लोकसभाध्यक्ष पद और ओम बिरला का चुनाव

भाजपा के सांसद ओम बिरला लोकसभाध्यक्ष चुन लिए गए हैं। लगातार दूसरी बार इस संवैधानिक पद को प्राप्त करके उन्होंने एक इतिहास रचा है। इससे पहले कांग्रेस के बलराम जाखड़ के अतिरिक्त पी0ए0 संगम और जी0एम0सी0 बालयोगी दूसरी बार इस संवैधानिक पद को प्राप्त करने में सफल हुए थे। यद्यपि पूरे 10 वर्ष तक इस पद पर बैठे रहने का सौभाग्य अभी तक केवल बलराम जाखड़ को ही प्राप्त हुआ है। ओम बिरला ने अपनी निष्पक्षता दिखाते हुए 17 वीं लोकसभा के पूरे कार्यकाल में इस पद के दायित्वों का निर्वाह किया। यद्यपि विपक्ष ने सरकारी कार्यों में अड़ंगा डालने के उद्देश्य से प्रेरित होकर उन्हें उत्तेजित करने का हरसंभव प्रयास किया। अब 18 वीं लोकसभा के अध्यक्ष पद के लिए कांग्रेस और समूचे विपक्ष ने भाजपा के ओम बिरला के लिए नई चुनौती पेश की । उसने अपना संयुक्त प्रत्याशी चुनाव मैदान में उतार दिया। परंतु संख्याबल के आधार पर एनडीए ने अपनी मजबूत एकता का प्रदर्शन किया। एनडीए के घटक दलों ने लोकसभा की परंपरा के अनुसार लोकसभाध्यक्ष का पद भाजपा को देने में सहायता करते हुए अपने संयुक्त प्रत्याशी ओम बिरला को अच्छे बहुमत से इस पद के लिए चुन लिया।
कांग्रेस ने अध्यक्ष पद के लिए भाजपा के प्रत्याशी का विरोध किया और उनके सामने के सुरेश को चुनाव मैदान में उतार दिया।
कांग्रेस ने लोकसभाध्यक्ष के संवैधानिक पद को भी विवादित बनाने का काम करते हुए संविधान और दलित के नाम पर के सुरेश को चुनाव मैदान में उतारा। कांग्रेस के नेता राहुल गांधी भाजपा की कुल सदस्य संख्या के लगभग ढाई गुना कम अपनी पार्टी की सदस्य संख्या के होने पर कुछ अधिक ही उत्साहित दिखाई दे रहे हैं। उनका व्यवहार कुछ इस प्रकार का है कि जैसे सरकार बनाने की पूरी शक्ति और पूरा जनमत उनके साथ है। वह पहली बार लोकसभा में विपक्ष के नेता के दायित्व का निर्वाह करेंगे। इससे पहले उनके पिता राजीव गांधी और मां सोनिया गांधी भी विपक्ष की नेता रह चुकी हैं। राहुल गांधी की अब तक की राजनीति के आधार पर कहा जा सकता है कि वह अपने व्यवहार से बाज नहीं आएंगे और सरकार के कार्यों में अनुचित अड़ंगा डालने का असंवैधानिक कार्य करते रहेंगे। ऐसे में उन्हें अपने पिता राजीव गांधी की शालीन राजनीति और विपक्ष के नेता के दायित्वों का निर्वाह करते हुए उनके गंभीर आचरण से शिक्षा लेनी चाहिए।
कांग्रेस जबरदस्ती के सुरेश को लोकसभा अध्यक्ष बनाने पर तुल गई। इसके पश्चात जिस प्रकार कांग्रेस के नेताओं ने के सुरेश को लोकसभा अध्यक्ष न बनाने पर भाजपा को दलित विरोधी कहा है, उसे भी उचित नहीं कहा जा सकता। विशेष रूप से तब जबकि कांग्रेस ने कुछ समय पूर्व रामनाथ कोविंद को राष्ट्रपति के चुनाव में अपना समर्थन नहीं दिया था। यद्यपि रामनाथ कोविंद भी दलित समाज से ही आते थे। क्या उसे भी कांग्रेस का दलित विरोधी आचरण नहीं कहा जा सकता ? रामनाथ कोविंद ने बड़ी शालीनता और जिम्मेदारी के भाव से अपने पदीय दायित्वों का निर्वाह किया। उन्होंने अपने आचरण और व्यवहार से कभी भी किसी भी विपक्षी दल के सांसद को आहत नहीं किया। इसके उपरांत भी कांग्रेस और उसके साथी दलों ने उनके कार्यकाल में एक बार भी उनके बजट भाषण को शांतिपूर्वक नहीं सुना। वर्तमान राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू को जब देश का राष्ट्रपति बनाया गया तो उस समय भी कांग्रेस ने उनका ओच्छा विरोध किया था। द्रौपदी मुर्मू का उपहास उड़ाने और उन पर अनुचित टिप्पणी करने से भी विपक्ष के नेता बाज नहीं आए थे। स्पष्ट है कि इन दोनों राष्ट्रपतियों का विरोध करके कांग्रेस ने अपने दलित विरोधी और आदिवासी विरोधी होने का प्रमाण दिया।
क्या ही अच्छा होता कि मान्य परंपरा के अनुसार कांग्रेस लोकसभाध्यक्ष का पद भाजपा को जाने देती। नए अध्यक्ष के साथ अपना पूर्ण सहयोगात्मक दृष्टिकोण प्रकट करती। इस प्रकार संवैधानिक परंपरा की रक्षा तो होती ही, साथ ही राहुल गांधी के बारे में यह संदेश भी जाता कि वह एक जिम्मेदार विपक्ष की भूमिका निभाने के लिए तैयार हैं । लोगों में यह संदेश भी जाता कि राहुल गांधी लोकसभा में अपनी संख्या बढ़ाने के बाद फूलकर कुप्पा नहीं हुए हैं, बल्कि वह और भी अधिक विनम्र होकर जिम्मेदारी के साथ राजनीति करने के प्रति गंभीर हुए हैं। वास्तव में यही वह स्थिति है जो राहुल गांधी और उनकी पार्टी के लिए सबसे अधिक अनुकूल हो सकती है, परन्तु दुर्भाग्य से राहुल गांधी इस स्थिति को पैदा करने के प्रति गंभीर दिखाई नहीं देते। वह विरोध के लिए विरोध करने को ही राजनीति मान बैठे हैं। उन्होंने पिछले 10 वर्ष विरोध के लिए विरोध करने की राजनीति पर काम करते हुए ही व्यतीत कर दिए हैं। राहुल गांधी यह मानकर चल रहे हैं कि बेरोजगारी और गरीबी जैसी गंभीर समस्याओं के चलते एक दिन देश के लोगों का नरेंद्र मोदी से अपने आप मोहभंग हो जाएगा और उस समय वह देश के लोगों की पहली पसंद होंगे।
अब राहुल गांधी ने लोकसभा अध्यक्ष के चुनाव के समय जिस प्रकार का आचरण किया है , उसे भी ठीक नहीं कहा जा सकता। उन्होंने जिस प्रकार लोकसभा उपाध्यक्ष का पद विपक्ष के लिए मांगा है और अपनी इस मांग के पीछे उन्होंने संवैधानिक परंपरा का हवाला दिया है, उस पर भी उन्हें कुछ सोचना चाहिए था। 14 वीं और 15वीं लोकसभा में गुलाम नबी आजाद और पवन बंसल कांग्रेस के सांसद होते हुए ही लोकसभा के उपाध्यक्ष पद पर कार्यरत रहे थे। क्या ही अच्छा होता कि कांग्रेस उस समय लोकसभा के उपाध्यक्ष के रूप में विपक्ष को इस पद पर बैठने का अवसर प्रदान करती ? ऐसे अनेक उदाहरण हैं, जब कांग्रेस ने संवैधानिक परंपराओं का उल्लंघन किया है और अब अपने गिरेबान में न झांककर कांग्रेस के नेता राहुल गांधी बात-बात पर संविधान और संवैधानिक परंपराओं की रक्षा की दुहाई देते दिखाई देते हैं। वह भूल जाते हैं कि देश के संविधान का गला घोंटने में उनकी पार्टी का विशेष योगदान रहा है। फिर भी हम चाहेंगे कि स्वस्थ परंपराओं को स्थापित करने में पक्ष विपक्ष मिलकर काम करें। ओम बिरला जी को निरंतर दूसरी बार अध्यक्ष बनने पर हार्दिक बधाई। ईश्वर से कामना है कि वह अपना लोकसभा का कार्यकाल पूर्ण करें और संवैधानिक परंपराओं को और अधिक मजबूत करने में अपना सहयोग प्रदान करें।

डॉ राकेश कुमार आर्य

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