अपने अस्तित्व के अहंकार और परिस्थितियों में परिवर्तन के प्रभाव से कैसे ऊपर उठें?
आ सूर्ये न रश्मयो ध्रुवासो वैश्वानरे दधिरेऽग्ना वसूनि।
या पर्वतेष्वोषधीष्वप्सु या मानुषेष्वसि तस्य राजा ।।
ऋग्वेद मन्त्र 1.59.3 (कुल मन्त्र 685)
(आ – रश्मयः तथा दधिरे से पूर्व लगाकर) (सूर्ये) सूर्य में (न) जैसे (रश्मयः – आ रश्मयः) सभी दिशाओं में फैली किरणें (ध्रुवासः) स्थाई रूप से स्थापित (वैश्वानरे) सब प्राणियों का कल्याण करने वाले परमात्मा (दधिरे – आ दधिरे) सभी दिशाओं में स्थापित (अऽग्ना) सर्वोच्च ऊर्जा, सबसे अग्रणी, परमात्मा (वसूनि) समस्त पदार्थ (या) जो (परमात्मा) (पर्वतेषु) पर्वतों में (औषधीषु) औषध्यात्मक जड़ी-बूटियों में (अप्सु) जलों में (या) जो (मानुषेषु) मनुष्यों में (असि) है (तस्य) उसका (राजा) स्वामी, संचालक।
व्याख्या:-
परमात्मा सभी जीवों और पदार्थों का स्वामी तथा संरक्षक किस प्रकार है?
जिस प्रकार सूर्य की किरणें सभी दिशाओं में स्थापित होती हैं, उसी प्रकार सर्वोच्च ऊर्जा, परमात्मा, सबसे अग्रणी और सबका कल्याण करने वाला सभी पदार्थों में सभी दिशाओं में स्थापित है – पर्वतों में, औषधि रूप जड़ी-बूटियों में, जलों में और सभी जीवों में। इस प्रकार अपनी सर्वव्यापकता के कारण वह सबका स्वामी और नियंत्रक है।
जीवन में सार्थकता: –
अपने अस्तित्व के अहंकार और परिस्थितियों में परिवर्तन के प्रभाव से कैसे ऊपर उठें?
परमात्मा की अनुभूति और चेतना रूपी गहरी और सर्वोच्च अवधारणा इस बात में निहित है कि हम सर्वोच्च ऊर्जा, परमात्मा की विद्यमानता और सर्वोच्चता सभी पदार्थों और प्राणियों में महसूस करें। यदि हम सर्वत्र चारों तरफ उसकी उपस्थिति और उसके स्वामी और संरक्षक होने के प्रति चेतन होते हैं तो यह चेतना हमें सफलता पूर्वक अपने अस्तित्व के अहंकार तथा प्रतिक्षण परिस्थितियों में होने वाले परिवर्तन के प्रभाव से ऊपर उठा देगी। हम उसकी सर्वोच्चता और बुद्धिमतता की चेतना में ही स्थापित हो जायेंगे। हमें उस सर्वोच्च शक्ति के साथ प्रेम हो जायेगा। इस प्रकार कष्टों और कठिनाईयों के प्रति हमारी चेतना समाप्त हो जायेगी।
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