Categories
भारतीय संस्कृति

जैन मत समीक्षा , अध्याय 11

डॉ डी के गर्ग
निवेदन : ये लेखमाला 20 भाग में है। इसके लिए सत्यार्थ प्रकाश एवं अन्य वैदिक विद्वानों के द्वारा लिखे गए लेखो की मदद ली गयी है। कृपय अपने विचार बताये और उत्साह वर्धन के लिए शेयर भी करें।
भाग-11
जैन मत में मूर्ति पूजा

सनातन धर्म का मूल वेदों पर आधारित है और वेद में कंही भी मूर्ति पूजा का विधान नहीं है उस निराकार सर्वशक्तिमान ईश्वर की मूर्ति बनाई ही नही जा सकती वह ईश्वर तो सृष्टि के कण कण में विद्यमान है। हॉे जो भी मूर्तियां है वे राम कृष्ण आदि की हैं वे महापुरुष थे और ईश्वरीय गुणों से युक्त थे इसलिए उन्हें भगवान का दर्जा दिया गया। उनकी उपासना करने का सर्वश्रेष्ठ तरीका हैं उनके सदगुणों को धारण करें न कि उनको भोग लगायें। हमारे धर्म में मूर्ति पूजा का चलन जैन धर्म के आगमन के पश्चात आया। जब जैन बौद्ध काल में लोगों का सनातन धर्म में बुराइयां आने के कारण लोग जैन बनने लगे तो फिर सनातन धर्म में भी लोगों को आकर्षित करने के लिए मूर्ति पूजा का प्रारम्भ हो गया। यही कारण है कि आर्य समाज के प्रवर्तक महर्षि दयानन्द सरस्वती ने मूर्ति पूजा का विरोध किया और सनातन धर्म के सही स्वरूप को प्रस्तुत किया। चित्र की नहीं चरित्र की पूजा पर बल देता है।कुछ लोग तर्क देते है की चित्त के एकाग्रता के लिए मूर्ति पूजा की जाती है। परन्तु किसी भी मंदिर में, चाहे वह सार्वजनिक हो या निजी, कभी भी मन को एकाग्र करने के लिए मूर्तियों का उपयोग नहीं किया जाता है और न ही उन्हें मूल रूप से इस उद्देश्य से बनाया गया था। मंदिरों में मानसिक एकाग्रता प्राप्त करना व्यर्थ है।
मूर्ति में प्रांण प्रतिष्ठा –मूर्तिकार एक निर्जीव प्रतिमा बनाता है और पुजारी उसमें प्राण फूंकता है। प्राण प्रतिष्ठा करने से निर्जीव प्रतिमा एक सजीव प्राणी बन जाती है, जो प्रसाद ग्रहण करने, प्रार्थना सुनने और क्रियाशील होने के योग्य होती है। इसके बाद मूर्तियों को भोजन कराना, उन्हें सुलाना और गर्मियों में पंखा झलना या सर्दियों में उन्हें जीवित मानकर रजाई ओढ़ाना शुरू कर देता है। पुजारी जानते हैं कि जब तक लोग मूर्तियों को निर्जीव वस्तु समझते रहेंगे, तब तक उनके ईश्वरीय स्वरूप पर उनका विश्वास कमजोर और अस्थिर बना रहेगा। इसलिए वे यह मान लेते हैं कि प्राण प्रतिष्ठा के बाद मूर्ति मूर्ति नहीं रह जाती, वह देवता या देवी बन जाती है। लेकिन यह कितना पाखंड है, यह आसानी से देखा जा सकता है कि उसमें न तो सांस है, न ही कोई हरकत, न ही क्रियाशीलता। परिवर्तन मूर्तियों में नहीं, बल्कि उपासक की आस्था में है। वह ऐसी चीजों पर विश्वास करने लगा है, जो वास्तव में हैं ही नहीं। उसने खुद को धोखा दिया है। पुजारी वास्तविक तथ्य जानते हैं, लेकिन वे उन्हें लोगों से छिपाते हैं और स्वार्थवश गलत तरीके से प्रस्तुत करते हैं। इस प्रकार पुजारी और मंदिर प्रकाश की जगह अंधकार, ज्ञान की जगह अज्ञान, अध्यात्म की जगह अंधविश्वास की अनेक शक्तियां बन जाते हैं।
दरअसल ,वास्तविक शब्द प्राण प्रतिष्ठा नहीं है , प्राणी प्रतिष्ठा है। किसी महान विभूति की मूर्ति बनाना गलत नहीं है ,लेकिन उससे मन्नत मांगना ,माला पहनाना गलत है। किसी महा पुरुष की मूर्ति बनाना ही प्राणी प्रतिष्ठा है जिसको विद्या ज्ञान के अभाव में बिगाड़कर प्राण प्रतिष्ठा कर दिया।

मूर्ति पूजा से हानिया
मूर्ति पूजा के कारण हिंदू मुसलमानों से हार गए। किसी देश का इतिहास हमें अपनी गलतियों से सीखने और भविष्य में बेहतर निर्णय लेने का अवसर देता है। मूर्तिपूजा हमारे हिंदू राजाओं द्वारा मुस्लिम आक्रमणकारियों को नुकसान पहुंचाने का एक प्रमुख कारण था, मुल्तान के मुस्लिम शासक ने मंदिर की मूर्ति के कारण हिंदू राजकुमारों का शोषण किया ,नौवीं शताब्दी के उत्तरार्ध में खलीफा के संकटों के दौरान, इस तरह के विघटन ने स्वाभाविक रूप से मुसलमानों की राजनीतिक शक्ति को कमजोर कर दिया, जो वास्तव में सदी के शुरू में ही कम होने लगी थी। अल मुतासिम (833-42 ई.) के शासनकाल में, सिंध के भारतीयों ने खुद को स्वतंत्र घोषित कर दिया, लेकिन उन्होंने मस्जिद को छोड़ दिया, जिसमें मुसलमानों को बिना किसी बाधा के अपनी प्रार्थना करने की अनुमति थी। मुल्तान के मुसलमानों ने अपनी राजनीतिक स्वतंत्रता को बनाए रखने में सफलता प्राप्त की। अल बलाधुरी ने कश्मीर और मुल्तान और काबुल के बीच के देश उसैफान के एक राजा के धर्मांतरण की निम्नलिखित कहानी बताई है। इस देश के लोग एक मूर्ति की पूजा करते थे जिसके लिए उन्होंने एक मंदिर बनाया था। राजा का बेटा बीमार पड़ गया और उसने मंदिर के पुजारियों से अपने बेटे के स्वस्थ होने के लिए मूर्ति से प्रार्थना करने को कहा। वे कुछ समय के लिए चले गए और फिर यह कहते हुए लौट आए, ”हमने प्रार्थना की है और हमारी प्रार्थना स्वीकार कर ली गई है।” लेकिन बहुत समय नहीं बीता था कि युवक की मृत्यु हो गई। तब राजा ने मंदिर पर हमला किया, मूर्ति को नष्ट कर दिया और टुकड़े-टुकड़े कर दिया, और पुजारियों को मार डाला। बाद में उसने मुसलमान व्यापारियों के एक दल को आमंत्रित किया जिन्होंने उसे ईश्वर की एकता से परिचित कराया; जिसके बाद उसने एकता में विश्वास किया और मुसलमान बन गया। (संदर्भ- पृष्ठ 223,224-अर्नोल्ड थॉमस वॉकर द्वारा इस्लाम का प्रचारसोमनाथ जैसे हिंदू मंदिरों की लूटपाट और विनाशजब महमूद गजनवी ने सोमनाथ मंदिर पर हमला किया, तो इसे जमीन पर गिरा दिया गया, इसके पुजारी और अन्य भक्तों को अपमानित किया गया और सबसे दयनीय स्थिति में पहुंचा दिया गया। सैकड़ों पुजारी और उनके ठगे हुए लोग शत्रुओं के हाथों में पड़ गए। उनके पुजारियों ने हाथ जोड़कर मुसलमानों से विनती की कि वे उनके मंदिर और मूर्ति को छोड़ दें और 30,000,000 रुपये फिरौती के रूप में देने की पेशकश की, लेकिन मुसलमानों ने जवाब दिया कि वे मूर्ति-पूजक नहीं, बल्कि मूर्ति-भंजक हैं और वे चले गए और मंदिर को तोड़ना शुरू कर दिया। जब छत गिरी, और चुंबकीय चट्टानें खिसकीं, तो मूर्ति नीचे गिर गई, जिसे तोड़ने पर पता चला कि उसमें 180,000,000 रुपये के हीरे थे। उनसे कहा गया कि वे खजाना बताएं। सजा के डर से उन्होंने सब कुछ बता दिया। इसके बाद मुसलमानों ने खजाना लूट लिया और पुजारियों को पीटा, उन्हें और उनके ठगों को गुलाम बना लिया। उन्होंने उनसे मक्का पीसने, घास काटने और मल-मूत्र ढोने को कहा, लेकिन उन्हें खाने के लिए भुने हुए अनाज के अलावा कुछ नहीं दिया। ओह! इन लोगों ने पत्थरों की पूजा करके अपना सर्वनाश क्यों किया? उन्होंने सर्वशक्तिमान ईश्वर की पूजा क्यों नहीं की ?
(संदर्भ: – स्वामी दयानंद द्वारा सत्यार्थ प्रकाश अध्याय 11) मुहम्मद बिन कासिम राजा दाहिर पर विजय मूर्तिपूजा से संबंधित अंधविश्वासों से जुड़ी थीराजा दाहिर ने बहुत बहादुरी से युद्ध लड़ा और आक्रमणकारियों के खिलाफ युद्ध जीतने वाले थे। कासिम को राजा के इस अंधविश्वास के बारे में पता चला। कासिम ने झंडा हटाने के लिए मंदिर के पुजारी को रिश्वत दी। अगली सुबह जब राजा युद्ध के मैदान में गया तो पुजारी ने मंदिर का झंडा हटा दिया। राजा और उसके सैनिकों ने सोचा कि देवी उससे नाराज हैं। इसलिए, वह और उसकी सेना ने अपना साहस खो दिया और अंततः युद्ध जीत लिया। मोहम्मद बिन कासिम ने राजा को मार डाला और किले पर कब्जा कर लिया। उसने पुजारी को भी मार डाला और कहा कि अगर वह अपने राजा को धोखा दे सकता है तो वह बाहरी व्यक्ति को क्यों नहीं दे सकता? कासिम की सेना ने मूर्ति को तोड़ दिया और मंदिर को नष्ट कर दिया, हजारों लड़कियों के साथ बलात्कार किया, हजारों हिंदुओं को गुलाम बनाकर काबुल के गुलाम बाजार में बेच दिया। कासिम ने राजा की दो बहुत सुंदर बेटियों को फारस उपहार में दे दिया अब पाठकों को यह निर्णय लेने का समय आ गया है कि क्या वे इतिहास से सबक लेना चाहते हैं या फिर मूर्तिपूजा से संबंधित अंधविश्वासों को जारी रखना चाहते हैं।

मूर्ति पूजा ने भारतीय इतिहास के गरिमा में पुरुषों और महिलाओं के उपहास और अपमान की सामग्री प्रस्तुत की है। जिन राम, सीता, कृष्ण, रुक्मणी आदि की मूर्तियां मंदिरों में पूजी जाती हैं, वे अपने युग के अद्वितीय तेजस्वी प्रख्यात पुरुष थे, परन्तु आज का मूर्ति पूजक पुजारी उन महापुरुषों और आर्य देवियों के नाम पर भीख मांगता है, दान-दक्षिणा और चढ़ावा स्वीकार करता है। यह सब विडंबना नहीं तो और क्या है ?

पूजा किसे कहते है?वह क्यों करते हैं ? इसे समझ लें तो उत्तम रहेगा।

जन सामान्य की दृष्टि में पूजा का तात्पर्य तो केवल इतना मात्र है कि किसी मूर्ति के आगे सिर झुका देना, अगरबत्ती या धूप जला देना, अधिक से अधिक शंख, घंटा आदि बजाकर आरती कर लेना देव पूजा है, परमेश्वर की पूजा है। आपने देखा होगा चलते-चलते मन्दिर दिखा तो सिर झुका दिया, हाथ जोड़ लिये सोचा-पूजा हो गयी।

विचार करे कि पूजा का तात्पर्य क्या है? –शास्त्रानुसार-‘पूजनं नाम सत्कारः’अर्थात् यथोचित व्यवहार करना, पूजा है। लोक व्यवहार में भी यही प्रचलित है। उदहारण के लिए स्त्रियों की पूजा के लिए मनु ने क्या लिखा है-
यत्र नार्यस्तु पूज्यन्ते रमन्ते तत्र देवताः ।
यत्रैतास्तु न पूज्यन्ते सर्वास्तत्राफलाः क्रियाः ।। मनुस्मृति ३/५६ ।।
जहाँ स्त्रियों की पूजा होती है वहाँ देवता निवास करते हैं और जहाँ स्त्रियों की पूजा नही होती है, उनका सम्मान नही होता है वहाँ किये गये समस्त अच्छे कर्म निष्फल हो जाते हैं।

इच्छा पूर्ति के लिए पूजा ? आजकल प्रत्येक व्यक्ति किसी न किसी कामना से पूजा करता है। अपनी-अपनी इच्छा पूर्ति के लिए पूजा की जाती है। तात्पर्य यह है कि पूजा लाभ के लिए की जाती है, स्वर्ग-सुख प्राप्ति के लिए की जाती है?
अब आप विचार करें कि क्या मन्दिर, गुरुद्धारा, मस्जिद तथा चर्च में की जानेवाली तथाकथित पूजा से क्या वायु, जल एवं अन्न की शुद्धता के लिए कोई प्रयत्न होता है, जब कि वर्त्तमान में तो यत्र-तत्र सर्वत्र दूषित पर्यावरण पर अनेक देश क्या सारा विश्व ही चिन्तित है। तो इन तथाकथित पूजाओं से हमें क्या लाभ मिल रहा है, यह चिन्तनीय है। निस्सन्देह यह पूजा नहीं, सच्ची देव पूजा नहीं है।
प्रश्न है-सच्ची देव पूजा क्या है?

देव पूजा शब्द में से पहले देव किसे कहते हैं, यह जान लेना आवश्यक है। निरुक्त (७/१५) में वर्णित -‘देवो दानाद् व दीपनाद् वा द्युस्थानों भवतीतिवा’देव शब्द के स्पष्ट एवं शास्त्रीय अर्थ को छोड़कर जन सामान्य की दृष्टि से कहे तो-देव वह हैं जो देता है, बदले में कुछ चाहता नहीं हैं।
देवता दो प्रकार के है – १ सूर्य देवता, वायु देवता, वृक्ष देवता, पृथिवी देवता आदि जड़ देव जीवन देते हैं, बदले में कुछ नहीं चाहते हैं।
इस प्रश्न के समाधान से पूर्व यह जान लेना आवश्यक है कि ये जड़ देवता हमारा क्या और कैसे कल्याण करते हैं? हमारा नित्य का अनुभव हमें यह बताता है कि बिना वायु, जल एवं अन्न के हमारा जीवन चलता नहीं है। इन तीनों की स्थिति द्युलोक, अन्तरिक्षलोक एवं पृथिवीलोक है। उक्त तीन लोक जीवन के लिए आवश्यक है। सृष्टि निर्माता परमेश्वर ने इन्हें शुद्ध, स्वस्थ एवं पवित्र निर्माण किया, किन्तु मानव ने अपनी भौतिक आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए जो कल-कारखाने, रेल, कार आदि अनेक निर्माण किये हैं। इन निर्माणों से द्यु, अन्तरिक्ष एवं पृथिवी दूषित होगी। हम दूषित जल, अन्न ग्रहण करेंगे तो अस्वस्थ होंगे।आनेवाली सन्तान लूली, लंगड़ी विक्षिप्त आदि रोगों से युक्त होगी। इन सबके कारण हम हैं, मनुष्य हैं, हमारी मात्र भौतिक उन्नति है।निश्चय से मन्दिरों में आरती करने से ये तीनों लोक,यह पर्यावरण शुद्ध न होगा। संसार की कोई पूजा पद्धति इन्हें शुद्ध,स्वस्थ करने में सक्षम नहीं है। इसीलिए हमारे दूरदर्शी महान् वैज्ञानिक ऋषियों, महर्षियों ने ‘यज्ञ’ की पावन पद्धति का आविष्कार किया था तथा यज्ञ को ही ‘देवपूजा’ कहा।

२ चेतन देवों में माता, पिता, आचार्य, अतिथि, सन्त आदि आते है तथा समस्त देवों का देव परमपिता परमेश्वर है। ये सभी अर्थात् यथोचित व्यवहार, सम्मान, सुरक्षा द्वारा अधिक कल्याण, ग्रहण करना चाहते हैं। इस प्रकार चेतन देवों की तो हम पूजा करते रहते हैं, सम्मान करते रहते हैं। किन्तु जड़ की पूजा कैसे की जाये?

थोड़ा विचार करें तो हमारे शास्त्रों ने सारे रहस्य स्पष्ट कर दिये हैं। हम अन्न जल से अपने माता-पिता का सम्मान करते हैं तो क्या अन्न को शरीर में मलने से, सिर पर डाल देने मात्र से उन्हें अन्न जीवन प्रदान करेगा, उनकी तृप्ति होगी। नहीं, उनकी तृप्ति मुख द्वारा भोजन ग्रहण करने से होती है। इस प्रकार चेतन देवों का जीवन मुख द्वारा अन्न जलादि ग्रहण करने से चलता है। अन्न सूक्ष्म होकर उदर में जाता है, फिर पेट के यन्त्र उसे और सूक्ष्म करके सारे शरीर को ऊर्जा प्रदान करते हैं।

इसीलिए महाभारत काल पर्यन्त यज्ञ का ही विधान प्राप्त होता है। किसी मूर्तिपूजा आदि का विधान नहीं मिलता क्योंकि यज्ञ के अतिरिक्त सभी पूजा पद्धतियों में वायु, जल, अन्न, वृक्षादि पर्यावरण के दोषों को दूर करने का सामर्थ्य नहीं है। जल-वायु शुद्ध होगा यज्ञ से, यथोचित व्यवहार से। अतः सच्चे अर्थों में यज्ञ ही देवपूजा है, सच्ची देवपूजा है। प्रतिदिन दैनिक यज्ञ करके इस देवपूजा को सम्पन्न करना हमारा नैतिक कर्तव्य है।

Comment:Cancel reply

Exit mobile version