आत्मा शरीर में कहां रहती है? भाग 7

बृहदारण्यक उपनिषद् के अनुसार।
पृष्ठ संख्या 974
लोक किसे कहते हैं। पहले इसको समझते हैं।

लोक इस जगत को और इस जगत में स्थित सूर्य तथा चंद्रमा आदि को कहते हैं।
आत्मा इस लोक में किस प्रकार से रहती है?
कौन-कौन से लोक में रहती है?
कब-कब रहती है?
“आत्मा चाहे मुक्त हो और चाहे शरीरबंधन में हो उसे कोई ना कोई लोक उसे अवश्य चाहिए।
मुक्ति की अवस्था में आत्मा ब्रह्म लोक में तथा आकाश लोक आदि में रहता है। जब बंधन या आवागमन में( शरीर में )होता है तब पृथ्वी आदि लोक में रहती है। इस प्रकार लोक भी आत्मा से पृथक नहीं हो सकते अर्थात आत्मा लोकहीन कभी नहीं हो सकता। भूत आकाश ,वायु आदि को कहते हैं इन्हीं (पृथ्वी, जल, अग्नि, आकाश ,वायु,पांच भूतों से) से स्थूल और सूक्ष्म शरीर बना करते हैं। और शरीर के बिना आत्मा जगत में कुछ नहीं कर सकता ।स्थूल शरीर तो बदलते रहते हैं ।परंतु सूक्ष्म शरीर तो मुक्ति के सिवा जगत में सदैव बना रहता है। और मुक्ति की अवधि बीतने पर फिर भी जीव को सूक्ष्म शरीर का आश्रय लेना पड़ता है। इसलिए जीव भूतहीन भी नहीं हो सकता। निष्कर्ष यह है की जीवात्मा से संबंधित यह समस्त ज्ञान, बल, लोक, देवत्व भूत आदि पदार्थ है। इन्हें जीवात्मा से भिन्न वस्तुओं में खोज करने की जरूरत नहीं। और इससे अलग खोजना ज्ञानहीन बलहीन इत्यादि कहा जाता है।”

उपरोक्त से यह स्पष्ट हो गया की जीवात्मा इस पृथ्वी लोक में ,सूर्य लोक में, चंद्रलोक में, ब्रह्म लोक में, आकाश लोक आदि में भी रहता है।

पृष्ठ संख्या 979 बहुत ही महत्वपूर्ण है , हमारे ऋषियों का चिंतन कितने कमाल का है,पढ़ें।

“पांच भूतों से बने गर्भ से उठकर शरीर के साथ जगत में आत्मा काम करता है ।और अंत समय आने अथवा आयु समाप्त होने पर स्थूल शरीर को छोड़कर फिर इन्हीं भूतों में विलीन हो जाता, अर्थात आवागमन के नियम अनुसार इन्हीं भूतों से बने नए गर्भ में चला जाता है। जहां जगत के कर्तृत्व की दृष्टि से नवीन हुआ ही समझा जाता है ।और यह कि मरे हुए की संज्ञा अर्थात (उसका पूर्व जन्म का)नाम ,रूप शेष बाकी नहीं रहता। यहां दो बातें समझ लेने योग्य है।
पहली बात कि जीवात्मा स्थूल शरीर में समाविष्ट होने पर कहीं भी दिखाई नहीं दिया करता ,परंतु शरीर के किसी भी अवयव को देखें उसमें चेतना का प्रकाश नमक की तरह मिलेगा।”
( जैसे किसी भी सब्जी में अथवा आटे में जब हम नमक डालकर के खाते हैं तो उसके प्रत्येक अंग अंग में नमक का स्वादन अनुभव होता है । दूसरे उदाहरण से समझे,जैसे चीनी मिलाने पर हलवा में उसके प्रत्येक कण-कण में मीठे होने का अनुभव होता है, ऐसे ही यह हमारे शरीर में आत्मा प्रत्येक अंग में रहती है।)
दूसरी बात समझने की यह है कि
“प्रेत्य की संज्ञा नहीं रहती, मनुष्य मरने के बाद शव रूप में रहकर प्रेत कहा जाया करता है। प्राणी में केवल आत्मा होता है और न केवल शरीर किंतु दोनों का संघात है ।इसी संघात को प्राणी कहा जाया करता है ।जब यह संघात संघात रूप में बाकी नहीं रहता अर्थात जीव और शरीर दोनों पृथक हो जाते हैं ।तब वह प्राणी तो सचमुच नष्ट हो जाता है और उसका नाम रूप बाकी नहीं रहता क्योंकि मनुष्य प्राण तो नाम ही उस संघात का था जो अब बाकी नहीं रहा।”

इसके पृष्ठ संख्या 994 पर क्या लिखा है ,पढ़ें।
“वेद मंत्र में जीव के लिए वर्णन किया गया है कि वह जैसे शरीर में जाता है उसी के प्रतिरूप हो जाता है। यदि हाथी के शरीर में है तो इसी का प्रतिरूप हो जाता है, यदि चींटी के शरीर में है तो चींटी का प्रतिरूप हो जाया करता है। उसके इस प्रतिरूप होने के कारण से उसकी सत्ता प्रकट होती है।
इंद्र नाम जीवात्मा का है।
माया प्रकृति को कहते हैं।
जीव प्रकृति के मेल से अनेक रूप वाला हो जाता है। कहीं वह मनुष्य कहलाता है, कहीं पशु ,कहीं स्थावर वृक्ष आदि।”

अतः स्पष्ट हुआ कि आत्मा जैसे शरीर में प्रविष्ट होता है उसी का प्रतिरूप बन जाया करता है। इससे यह भी स्पष्ट हुआ कि हाथी के शरीर में रहने के समय आत्मा बहुत बड़ी होती हो और चींटी के शरीर में रहते हुए आत्मा बहुत छोटी हो ।क्योंकि आत्मा में अणु परमाणु होते नहीं है ।इसलिए आत्मा में कुछ भी अलग से नहीं मिलाया जा सकता। आत्मा में से कुछ काटकर उसे छोटा नहीं किया जा सकता।

आठवीं अग्रिम किस्त बहुत ही महत्वपूर्ण आने वाली है।
जिसमें यह स्पष्ट किया जाएगा कि हृदय में कौन सी नाडी में आत्मा कहां विश्राम करती है!

देवेंद्र सिंह आर्य एडवोकेट
राष्ट्रीय अध्यक्ष पश्चिमी उत्तर प्रदेश विकास पार्टी
चलभाष
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