नेता का अहंकार, जनता का तिरस्कार|

नेता का अहंकार, जनता का तिरस्कार|
अबकी बार चार सौ पार, फिर मोदी सरकार||

सन् २०१४ में कांग्रेस को हटाकर केंद्र की सत्ता को बड़ी प्रसन्नता और विश्वास के साथ देश की जनता जनार्दन ने भारतीय जनता पार्टी को पुराने नेताओं को महत्व न देकर सर्वमान्य नेता के रूप में गुजरात के मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी को प्रधानमंत्री की कुर्सी सौंप कर ऐसा सोचा था कि अब अच्छे दिन आने वाले हैं और हम बिना कुछ किए पैसे वाले हैं । जिस समय देश के नामजद प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी, प्रधानमंत्री पद की शपथ लेने जा रहे थे तो उन्होंने संसद की चौखट पर दण्डवत प्रणाम करके देश की जनता को संवेदनशीलता का ऐसा संदेश दिया कि यह एक धर्मात्मा नेता सदियों के बाद राष्ट्र को मिला है अतः अब पूरा देश धर्ममय हो जाएगा और रामराज्य हो जाएगा।

         रातों-रात सरकार की कुछ बदलती तस्वीर भी जनता के सामने आने लगी। गंगा, गाय, गायत्री आदि का विशेष ध्यान केंद्रित कर जनता की आंखों में रतौंधी के साथ-साथ ऐसा धर्मान्ध सुरमा डाल दिया कि मंत्रियों (नवरत्न) के साथ-साथ मीडिया, जो लोकतंत्र का चौथा स्तम्भ होता है वह भी अपने प्रथम पुरखे, प्रथम पत्रकार महर्षि नारद के सिद्धांतों को दरकिनार कर उसी भीड़ में सम्मिलित हो गया जैसे किसी गांव में चोरी करने के बाद, चोर भी गांव की भीड़ में शामिल हो जाता है। उसी भीड़ में सर्वाधिक बोलने वाला चोर भी कहता है कि चोर का पता लगाएं। स्यात् मीडिया भी आज उसी श्रेणी में आ चुका है इसी कारण आज आम आदमी कहने लगा है कि मीडिया तो अब मोदी मीडिया नहीं, गोदी मीडिया हो गया है।

        किसी समय मीडिया (मध्यस्थ) इतना शक्तिशाली हुआ करता था कि सन् अप्रैल १९५९ में पं. जवाहरलाल नेहरू देश के प्रथम प्रधानमंत्री सर्वाधिक ताकतवर और सर्वाधिक लोकप्रिय और यशस्वी नेता माने जाते थे । नागपुर (महाराष्ट्र) कॉपरेटिव फार्मिंग (सहकारी खेती) महासम्मेलन में पं. नेहरू की अध्यक्षता में कॉपरेटिव फार्मिंग को देश में लागू करने में राष्ट्र के तत्कालीन सभी महान एवं बड़े नेताओं ने भी पं. नेहरू की हाँ में हाँ मिलाकर कॉपरेटिव फार्मिंग का ध्वनिमत से अनुमोदन किया क्योंकि अकबर के दरबार की तरह सभी नवरत्न बने रहने की चाह में पं. नेहरू की गोद (मंत्रिमण्डल) से चिपके रहें। जिससे सत्ता की मलाई और चाशनी अनवरत मिलती रहे परंतु इतिहास साक्षी है, अभिलेख प्रमाणिक है कि सहकारी खेती के सभागार में एक मध्यम कद और उस समय राजनीति के क्षितिज पर एक अदने कद का नामचीन नेता उत्तर प्रदेश सरकार का मंत्री और मुख्यमंत्री का प्रतिनिधि चौ. चरण सिंह ने कॉपरेटिव फार्मिंग का जोरदार विरोध कर हैरतअंगेज कर दिया कि कॉपरेटिव फार्मिंग का फार्मूला देश के लिए अत्यंत  घातक है। इससे देश में अन्न का उत्पादन घटेगा और मेहनतकश किसान कामगारों के स्वाभिमान पर चोट होगी, साथ ही पूंजीपति वर्ग के हाथ में सत्ता चली जाएगी। धनी लोग और धनी, गरीब और गरीब हो जाएगा। करतल ध्वनि के साथ कांग्रेस के व्यक्ति ने कांग्रेस के मुख्य नेता और प्रधानमंत्री का विरोध कर नेताओं से आह्वान किया कि यह करतल ध्वनि से मेरी बात का समर्थन न करके कॉपरेटिव फार्मिंग के विरोध में हस्ताक्षर कर राष्ट्रहित में किसान और कमेरों का साथ दें। और यही हुआ कॉपरेटिव फार्मिंग पर सर्वसम्मति नहीं बन पाई एवं प्रस्ताव एक झटके में अस्वीकार कर दिया।

             उस समय के निर्भीक मीडिया ने अपनी पत्रकारिता में उल्लेख किया कि राष्ट्र के प्रमुख और कांग्रेस के युवा सम्राट नेता नेहरू को कॉपरेटिव फार्मिंग पर मुंह की खानी पड़ी। यहीं से नेहरू की आंखों में चौ. चरण सिंह खटकने लगे। तब थी निर्भीक पत्रकारिता। आज तो पत्रकार और बड़े-बड़े एंकर भी झूठी निंदा स्तुति कर नट-भाटों के समान गुणगान कर रहे हैं। आज तो मोदी की प्रथम मंत्री-परिषद में बागपत के पूर्व सांसद और केंद्रीय मंत्री डॉ. सत्यपाल सिंह को सत्य बोलने पर सत्ताच्युत भी होना पड़ा। तब महर्षि नारद का वंशज और अंशज सह-मात के खेल में क्या चिर निद्रा में था? क्या ऐसी पत्रकारिता को लोकतंत्र का चौथा स्तम्भ कहते हैं?

             सारा राष्ट्र भली भांति जानता है कि मोदी सरकार में कुछ अच्छे कार्य भी हुए हैं जिनके लिए मोदी सरकार का काम ऐतिहासिक माना जाएगा और जाना भी जाएगा। यथा सर्वप्रथम एक साधारण परिवार का आदमी भी अपने अनवरत परिश्रम से राष्ट्र का प्रमुख बना । यह प्रजातंत्र को उसी प्रकार मजबूत करता है कि जैसे महाभारत से पूर्व महाराज भरत (अरिदमन) जो दुष्यंत और शकुंतला के पुत्र थे । उन्होंने अपने सभी पुत्रों को अयोग्य मानकर अपनी सेना के साधारण सैनिक भूमन्यु को राज सिंहासन सौंप कर प्रजातंत्र की नींव रखी। ठीक उसी प्रकार भरतरूपी जनता ने भी दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र का भूमन्यु प्रधानमंत्री (नरेंद्र मोदी) बनाकर लोकतंत्र की परिपाटी को मजबूत किया ।

            मोदी के द्वारा पांच सौ वर्षों से लटका-भटका राममंदिर का कार्य बहुत ही सूझबूझ का परिणाम था। जिस योग्यता से और अपने कुशल नेतृत्व से राष्ट्र को साझा करते हुए कार्य किया, अपने आप में अनुपम है, अद्भुत है लेकिन केवल और केवल स्वयं ही कार्य का शिरोमणि बन जाना अहंकार को दर्शाता है। वास्तव में जो लोग अग्रणी भूमिका में थे उनकी उपेक्षा करना और स्वयं स्वयंभू बन जाना प्रश्नचिह्न लगाता है।

           मोदी जी की यही खूबी है कि मोदी जी नींव की ईंट के स्थान पर कंगूरे (मुडेली) की ईंट बनकर दिखाने में लोकेषणा के असाध्य रोग से आहत हैं। क्यों कि कंगूरे की ईंट की चमक दमक दिखाई देती है नींव की ईंट को कौन देखता है जबकि नींव की ईंट पर तो मुंशी प्रेमचंद का उपन्यास सार्वभौमिक है। मंदिर की नींव के नेता आदरणीय लालकृष्ण आडवाणी, बाबू कल्याण सिंह, अशोक सिंघल (विश्व हिन्दू परिषद) जैसे अनेक नेता थे परंतु नींव शिलान्यास के समय कोरोना काल का बहाना बनाकर उन्हें भी नैपथ्य में डाल दिया गया और "सदा नमस्ते वत्सले मातृभूमे" वाले सनातनियों ने बिना यज्ञ किए ही अवैदिक शिलान्यास करा कर देश की जनता को "तमसो मा ज्योतिर्गमय" के रास्ते से दिग्भ्रमित कर अन्धकूप में डाल दिया ।
          तीन तलाक के प्रकरण को सुलझा कर भी विशेष मजहब की बहिनों की गुत्थी को सुलझाकर, विशेष कानून बनाकर जो कार्य किया है वह काबिले तारीफ है। इससे न केवल उन मजहबी बहिनों को लाभ मिला है वरन् समाज में बहुसंख्यक बहिनों में भी जागरूकता आई है और सर्वसमाज को सावचेत किया है। वंचित एवं शोषित समाज की बहिन भी अब अपने आप को महफूज समझने लगी है।

           धारा ३७० को हटाकर भी एक ऐतिहासिक कार्य हुआ है, आर्यसमाज के प्रमुख नेता स्वामी श्रद्धानंद हुतात्मा ने इसी तुष्टिकरण की नीति न अपनाने के कारण अपने को आहूत किया था और उनके बाद स्वामी स्वतंत्रतानंद और नारायण स्वामी ने भी चिंगारी को प्रज्वलित कर राजनैतिक पृष्ठभूमि के नेता श्यामा प्रसाद मुखर्जी, बलराज मधोक,  प्रकाशवीर शास्त्री जैसे पृष्ठभूमि के नेताओं को ऊर्जावान किया कि एक देश में दो प्रधान, दो निशान, दो विधान नहीं होंगे। इसी शृंखला में जनसंघ के जनक श्यामा प्रसाद मुखर्जी की भी देश की बलिवेदी पर उनकी आत्मा संदिग्धता में आहूत हो गई ।

          २०१९ में देश की जनता ने मोदी को पुनः स्थापित इसलिए किया था कि देश में जिस तरह एक विशेष मजहबी लोगों के कारण जनसंख्या असंतुलित हो रही है और मध्यम पिछड़ा अभिजन वर्ग की गाढ़ी कमाई का पैसा (टैक्स) राष्ट्रोन्नयन में नहीं अपितु अस्सी करोड़ जनता (स्वयं सरकार के आंकड़े हैं) को मुफ्त अनाज, दाल, चीनी, तेल आदि देकर उन्हें मुफ्तखोर बना दिया है और कर्महीन बना दिया है जबकि सरकार का काम क्रियाशीलता और कर्मशीलता का है और इसका पूरा-पूरा लाभ एक विशेष वर्ग को मिल रहा है।

          महाराज विदुर नीति के अनुसार गरीब व्यक्ति श्रम न करें और धनवान व्यक्ति सरकार समाज को दान न करें ऐसे लोगों को पत्थर से बांधकर डुबो देना चाहिए। चाहे उज्ज्वला योजना हो, मकान वितरण हो अथवा सरकार के द्वारा ३५-४० प्रतिशत लाभ वोट बैंक के कारण दिया जा रहा है जो कभी भी उन्होंने आपको वोट नहीं दिया। और अबकी बार तो अरब से आकर भी आपके विरोध में वोट देकर बता दिया कि हम सत्रह बार हारकर भी अठारहवीं बार, अठारहवीं लोकसभा में आपको आयना भी दिखा दिया है अर्थात् महाराज पृथ्वीराज चौहान की तरह हरा दिया है, इसी कारण आपकी सरकार आज मझधार में है, आपकी नैया को पार लगाने के लिए जो मांझी आपको मिले हैं यदि हम स्वयं तैरना नहीं जानते तो मांझी कभी भी आपकी नाव को डुबो देंगे।

         आप स्वयं जानते हैं कि आप NDA के नेता हैं, संसदीय दल के नहीं। भारत के इतिहास में पहली बार ऐसा हुआ है जब संसदीय दल की बैठक न करके सभी भाजपाई मुख्यमंत्रियों की उपस्थिति में स्वयं को प्रधानमंत्री मनोनीत कर लिया और स्वयंभू बन बैठे। नहीं तो प्रधानमंत्री के चयन में पार्टी के सांसदों की भूमिका होती है, संविधान के अनुसार मुख्यमंत्री की नहीं।

        गो का सम्मान करो।  गो के कई अर्थ है। गो गाय को भी कहा गया, गो इंद्रियों को भी कहा गया है। और गो वाणी को भी कहा गया है। वाणी ही मनुष्य की सबसे बड़ी सम्पदा है। राष्ट्र प्रमुख की भाषा बड़ी मर्यादित, संयमित, पवित्र, विनम्रता, शालीनता वाली होनी चाहिए जैसा मर्यादा पुरुषोत्तम श्री रामचंद्र के बारे में दस लाख वर्ष बाद उनकी संयत वाणी के कारण आज भी याद किया जाता है। राष्ट्र प्रमुख (शासक) अपने द्वारा किसी कार्य को करने के लिए ५६ इंच का सीना होना चाहिए। क्या आप से पहले कोई ५६ इंच के सीना वाला नहीं था। इससे अपने पूर्वजों के साथ-साथ ऐसा लगता है कि आपकी सरकार में कोई ५६ इंच के सीने वाला नहीं है।

        यदि कोई आपका नवरत्न नहीं बोल रहा है तो यह मत समझो कि समझ नहीं रहा है। जब संसद में विरोध हो तो हमारी सहनशीलता ऐसी होनी चाहिए कि सशक्त से सशक्त विरोधी अथवा प्रतिपक्ष को अपने आचरण से प्रभावित करें। जब अपने आचरण में कहीं कमी होती है तभी हम अनर्गल भाषा बोलते हैं। प्रधानमंत्री होते हुए प्रधान सेवक चौकीदार कहने वाला व्यक्ति संसद में ऐसे दम्भ में बोल गया कि अरे अकेला सब पर भारी है, वह भी सीना में हाथ मारकर। इसका अर्थ हुआ कि देश की सबसे बड़ी महापंचायत का सरपंच राष्ट्र की १४० करोड़ जनता को चुनौती दे रहा है। ऐसा सीना ठोक कर लाल किले की प्राचीर से पाक, चीन, अमेरिका आदि अनेक देशों को तो भाषण दिया जा सकता है, ललकारा भी जा सकता है, वहां भी मैं नहीं अपितु भारत शब्द का संबोधन होना चाहिए जैसे "भारत का सीना ५६ इंच का है और भारत अकेला ही अपनी सामरिक, आर्थिक, राजनैतिक, सांस्कृतिक, धार्मिक, आध्यात्मिक शक्ति के कारण दुनिया पर भारी है।"

       यदि आस्तीन के राजनैतिक सांपों को दूर नहीं किया और केवल हमारे कान कर्ण प्रिय संगीतों के सुरों में सामंतों की तरह मशगूल रहे तो वह दिन दूर नहीं जब राष्ट्रकवि रामधारी सिंह दिनकर की वो पंक्ति चरितार्थ होगी "सिंहासन ख़ाली करो की जनता आती है"। इसी कारण किवदंती मशहूर है कि मूर्ख दोस्तों से अकेला अकलमंद (बुद्धिमान) दुश्मन अच्छा होता है। चारण, भाटों वाली पत्रकारिता से बचकर ही जनता जनार्दन का भला किया जा सकता है। यदि आपने अपनी तीसरी पारी में जनसंख्या नियंत्रण का कोई विशेष कानून नहीं बनाया तो सनातन की दुहाई देने वालों के हाथों से सत्ता निकल जाएगी।

जनता रानी पद्मावती की तरह जौहर कर मर जाएगी, तू देखता रहियो।
इसलिए आवश्यकता है कि प्रियजन समर्थक हो तो ठीक है, पर चापलूसों से तू डरियो ।।

यदि ध्यान दिया इन पंक्ति पर तो बनी रहेगी लोकतंत्र जागीर।
तकदीर पर ना करें भरोसा, श्रेष्ठ त्याग तप तदवीर ।।

संश्रुतेन् गमेमहि।

सादर शुभेच्छु
गजेंद्र सिंह आर्य, वैदिक प्रवक्ता जलालपुर
अनूपशहर, बुलंदशहर
+91-9783897511

Comment: