आत्मा शरीर में कहां रहती है? भाग___ 10

दसवीं किस्त।
बृहद आरण्यक उपनिषद्
आज की चर्चा बहुत सुंदर है।

पृष्ठ संख्या 1114 पर निम्न उल्लेख मिलता है।

स्वप्न से सुषुप्ति और तूर्य अवस्था में जीव के जाने की बात बतला कर उसका जागृत अवस्था में लौटना पूर्व में आठवीं, नवी किस्त में बताया जा चुका है।
“एक योनि से दूसरी योनि में जीव जब अपना शरीर त्याग कर जाता है तो दूसरी योनि में जाने के लिए जीव के साथ सूक्ष्म शरीर के अतिरिक्त उसके किए हुए कर्म भी होते हैं ।इन भारों अर्थात बोझा को लेकर वह जीव वर्तमान शरीर को छोड़कर आगे की योनि के लिए इस प्रकार चलता है जैसे भार से लदी हुई गाड़ी चूं चूं करती हुई चला करती है।”

मैंने अपनी एक पुस्तक लिखते समय यह बात लिखी है कि हम जो संसार में यह कहते रहते हैं कि क्या लेकर के आया जग में?
क्या लेकर के जाएगा?
यह सर्वथा अनुचित टिप्पणी है, अनुचित कथन है ।हम संसार में अपने कर्मों को साथ लेकर के आते हैं और जब संसार से जाते हैं तो हमारे किए हुए कर्म बोझ के रूप में हमारे साथ होते हैं ।इसलिए यह कहना कि खाली हाथ आए थे और खाली हाथ जाएंगे ,यह भी गलत है। ऐसा कहते समय भौतिक हाथों की बात हम करते हैं लेकिन यदि इस पर गंभीरता से विचार करें तो भौतिक हाथों में कुछ नहीं होता परंतु आत्मा और मन पर किए हुए कर्मों का संस्कार और भार बहुत अधिक‌ अवश्य रहता है ।इसलिए अर्थी पर लेटे हुए व्यक्ति के भौतिक हाथों में कुछ नहीं जाता है। लेकिन भौतिक शरीर से निकली हुई आत्मा और मन के साथ बहुत कुछ जाता है।
इस उपनिषद में कितना साफ लिखा है कि एक योनि से दूसरी योनि में जाते समय मृत्यु के काल में आत्मा पर इतना भार होता है कि जैसे गाड़ी सामान से लदी हुई चूं चूं करके बोझ मरती हुई चला करती है।

प्रष्ठ संख्या 1115 पर निम्न प्रकार उल्लेख मिलता है।
“जब यह पुरुष (अर्थात आत्मा) बुढ़ापे अथवा रोगों के कारण से इतना कमजोर हो जाता है कि वर्तमान शरीर को छोड़ देना उसके लिए अनिवार्य हो जाता है तो जैसे आम, गूलर और पीपल के फल पक जाने पर डाली से स्वयं छूटकर गिर जाते हैं इसी प्रकार यह पुरुष (आत्मा या जीव )दुर्बल शरीर के दुर्बल अंगों को छोड़कर कर्मफल अनुसार किसी दूसरे शरीर के ग्रहण करने के लिए चल दिया करता है।”
देखो,बस इतनी सी बात है मृत्यु।

बृहदारण्यक उपनिषद के उपरोक्त उपदेश से आत्मा अर्थात जीव या पुरुष से संबंधित विषय शरीर बदलने के दृष्टिकोण से स्पष्ट हो गया होगा। यह भी स्पष्ट हो गया कि आत्मा अमर है और केवल शरीर ही मरता है ।आत्मा केवल शरीर को ही बदलता है। क्योंकि शरीर ही प्रकृति जन्य है।
और जो प्रकृति जन्य है उसी में विकृति अर्थात परिवर्तन प्रतिपल आया करता है। इसीलिए आपको बचपन से लेकर युवावस्था, युवावस्था से लेकर वृद्धावस्था तथा मृत्यु तक के परिवर्तन अपने शरीर में स्वयं दिखाई देते रहते हैं। ये केवल प्रकृति के परिवर्तन हैं।आत्मा पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता। आत्मा असंग, अशीर्य, अमर है।
पृष्ठ संख्या 1116 पर देखें।

“प्राणी जिस शरीर में उत्पन्न होता है वह केवल उसको भोगने वाला ही नहीं होता अपितु बनाने वाला भी होता है। गर्भ की स्थापना, वृद्धि और पूर्णता प्राप्ति का कारण यही है कि आरंभ ही से जीव उसके अंदर होता है, अन्यथा जीव के बिना कोई भी गर्भ या शरीर भीतर से नहीं बढ़ सकता ।गर्भ की स्थापना और वृद्धि आदि के लिए जीव का आरंभ ही से साथ होना अनिवार्य है ।इसलिए विद्वानों का कथन है कि अपने बनाए हुए लोक अर्थात शरीर में आत्मा अर्थात पुरुष पैदा होता है।
गर्भ की स्थापना के लिए जीव के साथ सूक्ष्म शरीर का होना जहां आवश्यक है वहां दूसरी ओर स्थूल शरीर के बनाने वाले पांच भूतों का भी होना जरूरी है ।यह दोनों गर्भ के निर्माता इस उपनिषद
में ‘सर्वाणी भूतानि’ शब्दों से प्रकट किए गए। यह समस्त भूत आने वाले जीव की इस प्रकार से प्रतीक्षा करते हैं जैसे आने वाले राजा की उसके कर्मचारी बाट देखा करते हैं।”
स्पष्ट हुआ कि माता के शरीर में जिस समय गर्भ स्थापन होता है उस समय जीवात्मा पिता के वीर्य के साथ होती है। अर्थात यह भी स्पष्ट होता है कि एक शरीर से निकल जाने के पश्चात आत्मा किसी पुरुष के शरीर में जाती है। उस माता के साथ संयोग करते समय वह जीवात्मा पिता के शरीर से माता के शरीर में स्थापित होती है। साथ ही यह तथ्य भी स्पष्ट होता है कि आत्मा के अंदर अपनी इतनी शक्ति होती है कि वह स्वयं बढ़ती रहती है। अर्थात जब तक माता के गर्भ में बच्चों की नाल बनकर विकसित होकर भोजन प्राप्त करने के लिए तैयार होती है तब तक आत्मा स्वयं वृद्धि एवं विकास को प्राप्त करती रहती है।
कितना अपूर्व, कितना गूढ व गहरा,कितना अच्छा रहस्य खोल कर रख दिया हमारे मनीषियों ने।
यह भी स्पष्ट हो गया कि स्थूल
शरीर बनाने के लिए जो उपादान कारण पंचभूत होते हैं वो जीवात्मा की प्रतीक्षा करते रहते हैं ।जीवात्मा के साथ उसका 18 तत्वों का सूक्ष्म शरीर साथ रहता है।
पृष्ठ संख्या 1117 पर देखिए कितना सुंदर वर्णन आता है।
“जिस प्रकार आने वाले जीव का समस्त भूत स्वागत करते हैं उसी प्रकार जाने वाले जीव के सम्मुख स्थूल शरीरस्थ समस्त इंद्रियों विदाई देने के लिए उपस्थित होती हैं”
गर्भ में आने वाले जीव का स्वागत ही नहीं बल्कि शरीर को छोड़कर जाते समय (मृत्यु के समय) उस जीव के सामने शरीर में स्थित समस्त इंद्रियों एक साथ इकट्ठी होकर विदाई देती है।

क्रमश:

देवेंद्र सिंह आर्य एडवोकेट,
ग्रेटर नोएडा।
चलभाष
9811 838317 7827681439

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