरभोज भारत की पश्चिमी सीमा से आने वाले विदेशी इस्लामिक आक्रांताओं के परम शत्रु थे। वह दिन रात इन विदेशी आक्रांताओं के विनाश की योजनाओं में लगे रहते थे। वह नहीं चाहते थे कि उनके पूर्ववर्ती नागभट्ट प्रथम के द्वारा किए गए उस प्रयास को उनके रहते ग्रहण लग जाए, जिसके अंतर्गत उन्होंने बप्पा रावल जैसे महान् वीर शासकों के साथ मिलकर हिंदू संघ बनाकर इन विदेशी आक्रमणकारियों को भगाने का बीड़ा उठाया था।
यही कारण था कि सुलेमान जैसे विदेशी मुस्लिम यात्री सोखक ने उनके बारे में यह लिखा कि भारत में गुर्जर सम्राट मिहिरभोज से बड़ा इस्लाम का कोई शत्रु नहीं था। सुलेमान के यात्रा वृत्तांत से ही हमें यह भी जानकारी मिलती है कि मिहिरभोज के पास ऊँटों, हाथियों और सुड़सवारों की सर्वश्रेष्ठ सेना थी। सुलेमान सम्राट मिहिरभोज के शासन की सुदृढ़ आर्थिक व्यवस्था के बारे में बताते हुए लिखता है कि उनके राज्य में व्यापार सोना व चाँदी के सिक्कों से होता है। ये भी कहा जाता है कि उसके राज्य में सोने और चाँदी की खानें भी हैं।
जब इस्लामिक आक्रांता अपने देश से चलकर दूसरे देशों पर अधिकार करने के लिए अपने डाकू दलों को सजा रहे थे, तब समकालीन समाज की सारी मान मर्यादाएँ उनके द्वारा तोड़ दी गई थीं, 'जियो और जीने दो' का भारत के महात्मा बुद्ध का नारा उनके द्वारा कुचल दिया गया था और सर्वधर्म समभाव की भारतीय नीति पर उनके द्वारा पानी फेर दिया गया था। इसी प्रकार 'सर्वे भवंतु सुखिनः सर्वे संतु निरामया' के उदात्त भाव को उन्होंने सिरे से नकार दिया था, जबकि 'वसुधैव कुटुंबकम' की पवित्र भावना का उन्होंने उपहास उड़ाना आरंभ कर दिया था। इस प्रकार जब सारे मानवीय मूल्य इस्लामिक आक्रांताओं के पैरों तले रौंदे जा रहे थे, तब यदि कहीं पर भी मानवता अपने आपको सुरक्षित मान रही थी तो वह सम्राट मिहिरभोज का गुर्जर देश ही था, जहाँ मानवता और मानव समाज स्वयं को सुरक्षित अनुभव करता था।
इसके विषय में भी हमें सुलेमान के माध्यम से ही जानकारी मिलती है कि गुर्जर देश भारतवर्ष का सबसे सुरक्षित क्षेत्र था। इसमें डाकू और चोरों का डर भी नहीं था। इस प्रकार के विवरण से पता चलता है कि उस समय के अफगानिस्तान का वैदिक समाज भी सम्राट मिहिरभोज के रहते हुए अपने आपको सुरक्षित और संरक्षित अनुभव करता था। वास्तव में यही धर्म का राज होता है कि जब शासक के रहते प्रजा अपने आपको पूर्णतया सुरक्षित अनुभव करे। जब राजा और प्रजा में उसके अपने संप्रदाय के लोग ये दोनों मिलकर किसी भी विपरीत संप्रदाय को समाप्त करने, षडयंत्र रचने लगें या उनके अधिकारों का शोषण मिलकर करने लगे और उनकी चीख-पुकार पर दोनों खिलखिला कर हंसने लगें तब समझिए कि वहाँ पर अन्याय, अनीति, अत्याचार और अनाचार का बोलबाला है। मुस्लिम शासकों के शासन में भारत की यही स्थिति हो जानी थी। इसलिए सम्राट मिहिरभोज पहले से ही इस बात के लिए सावधान थे कि वह भारत में ऐसे किसी शासक को पैर न जमाने दें जो जनता के अधिकारों का शोषण करने वाला हो या उसके गले को दबाकर उसकी हत्या करने वाला हो। सचमुच ऐसे धर्मरक्षक और देशरक्षक शासक सम्राट मिहिरभोज का मानवता और भारत पर बहुत भारी उपकार है।
इस्लामिक इतिहासकार सुलेमान से ही हमें पता चलता हैं कि मिहिरभोज की क्रोधाग्नि के समक्ष आने वाला उनका कोई भी शत्रु टिक नहीं पाता था। मिहिरभोज के राज्य की सीमाएँ दक्षिण में राष्ट्रकूटों के राज्य से, पूर्व में बंगाल के पाल शासकों के राज्य से और पश्चिम में मुलतान के शासकों के राज्य की सीमाओं को छूती है। सम्झाट मिहिरभोज एक ऐसे साहित्य प्रेमी सम्नाट मे जिनके यहाँ साहित्य के मूर्धन्य विद्वान् सदा आदर पाते रहे। राजशेखर कषि जैसे विद्वान् उनके दरबार की शोभा बढ़ाया करते थे, जिन्होंने उनके दरबार में रहते हुए कई सुप्रसिद्ध ग्रंथों की रचना करके साहित्य की अप्रतिम सेवा की। कश्मीर के राजकवि कल्हण ने सम्राट मिहिरभोज को सम्मान देते हुए अपनी पुस्तक 'राज तरंगिणी' में गुर्जराधिराज मिहिरभोज का उल्लेख किया है।
**मिहिरभोज की थी 36 लाख की सेना*
*
915 ई. में एक अन्य मुस्लिम यात्री बगदाद से चलकर भारत आया था। जिसका नाम अल मसूदी था। अल मसूदी अपने समय का एक सुप्रसिद्ध इतिहासकार भी रहा है। इसने अपनी पुस्तक ‘मजरूलमहान्’ में मिहिरभोज के विषय में प्रकाश डालते हुए लिखा है कि उनके पास 36 लाख सैनिकों की पराक्रमी सेना थी। अल मसूदी लिखता है कि मिहिरभोज की राजशाही का चिन्ह वराह था। वराह से मुस्लिम घृणा करते हैं। अल मसूदी लिखता है कि मुस्लिम आक्रमणकारियों को मिहिरभोज का बहुत भय था। वह कहता है कि भोज की सेना में सभी वर्ग और जातियों के लोग थे। जिनका सबका सांझा लक्ष्य राष्ट्र रक्षा था। सबने मिलकर इस्लामिक आक्रांताओं से संघर्ष किया था।
अल मसूदी के इस प्रकार के उल्लेख से हमें पता चलता है कि उस समय हमारे देश के निवासियों के भीतर राष्ट्र रक्षा का प्रबल बोध था। सबका राष्ट्रीय चरित्र उन्हें मिलकर इस्लामिक आक्रांताओं से भिड़ने की शक्ति देता था। इसी शक्ति के कारण उस समय हम आज के अफगानिस्तान की रक्षा करने में सफल हुए थे।
अल मसूदी से ही हमें पता चलता है कि सम्राट मिहिरभोज के मित्रों में उस समय काबुल का ललिया शाही राजा, कश्मीर का उत्पलवंशी राजा अवंतीवर्मन तथा नेपाल का राजा राघव देव और आसाम का राजा सम्मिलित थे। सम्राट मिहिरभोज के शत्रुओं में पाल वंशी राजा देवपाल, दक्षिण का राष्ट्रकूट महाराज अमोघवर्षा और अरब के खलीफा मौतसिम वासिक मुत्वक्कल मुंतसिर मौतमिदादी थे। अरब के खलीफा ने इमरान बिन मूसा को सिंध के उस क्षेत्र का शासक नियुक्त कर दिया था जिस पर अरबों का अधिकार स्थापित हो गया था। सिंध के इस शासक इमरान बिन मूसा को पूर्णतया परास्त कर समस्त सिंध गुर्जर प्रतिहार साम्राज्य का अभिन्न अंग बना लिया गया। केवल मंसूरा और मुल्तान तो स्थान ही अरबों के पास अब शेष बचे थे। अरबों ने क्षत्रिय प्रतिहार सम्राट के तूफानी भयंकर आक्रमणों से बचने के लिए ही 'अल महफूज' नामक गुफाएँ बनाई। जिनमें वह छिपकर अपनी प्राण रक्षा करते थे। इन अलमहफूज नामक गुफाओं को ही कुछ लोगों ने 'शहरे अल महफूज' कहकर संबोधित किया है।
सम्म्राट मिहिरभोज की मान्यता थी कि अरब के आक्रमणकारियों से यदि अब संघर्ष प्रारंभ हो गया है तो यह निर्णायक स्थिति में पहुंचना चाहिए। अतः उन्होंने अरबी आक्रांताओं को खदेड़ने के लिए सघन सैन्य अभियान चलाया। जिस का परिणाम यह निकला कि इमरान बिन मूसा को ‘अल महफूज’ नामक स्थान को छोड़कर भागना पड़ा।
फलस्वरूप सम्राट मिहिरभोज के सैनिकों ने 'शहरे अल महफूज' को जीतकर गुर्जर साम्राज्य की पश्चिमी सीमा सिंध नदी से सैकड़ों मील पश्चिम तक पहुँचा दीं। कहने का अभिप्राय है कि गुर्जर सम्राट मिहिरभोज ने आज के सारे अफगानिस्तान को अपनी सीमाओं में सम्मिलित कर लिया। इस सैन्य अभियान का एक सफल परिणाम यह भी निकला कि आने वाले समय में दीर्घकाल तक अरबों के बर्बर और धर्मांध आक्रमणों से भारत सुरक्षित हो गया। सम्राट मिहिरभोज के राज्य की सीमाएँ अब काबुल से रांची, आलाम तक, हिमालय से नर्मदा नदी व आंध्र तक, काठियावाड़ से बंगाल तक सुरक्षित बीं। देश विरोधी शक्तियों के विरुद्ध आज से 1100 वर्ष पहले चलाया गया ऐसा सघन सैन्य अभियान अपने आप में अप्रतिम था। जिसकी जितनी सराहना की जाए, उतनी कम है। ऐसे वंदनीय महापुरुष इतिहास में कम ही होते हैं जो देश के लिए इतना बड़ा कार्य कर जाते हैं।
संस्कृति रक्षक गुर्जर सम्राट मिहिरभोज
जिसके हृदय में राष्ट्रप्रेम की ज्वाला धधकती हो, वह व्यक्ति सबसे पहले राष्ट्रभक्त, संस्कृति भक्त और धर्म भक्त होता है। गुर्जर सम्राट मिहिरभोज ऐसे ही महानतम और विलक्षण व्यक्तित्व के स्वामी थे। मिहिरभोज ने अपने जीवन का लक्ष्य मुस्लिमों को देश में प्रवेश न करने देना बनाया था। वह इस देश की चेतना शक्ति को बलवती करने के लिए और उसकी सुरक्षा के लिए संघर्ष कर रहे थे। उनके संघर्ष का उद्देश्य राजनीतिक उद्देश्य से अलग हटकर संस्कृति रक्षा और धर्मरक्षा अधिक था। मिहिरभोज का यह महान् कार्य ही उन्हें राष्ट्र की मूल चेतना से जोड़ता था। इसके साथ एकाकार करता था।
यदि इस गुर्जर सम्राट के मुस्लिम आक्रांताओं के साथ संघर्ष के केवल राजनीतिक कारण ही होते तो ये स्वयं और इनके वंश के अन्य शासक निरंतर 300 वर्ष तक देश की रक्षा का भार नहीं संभालते। दूसरे, तब वह भी इस देश को मुस्लिमों की तरह लूटते और अपना खजाना भरते। जबकि इन शासकों ने तो देश की पश्चिमी सीमा की ओर से होने वाले अरब आक्रमण को रोकने के लिए एक 'अलमहफूज' नामक नगर ही बसा दिया था। जहाँ से ये लोग देश की रक्षा करते रहे और विदेशी आक्रमणों को उससे परे ही रोके रहे। ऐसे स्वर्णिम इतिहास के महानायक गुर्जर सम्राट मिहिरभोज को इतिहास में स्वर्णिम अक्षरों से ही स्थान मिलना चाहिए।
इलियट एंड डावसन ने इसीलिए कहा है- 'गुर्जर प्रतिहार राजवंश के द्वारा राजनैतिक अस्थिरता समाप्त करने का जो सराहनीय प्रयास किया गया, उसका प्रभाव केवल उत्तरी भारत तक ही सीमित नहीं रहा। सीमा पार की आक्रमणकारी शक्तियाँ भी इस राजवंश के बढ़ते हुए पराक्रम एवं प्रभाव से सशंकित रहीं। (संदर्भ : हिस्ट्री ऑफ इंडिया, ऐज टोल्ड बाय इट्स ऑन हिस्ट्रीयन्स, भाग 1 पृष्ठ 131)
सुलेमान ‘तवारीखे अरब’ में लिखता है कि- ” गुर्जर सम्राट अरब लोगों का सभी अन्य राजाओं की अपेक्षा अधिक घोर शत्रु है।”
सुलेमान आगे यह भी लिखता है कि हिन्दोस्तान की सुगठित और विशालतम सेना भोज की थी-इसमें आठ लाख से ज्यादा पैदल सेना हजारों हाथी, हजारों घोड़े और हजारों रथ थे। कुछ इतिहासकारों का यह भी मानना है कि सम्राट मिहिरभोज ही भारत के ज्ञात इतिहास के ऐसे पहले शासक हैं, जिन्होंने अपनी सेना को नगद वेतन देना आरंभ किया था। इसका कारण भी यही है कि अब से पूर्व भारत के किसी भी सम्राट या शासक को अपनी सीमाओं की सुरक्षा के लिए स्थाई सेना रखने की आवश्यकता नहीं पड़ी थी। विश्व के इतिहास में यह पहली बार हो रहा था जब कुछ लोग डाकू दल का निर्माण कर परराष्ट्र की स्वतंत्रता का हनन करने के लिए चल पड़ते थे। इन डाकू दलों के विनाश के लिए विशाल सेना रखने की आवश्यकता थी। सम्राट मिहिरभोज के बारे में यह भी एक तथ्य है कि उनकी सेना 36 लाख की थी। इतनी विशाल सेना केवल इसीलिए रखी गई थी कि विदेशियों के डाकूदल ईरान व अफगानिस्तान की ओर से आगे बढ़कर हमारी संप्रभुता का विनाश न कर सकें और हमारे इस सीमावर्ती गांधार महाजनपद की सुरक्षा होती रहे।
कल्हण की राजतरंगिणी से हमें पता चलता हैं कि गुर्जर सम्राट मिहिरभोज के पराक्रम और शौर्य की यशगाथा अरब के कर्णकुहर में भय का संचार कर रही थी। प्रतिहार वंश के राजाओं के भारत में राजनीतिक एकता स्थापित करने के प्रयासों का ही परिणाम था कि पंजाब के उत्तरी भाग में स्थिति थक्कीयक नामक राजवंश के किसी शासक के अधिराज भोज ने भूमि छीनकर उसे प्रतिहारी का कार्य करने पर विवश कर दिया था।
अरबी डाकुओं को दिया मृत्युदंड
मिहिरभोज के राज्य में सर्वत्र शांति व्यवस्था स्थापित थी। जो लोग उसके राज्य में शांति व्यवस्था में किसी प्रकार का गतिरोध डालने का प्रयास करते थे, उन्हें सम्राट निसंकोच मृत्युदंड दिया करता था। शासन के नियम इतने कठोर थे कि मिहिरभोज के राज्य में कहीं भी चोरी की आशंका नहीं रहती थी। एक बार मिहिरभोज को पूर्व में उलझा देख पश्चिम भारत में उपद्रव और षड्यंत्र आरम्भ हो गये। इस अव्यवस्था का लाभ अरब डकैतों ने उठाया और वे सिंध पार पंजाब तक लूट पाट करने लगे। जब मिहिरभोज को अरब वालों के इस प्रकार के उपद्रवों की जानकारी हुई तो वह तुरंत वहाँ पहुँच गए। सम्राट ने सबसे पहले पंजाब के उत्तरी भाग पर राज कर रहे थक्कियक को पराजित किया, उसका राज्य और 2000 घोड़े छीन लिए। तत्पश्चात् गूजरावाला के विश्वासघाती सुल्तान अलखान को बंदी बनाया- उसके संरक्षण में पल रहे 3000 तुर्की और अरबी डाकुओं को बंदी बनाकर, खूंखार और हत्या के लिए अपराधी पाये गए पिशाचों को मृत्यु दण्ड दे दिया।
विदेशी उपद्रवियों के विरुद्ध इस प्रकार बरती गई कठोरता से भारत के सीमावर्ती क्षेत्रों में और विशेषकर गांधार महाजनपद में पूर्ण शांति बनी रही। यदि सम्राट मिहिरभोज इस प्रकार की कठोरता न दिखाकर शत्रुओं के प्रति उदारता का व्यवहार करते तो निश्चय ही उसका परिणाम देश की एकता और अखंडता के लिए घातक होता।
सम्राट मिहिरभोज अपने मूल स्वभाव में बहुत दयालु थे। अपने राज्य में किसी अन्य अपराधी को उन्होंने कभी मृत्युदंड नहीं दिया, परंतु दस्यु या डाकुओं के प्रति वह सदैव कठोर रहे। यही कारण था कि उन्होंने जहाँ मध्य भारत को चंबल के डकैतों से मुक्त कराया, वहीं पश्चिमी भारत के गांधार महाजनपद या अन्य सीमावर्ती क्षेत्रों को भी विदेशी डाकू दलों के आतंक से मुक्त कराया। उन्होंने गांधार को शांतिपूर्ण जीवन जीने का अवसर प्रदान किया। जिसमें विदेशी अरब आक्रांता या डाकू दल विघ्न डाल रहे थे।
इस प्रकार स्पष्ट है कि जब अफगानिस्तान के हिंदू वैदिक अतीत को खोजा जाएगा तो उसमें एक महान् राष्ट्रभक्त गुर्जर सम्राट मिहिरभोज का नाम इसलिए सम्मिलित किया जाएगा कि उसने अपने शासनकाल में इस सीमावर्ती क्षेत्र की रक्षा करते हुए वैदिक संस्कृति और वैदिक धर्म की अप्रतिम सेवा की थी।
धन्य है ऐसे महान् सपूत जिनके कारण हमारी वैदिक संस्कृति और हमारे वैदिक धर्म की रक्षा हो सकी।
क्रमशः
डॉ राकेश कुमार आर्य
( यह लेख मेरी पुस्तक “अफगानिस्तान का हिंदू वैदिक अतीत” से दिया गया है।)