पुस्तक का नाम : मेरे मानस के राम : अध्याय 2 , विश्वामित्र जी और श्री राम
प्रत्येक काल में राक्षस प्रवृत्ति के लोग साधुजनों का अपमान और तिरस्कार करते आए हैं। इसका कारण केवल एक होता है कि ऐसे राक्षस गण साधु जनों के स्वभाव से ईर्ष्या रखते हैं। लोग साधुजनों को सम्मान देते हैं और राक्षसों का तिरस्कार करते हैं, यह बात राक्षसों को कभी पसंद नहीं आती। रामचंद्र जी के काल में भी ऐसा ही हो रहा था । तब विश्वामित्र जी ने एक योजना के अंतर्गत रामचंद्र जी और लक्ष्मण जी को उनके पिता दशरथ से प्राप्त कर राक्षस प्रवृत्ति के लोगों का विनाश करने के लिए उन्हें वन में लेकर गए।
विश्वामित्र की प्रेरणा, किया ताड़का अंत।
सुखी सभी रहने लगे , साधु हो या संत ।।
दुष्ट प्रवृत्ति के लोगों का विनाश करना क्षत्रिय लोगों का धर्म होता है। प्रत्येक क्षत्रिय समाज के अन्य वर्णों के लोगों के लिए ऐसी शांतिपूर्ण स्थिति का निर्माण करता है ,जिसमें उनका आत्मिक, मानसिक विकास संभव हो सके। राजनीतिक, सामाजिक और आर्थिक न्याय किसी भी सभ्य समाज के लोगों को तभी प्राप्त हो सकता है जब क्षत्रिय वर्ण अपनी सही भूमिका का निर्वाह करेगा।
दुष्टों का वध होत है, राज पुरुष का कर्म।
नर श्रेष्ठ होता वही, जो समझे अपना धर्म।।
रामचंद्र जी ने अपने इस क्षत्रिय धर्म का भली प्रकार पालन किया। उन्होंने किसी भी आतंकवादी या दुष्ट व्यक्ति के वध करने में तनिक भी देर नहीं की। अपने क्षत्रिय धर्म के प्रति इस प्रकार के समर्पण भाव को देखकर विश्वामित्र जी भी रामचंद्र जी से अत्यधिक प्रभावित हुए। तब उन्होंने अत्यंत प्रसन्न भाव से रामचंद्र जी को अनेक प्रकार के अस्त्र दिए। ऋषि विश्वामित्र का रामचंद्र जी को इस प्रकार के अस्त्र देने का अभिप्राय केवल एक ही था कि उन्होंने यह भली प्रकार समझ लिया था कि रामचंद्र जी को भविष्य में भी ऐसी दुष्ट शक्तियों के साथ संघर्ष करना पड़ सकता है जो साधु जनों का अपमान करती हैं और उन्हें शांति से जीने नहीं देती हैं।
संतुष्ट विश्वामित्र जी , हो गए थे प्रसन्न।
अस्त्र दिए श्री राम को, संकट समझ आसन्न।।
‘मोदकी’ ‘शिखरी’ गदा , धर्मपाश सा अस्त्र।
‘कालपाश’ भी दे दिया, खुश थे विश्वामित्र ।।
‘पैनाक’ ‘नारायण’ अस्त्र भी, किए राम को दान।
‘अरुणपाश’ भी दे दिया, है रामायण प्रमाण।।
‘आग्नेयास्त्र’ दिया राम को, समझ समुचित पात्र।
‘वायव्यास्त्र’ भी दे दिया , और दिया ‘क्रौंचास्त्र’।।
धनुर्धारी श्री राम को, उत्तम दी तलवार ।
‘विद्याधर’, ‘मुसल’ दिया, अस्त्र दिया था ‘कपाल’।।
‘नंदन’, ‘सौम्य’ भी दे दिए , ‘शोषण’ से हथियार।
‘संतापन’ दिया साथ में, करे भयंकर मार।।
महाबली ‘सौमन’ दिया, ऋषि का यह उपकार।
‘तेजप्रभ’ दिया राम को, तीखा बहुत हथियार।।
‘संवर्त्त’ दिया ‘दुर्धर्ष’ भी, ‘सत्यास्त्र’ और ‘परमास्त्र’।
सोमास्त्र दिया अंत में ,दे दिया शिशिरास्त्र ।।
‘शीतेषु’ लिया हाथ में, ‘मानव’ किया स्वीकार।
कृतज्ञ राम कहने लगे, किया बड़ा उपकार ।।
इतने सारे अस्त्रों को विश्वामित्र जी ने सुपात्र को दान दिया। इसे हम दान भी नहीं कह सकते, अपितु ऋषि की पारखी बुद्धि का प्रमाण कह सकते हैं जिसके द्वारा उन्होंने यह समझ लिया था कि रामचंद्र जी को जो भी अस्त्र दिया जा रहा है, उसका वह भविष्य में सदुपयोग ही करेंगे। उन्होंने यह भी समझ लिया था कि अब वह समय भी आने वाला है जब दुष्ट शक्तियों के विनाश के लिए इन अस्त्रों का प्रयोग करने की आवश्यकता पड़ने ही वाली है। यही कारण था कि गुरु विश्वामित्र जी ने रामचंद्र जी को समझा समझा कर एक-एक अस्त्र प्रदान किया।
इधर श्री रामचंद्र जी थे, उन्होंने भी इन अस्त्रों को बड़ी श्रद्धा और भक्ति भावना के साथ ग्रहण किया। यहां पर विश्वास और श्रद्धा का अद्भुत संगम होता हुआ देखा जा सकता है। जहां गुरु जी को अपने शिष्य पर पूर्ण विश्वास है कि वह उनके द्वारा दिए जा रहे अस्त्रों का सदुपयोग ही करेगा, वहीं शिष्य में भी असीम श्रद्धा का भाव है । वह भी अपनी श्रद्धा का प्रदर्शन करते हुए गुरु जी को यह विश्वास दिलाकर इन अस्त्रों को ग्रहण कर रहा है कि जिस अपेक्षा के साथ वह इनको उसे दे रहे हैं, वह उनकी अपेक्षाओं पर खरा उतरने का हर संभव प्रयास करेगा। विश्वास और श्रद्धा के उस अद्भुत संगम के इन अनमोल क्षणों में रामचंद्र जी ने बड़ी कृतज्ञता और आभार के साथ धन्यवाद कहते हुए वह सभी अस्त्र प्राप्त कर लिए। तत्पश्चात:-
सुबाहु का किया अंत, फिर दिया भगा मारीच।
चुन – चुन कर निपटा दिए , कई दुष्ट और नीच।।
गुरु विश्वामित्र जी या उन जैसे किसी भी ऋषि महात्मा के संकेत पर रामचंद्र जी को जहां भी यह लगा कि यहां कोई ऐसा दुष्ट, नीच, पातकी व्यक्ति आतंकवादी के रूप में रहता है जो समाज के सुशिक्षित, सुसंस्कृत और सुसभ्य लोगों का अर्थात ऋषि महात्माओं का जीना कठिन कर रहा है, उसी को उन्होंने यमलोक पहुंचा दिया। गुरु विश्वामित्र जी ने रामचंद्र जी और उनके भाई लक्ष्मण को इन सब कार्यों के लिए बहुत-बहुत शुभकामनाएं और शुभाशीष प्रदान किया। उसे युग में हमें यह भी बात देखनी चाहिए कि तब राजा अपने परिवार के लोगों को भी युद्ध के लिए या आतंकवादी लोगों के विनाश के लिए भेज दिया करता था। एक संन्यासी ऋषि महात्मा को भी यह अधिकार था कि वह राजा से जाकर उसके ही पुत्रों को राक्षस लोगों के संहार के लिए मांग कर ले आए। इसी को वास्तविक लोकतंत्र कहते हैं ? तब ऐसा नहीं हो सकता था कि राजा अपने परिवार के युवाओं को तो बचा ले और किसी दूसरे के पुत्रों को आतंकवादियों का सामना करने के लिए गुरु जी के साथ भेज दे। राजा के लिए अपना पुत्र और राजा पुत्र दोनों समान थे। आज के लोकतंत्र और लोकतांत्रिक मूल्यों में विश्वास रखने वाले नेताओं के लिए रामायण के इस आदर्श को ग्रहण करने की आवश्यकता है।
विश्वामित्र कृतार्थ थे, दिया बहुत आशीष।
विनम्र लक्ष्मण – राम भी, खड़े झुकाए शीश।।
अब गुरु विश्वामित्र जी एक नए लक्ष्य की ओर चलते हैं। यहां से रामायण की इस कहानी में नया मोड़ आ जाता है। उस समय मिथिला नरेश जनक जी की सुपुत्री सीता विवाह योग्य हो चुकी थी। उनके विवाह को लेकर राजा जनक बहुत चिंतित थे। हम सबने सुन रखा है कि राजा जनक के पास उस समय एक शिव का धनुष हुआ करता था। जिसे सीता जी ने एक दिन उठाकर दूसरी ओर रख दिया था। तब राजा जनक ने यह निश्चय किया था कि वह अपनी पुत्री का विवाह उस वीर पुरुष के साथ करेंगे जो इस धनुष को तोड़ देगा। अनेक देशों के राजाओं ने आ आकर उस धनुष को तोड़ने का प्रयत्न किया था, पर सभी निष्फल हो गए थे। इससे राजा जनक की चिंता और बढ़ती जाती थी।
चले मिथिला देश को, विश्वामित्र जी साथ।
सांझ पड़े संध्या करी , किया प्रणव का जाप।।
जब विश्वामित्र जी मिथिला देश में पहुंचे तो वह गौतम जी के आश्रम में रुके। गौतम जी की धर्मपत्नी अहिल्या बहुत ही तपस्विनी महिला थीं। अहिल्या जी को पत्थर की शिला समझना गलत है। वाल्मीकि कृत रामायण में उनके बारे में यह अवश्य आता है कि जब वह अपने पति गौतम की अनुपस्थिति में इंद्र के संपर्क में आईं तो इंद्र के प्रणय निवेदन के आधार पर उन्होंने उनके साथ संभोग किया। गौतम ने जहां इंद्र को यह श्राप दिया कि तू नपुंसक हो जा, वहीं अहिल्या को भी कह दिया कि तू कठोर तप करती हुई और भूमि के ऊपर शयन करती हुई बहुत वर्षों तक यहां निवास कर। इसी श्राप का अभिप्राय जड़वत अथवा पत्थरवत हो जाना है। इसके पश्चात उस महान नारी ने कठोर तप किया। रामचंद्र जी ने वहां जाकर देखा कि अहिल्या तप के तेज से देदीप्यमान हो रही थी । सुर तथा असुर कोई भी उससे दृष्टि नहीं मिला सकता था। श्री राम और लक्ष्मण ने प्रसन्न होकर उनके पैर छुए। इसी घटना को अहिल्या का उद्धार करना कहा जाता है।
पहुंचे मिथिला देश में, गौतम जी के धाम।
उद्धार अहिल्या का किया, बड़ी तपस्विनी नार।।
अहिल्या बहुत ही तपस्विनी थी। रामचंद्र जी ने उनके तप और साधना को देखते हुए उनका विनम्रता पूर्वक अभिवादन किया।
उसे पत्थर की शिला कहना उसका अपमान करना है।
नारी तप से तप रही, किया उसे प्रणाम।
पत्थर की थी ना शिला, व्यर्थ करी बदनाम।।
डॉ राकेश कुमार आर्य
संपादक : उगता भारत