पुस्तक का नाम : मेरे मानस के राम : अध्याय 1, गुण गण सागर श्री राम
मर्यादा पुरुषोत्तम श्री राम का जन्म त्रेता काल में हुआ। विद्वानों की मान्यता है कि जिस समय दशरथनंदन श्री राम का जन्म हुआ, उस समय त्रेतायुग के एक लाख वर्ष शेष थे। इस प्रकार अबसे लगभग पौने दस लाख वर्ष पहले मर्यादा पुरुषोत्तम श्री राम का आगमन हुआ। वह सद्गुणों के भंडार थे :-
दशरथ नंदन राम जी, सद्गुण के भंडार।
जगती भर में हो रही, उनकी जय जयकार।।
राजा दशरथ की तीन रानियां थीं। सबसे बड़ी रानी का नाम कौशल्या था। मंझली रानी का नाम सुमित्रा और सबसे छोटी रानी का नाम कैकेयी था। श्री राम की माता का नाम कौशल्या था। कैकेयी के पुत्र भरत थे। जबकि सुमित्रा के लक्ष्मण और शत्रुघ्न नामक दो पुत्र थे।
जन्मे त्रेता काल में, कौशल्या के लाल।
भरत लक्ष्मण भ्रात थे ,शत्रुघ्न भी साथ।।
वशिष्ठ अपने समय के बहुत बड़े ऋषि थे । उन्हें वेदों का ज्ञान कंठस्थ था। यह सौभाग्य की बात थी कि गुरु वशिष्ठ जैसे ऋषि के द्वारा ही दशरथ के चारों पुत्रों की शिक्षा दीक्षा संपन्न हुई थी।
समय आने पर जब विश्वामित्र जी को क्षत्रियों के माध्यम से अपने यज्ञ संबंधी कार्यों को निर्विघ्न पूर्ण कराने की आवश्यकता अनुभव हुई और वह राजा दशरथ से श्री राम और लक्ष्मण को मांग कर अपने साथ ले गए तो उन्हें भी रामचंद्र जी की प्रतिभा को पहचानने में देर नहीं लगी :-
वशिष्ठ गुरु थे आपके, दिया वेद का ज्ञान।
विश्वामित्र भी आपको, गए सही पहचान।।
विश्वामित्र जी के साथ जाकर रामचंद्र जी ने ऋषि देवों के रक्षक बनकर महान कार्य संपादित किया ।
ऋषिगण करते आपका अभिनंदन बारंबार ।
देवों के रक्षक बने, किया दुष्ट संहार ।।
विश्वामित्र जी के साथ गए रामचंद्र जी और लक्ष्मण जी के जीवन का यह अद्भुत और विलक्षण संयोग ही था कि इसी समय जनकदुलारी सीता जी के स्वयंवर को लेकर राजा जनक चिंतित थे। उनके द्वारा रखी गई शर्त को रामचंद्र जी ने शिवजी के धनुष को तोड़कर पूर्ण किया। विवाह के पश्चात भी रामचंद्र जी सांसारिक विषय वासनाओं और भोग आदि से दूर रहे।
सीता जी अर्धांगिनी, बना दिव्य संयोग ।
सांसारिक विषय वासना, दूर भगाए भोग।।
रामचंद्र जी नित्य संध्या आदि करते थे। ब्रह्म का अर्थ ईश्वर भी है अर्थात ओ३म को भी ब्रह्म कहते हैं। इसके अतिरिक्त वीर्य का नाम भी ब्रह्म है अर्थात ईश्वर की उपासना के लिए ब्रह्मचर्य की रक्षा भी आवश्यक है। ब्रह्म का तीसरा अर्थ वेद है। इसका अभिप्राय हुआ कि वेद का अध्ययन भी ब्रह्म यज्ञ के लिए आवश्यक है। ये तीनों ही गुण रामचंद्र जी के भीतर विराजमान थे।
ब्रह्म यज्ञ करते रहे, ब्रह्मचर्य के साथ।
दिव्य तेज धारण किया, दोषों का किया नाश।।
रामचंद्र जी एक ही ईश्वर के उपासक थे। वेदों में प्रतिपादित परमपिता परमात्मा की अखंड सत्ता में उनका अखंड विश्वास था, इसी के प्रति वह आजीवन प्रतिबद्ध रहे :-
परमपिता परमात्मा, सत्ता वही अखंड ।
उसको ही चित धारते , छुआ नहीं पाखंड।।
जीवन में आगे बढ़ने के लिए अर्थात अभ्युदय की प्राप्ति और नि:श्रेयस की सिद्धि के लिए रामचंद्र जी ने वेद मार्ग पर चलना ही श्रेयस्कर समझा :-
वेदों के सन्मार्ग को, लिया बना निज ध्येय ।
छोड़ दिया था प्रेय को अपनाया था श्रेय।।
मर्यादा पुरुषोत्तम राम वेद मार्ग के अर्थात सत्य मार्ग के प्रचारक थे। इसी के लिए उन्होंने जीवन भर कार्य किया। वह अपने समय के एक धर्मयोद्धा थे। जिन्होंने क्षत्रिय धर्म का निर्वाह करते हुए वेद धर्म की रक्षा कर उसका प्रचार प्रसार किया।
प्रचारक थे सत्य के, यही वेद का ज्ञान ।
जो भी आड़े आ गया कर दी उसकी हान ।।
उन्होंने अपने पिता दशरथ के व्रत संकल्प को हृदय में धारण कर लिया था। उसी संकल्प के प्रति जीवन भर समर्पित रहे। पिता का अनुव्रती होना प्रत्येक पुत्र का कर्तव्य है। इस बात को रामचंद्र जी भली प्रकार जानते थे।
पिता के व्रत संकल्प को लिया हिय में धार ।
प्रसाद समझ धारण किया उनका हर उदगार।।
मर्यादा पुरुषोत्तम श्री राम भारत के लिए ही नहीं संपूर्ण भूमंडल के लिए आज भी प्रेरणा के स्रोत हैं। इसका कारण केवल एक था कि वह हर्ष और विषाद में समभाव बरतने के अभ्यासी हो चुके थे। क्षत्रिय होकर वह जितेंद्रिय थे। यह उनके व्यक्तित्व की विलक्षणता है।
हर्ष और विषाद में, रहते एक समान।
इंद्रिय वश में करी, यही खास पहचान।।
रामचंद्र जी ने जीवन भर मर्यादाओं का पालन किया। मर्यादाओं के लिए संघर्ष किया । मर्यादा तोड़ने वाले लोगों का वध करने में भी उन्हें कभी संकोच नहीं हुआ। उनके जीवन, व्यक्तित्व और कृतित्व को देखने से स्पष्ट होता है कि उन्होंने वेद की मर्यादा का पालन करने के लिए लोगों को प्रेरित किया।
मर्यादा पथ पर चले, अनुशासन को धार ।
कल्याण मार्ग के थे पथिक, गाए गीत संसार।।
राजा दशरथ की तीनों रानियों के प्रति रामचंद्र जी समान आदर का भाव रखते थे। उन्होंने अपने वनवास हो जाने के उपरांत भी कैकेयी का तिरस्कार करना उचित नहीं माना । उनके सम्मान और आदर के भाव को देखकर कैकेयी द्रवीभूत हो गई थी।
माता उनकी तीन थीं, किया सदा सम्मान ।
छोटे हीन विचार को, नहीं दिया अधिमान।।
जब रामचंद्र जी के राज्याभिषेक की तैयारी चल रही थी तो वह मारे हर्ष के फूल कर कुप्पा नहीं हुए थे । इसी प्रकार जब उन्हें वनवास होने लगा तो उसमें वह उदास नहीं हुए । दोनों स्थितियों में उन्होंने समान भाव बरता और बड़े सहज भाव से उन्होंने महलों को त्याग दिया। वन में रहकर भी उन्होंने समय का सदुपयोग किया और अपने व्यक्तित्व को और भी अधिक विशाल बनाया।
आई घड़ी वनवास की, छोड़ चले सब ठाट।
बीच वनों के जाइके ,बन गए और विराट ।।
रामचंद्र जी के भीतर विनम्रता का दिव्य गुण था। जिसके आधार पर वह अपने वनवासी काल में जितने भर भी विद्वानों, संन्यासियों, ऋषियों, मुनियों से मिले। उन सब से ज्ञान प्राप्त करते रहे। गुण ग्राहक होना उनके व्यक्तित्व की एक निराली पहचान है।
जितने भी तपसी मिले, सबसे पाया ज्ञान ।
जीवन को कुंदन किया, वन को भट्टी मान।।
प्रकृति के सान्निध्य में रामचंद्र जी ने वृक्षों, लताओं, पुष्पों से संवाद स्थापित किया। उनकी संवेदनाएं सृष्टि के कण कण के प्रति भावों से भरी हुई रहती थीं । उनके व्यक्तित्व की इसी विलक्षणता ने उन्हें कण कण में रमा हुआ ‘राम’ बना दिया। उन्हें प्रत्येक स्थिति में आनंद प्राप्त होता था।
वृक्ष, लता और पुष्प से, किया गहन संवाद।
प्रकृति की गोद में किया, प्रभु को याद।।
रामचंद्र जी के बारे में वाल्मीकि रामायण में जिस प्रकार वर्णन किया गया है उससे पता चलता है कि उनके वनवासी काल में जड़ पदार्थ भी चेतन का आनंद अनुभव करते थे। कहने का अभिप्राय है कि उनकी उपस्थिति से जड़ में भी प्राणों का संचार होता सा अनुभव होता था।
नदिया और झरने मिले, पूछा उनका हाल।
कष्ट जिसका भी सुना, मिटा दिया तत्काल।।
अपने वनवास में रामचंद्र जी ने जब देखा कि कुछ दानव प्रवृत्ति के लोग ऋषि मंडल को उत्पीड़ित करते हैं तो उन ऋषियों को ऐसे दानव लोगों के उत्पीड़न से बचाने के लिए उन्होंने अपने आप को समर्पित कर दिया। वास्तव में, उनका यह कार्य उन्हें एक सच्चा क्षत्रिय बनाता है। उन्होंने क्रांतिमय जीवन जीने में विश्वास रखा। प्रत्येक प्रकार के दलन ,दमन और शोषण का विरोध करना उन्होंने क्षत्रिय धर्म के निर्वाह के लिए आवश्यक समझा।
वनों के भ्रमण काल में, देखे दानव लोग ।
उनके दिए संताप से, दुखी हैं सज्जन लोग।।
रामचंद्र जी के लिए यह बात असहनीय पीड़ा देने वाली थी कि उस काल में ऐसे अनेक दानव थे, जिनके कारण ऋषि भूमि, पवित्र भूमि अर्थात भारत माता अनेक प्रकार के कष्ट भोग रही थी। उन कष्टों का निवारण करने की एक औषधि के रूप में, एक उपचार के रूप में ,एक उपाय के रूप में और समस्या की एक समाधान के रूप में रामचंद्र जी का आविर्भाव हुआ। यही उनका रामबाण होना था। इसी को लोगों ने उनका अवतार होना घोषित कर दिया।
ऋषियों की भूमि फंसी ,दुष्ट जनों के हाथ ।
ऋषियों को करते दु:खी, पहुंचा कर आघात ।।
रामचंद्र जी के युग में ज्ञानी, ध्यानी और तपस्वी लोगों को जिस प्रकार दुष्ट लोग आघात पहुंचा रहे थे, उनका उपचार करते हुए रामचंद्र जी ने अपने नाम को सार्थक किया।
ज्ञानी ,ध्यानी सह रहे, दुष्टों के आघात।
व्यथित हुए श्री राम जी, कहलाते रघुनाथ।।
डॉ राकेश कुमार आर्य
मुख्य संपादक, उगता भारत