मेरे मानस के राम 2 ( वाल्मीकि कृत रामायण का दोहों में अनुवाद )

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श्री राम का महासंकल्प

रामचंद्र जी वनवास में जाते हैं तो वहां पर अनेक ऋषि उनके पास आकर उन्हें अपना दुख दर्द बताते हैं। वाल्मीकि जी उसे घटना का वर्णन करते हुए कहते हैं कि ‘धर्मात्मा ऋषियों का वह समूह धर्मधारियों में श्रेष्ठ श्री राम के पास जाकर बोला हे महारथी राम ! जैसे देवताओं के राजा इंद्र हैं, उसी प्रकार आप इक्ष्वाकु वंश में प्रधान और पृथ्वी के स्वामी हैं । आप जैसे महात्मा, धर्मज्ञ एवं धर्म वत्सल राजा को प्राप्त कर हम लोग याचक बनकर आपसे कुछ कहना चाहते हैं। इसके लिए आप क्षमा करेंगे।
हे तात! वह राजा महान पाप का भागी होता है जो प्रजा से आय का छठा भाग कर के रूप में ले लेता है, परंतु प्रजा का पुत्रवत पालन नहीं करता ।
हे राम! आप इधर चलिए और उन आत्मदर्शी तपस्वियों के मृत शरीरों को देखिए, जिन को राक्षसों ने भालों की नोक से छेद कर और तलवारों से काटकर मार डाला है। इस घोर वन में भयंकर राक्षसों के द्वारा तपस्वियों पर जो अत्याचार किए जा रहे हैं, अब यह कष्ट हमसे सहन नहीं होते। राम! आप शरणागत वत्सल हैं। अतः हम सब आपकी शरण में आए हैं। राक्षसों के द्वारा मारे जाने वाले हम लोगों की आप रक्षा करें।’
वे ऋषि श्री राम को बताते हैं कि यहां पर राक्षस लोग आकर ऋषि भक्षण करते हैं। राक्षसों के द्वारा मारे गए ऋषियों के कंकालों के ढेर को भी उन ऋषियों ने श्री राम को दिखाया। तब श्री राम अत्यंत द्रवित हो जाते हैं। तब श्री राम उस ऋषि मंडल से कहते हैं कि आप लोगों का मुझसे प्रार्थना करना उचित नहीं। मुझे तो आप आज्ञा दें । क्योंकि मैं तो आप लोगों का आज्ञाकारी हूं। मुझे तो आप अपने कार्य के लिए ही वन में आया हुआ समझें। मैं तपस्वियों के शत्रु राक्षसों का युद्ध क्षेत्र में वध करना चाहता हूं। हे तपोधन ऋषि लोगो ! आप मेरे और मेरे भाई लक्ष्मण के पराक्रम को देखें।’
वह संकल्प लेते हैं कि वे संपूर्ण भूमंडल से राक्षस लोगों का अंत कर देंगे। जब वहां से ऋषि लोग चले गए तो सीता जी ने उनसे कहा कि आपने ऐसा संकल्प लेकर अच्छा नहीं किया। आपके लिए यहां पहले ही कई प्रकार के खतरे हैं । फिर ऐसा संकल्प लेना किस दृष्टिकोण से उचित हो सकता है ? इस पर श्री राम ने सीता जी से कहा कि सीते ! मैं आपको छोड़ सकता हूं, लक्ष्मण को छोड़ सकता हूं, अपने राज्य को छोड़ सकता हूं, परंतु लिए गए संकल्प को नहीं छोड़ सकता। श्री राम जी ने यह संकल्प संपूर्ण धरावासियों के कल्याण के लिए लिया था।
यह इतना बड़ा संकल्प है कि इसकी बराबरी का संकल्प लेने वाला संसार में आज तक कोई नहीं हुआ। रामचंद्र जी के इस संकल्प में केवल लोक कल्याण छिपा है ।।इसके अतिरिक्त एक और भी बात छिपी है और वह है श्री रामचंद्र जी को अपने कुल का इतिहास बोध होना। रामचंद्र जी जानते थे कि संसार को व्यवस्था देने वाले उनके पूर्वज रहे हैं। जो कि चक्रवर्ती सम्राट रहकर संपूर्ण भूमंडल के लोगों को सुख और शांति के साधन उपलब्ध कराते रहे। उनके पूर्वजों ने ही लोगों को व्यवस्थित जीवन जीने के लिए सारी सुख सुविधाऐं उपलब्ध करवाई ।
जब रामचंद्र जी आए तो उस समय संसार के विभिन्न क्षेत्रों में राक्षस लोगों का आतंक फैल गया था। स्वाभाविक है कि अपने पूर्वजों की धरती पर ऐसे आतंकी लोगों को सहन करना रामचंद्र जी के लिए नितान्त असंभव था। रामचंद्र जी अपने रहते हुए ऐसे आतंकी लोगों के अस्तित्व को अपने पूर्वजों के नाम पर कलंक मानते थे। उनकी मान्यता थी कि किसी भी रघुवंशी के होते हुए प्रजाजन किसी भी प्रकार का कष्ट अनुभव नहीं कर सकते। फिर भी यदि प्रजा किसी प्रकार का कष्ट अनुभव करती है तो यह उनके लिए बहुत ही अधिक लज्जास्पद स्थिति है।
श्री राम के भीतर किसी प्रकार की संकीर्णता नहीं थी। वह संपूर्ण संसार को अपना मानते थे। संपूर्ण संसार के लोगों को अपने परिवार का एक अंग मानते थे। यदि उनके रहते परिवार के लोग दुखी हैं तो यह उनके लिए उचित नहीं था कि वह इस प्रकार की स्थिति को चुप रह कर देखें। परिवार को बचाना अर्थात संसार की सज्जन शक्ति का कल्याण करना उनके जीवन का ध्येय था।
जब कोई व्यक्ति अपने ध्येय को पहचान लेता है , अपने उद्देश्य को जान लेता है, अपने लक्ष्य की सही-सही पहचान कर लेता है, तब वह नर से नारायण हो जाता है। आखिर श्री राम ऐसे ही भगवान नहीं बन गए। उन्होंने महानता की प्राप्ति के लिए महान कार्य किये। लोग उनके दिव्य स्वरुप को आज तक स्मरण कर उनके प्रति अपनी श्रद्धा व्यक्त करते हैं तो इसके पीछे भी कोई ना कोई तो कारण होगा ?

संकल्प के साथ जीना होती है महापुरुषों की पहचान

जब जीवन में निर्णायक मोड़ आते हैं तो कई बार कठोर संकल्प लेने पड़ते हैं। साधारण व्यक्ति लिए गए संकल्प को अगले दिन भूल जाता है और किसी प्रकार से कोई विकल्प खोजने लगता है। जबकि व्रतधारी लोग संकल्प को जीवन का अंग बना लेते हैं। जिस प्रकार एक भक्त प्रतिपल अनन्य भक्ति भावना से प्रेरित होकर ईश्वर में रमण करता रहता है, उसके सानिध्य को प्राप्त कर शेष दुनिया उसके लिए नीरस हो जाती है फीकी हो जाती है, वैसे ही एक कठोर व्रतधारी संकल्पशील व्यक्ति अपने संकल्प में रमण करने लगता है। उसको खाते- पीते, सोते – जागते, उठते – बैठते, नहाते- धोते हर समय और हर स्थान पर अपना संकल्प ही दिखाई देता रहता है। उसे पता होता है कि संकल्प से नया जीवन मिलता है। संकल्प नया संसार रचता है। संकल्प ही हमें महान बनाता है। संकल्प ही हमें यश और कीर्ति दिलाता है। संकल्प जीवन को नए पंख लगाता है। उन पंखों से व्यक्ति आकाश की ऊंचाई को नाप सकता है। संकल्प और प्रतिभा का गहरा संबंध है। यदि प्रतिभा उड़ने की क्षमता रखती है तो संकल्प उसे उड़ाने का मनोबल दे सकता है। जहां प्रतिभा ही ना हो, वहां संकल्प भी कुछ नहीं कर सकता। रामचंद्र जी अपने दिव्य गुणों के कारण महाप्रतिभा संपन्न व्यक्तित्व के धनी थे।
संकल्प और भारत का प्राचीन काल से गहरा संबंध रहा है। यहां के अनेक योद्धाओं ने चक्रवर्ती सम्राट बनकर संपूर्ण भूमंडल पर भारत के भगवा धवज को फहराकर भारत की वैदिक संस्कृति का प्रचार प्रसार और विस्तार किया था। इसी प्रकार भारत के ऋषियों ने भी अनेक वैज्ञानिक अनुसंधान कर नए-नए आविष्कार किये। ज्ञान विज्ञान के क्षेत्र में संसार की अप्रतिम सेवा की। अतः कहा जा सकता है कि संकल्प में भारत रमा है और भारत में संकल्प रमा है। भारत ऋषियों का देश है। यहां के अनेक ऋषियों के अनेक संकल्प इस देश को महान बनाने में नींव की ईंट बने हैं।

श्री राम की 14 वर्ष की राष्ट्र साधना

    जिन्हें 'कुछ बड़ा करना' होता है वे छोटी बातों पर ध्यान नहीं देते। जीवन में कितने ही घाव सहने पड़ते हैं। संसार में लग रही आग से वे कई बार जलते हैं। कई बार उनके शरीर पर फफोले पड़ते हैं। पर वे उन सबकी ओर से निश्चिंतमना अपने कर्तव्य पथ पर आगे बढ़ते रहते हैं। ऐसे लोगों का अद्भुत व्यक्तित्व होता है।  वे छोटी बातों को बड़ी बना देते हैं। संसार के छोटे लोग छोटी बातों को बड़ी बनाकर लड़ाई झगड़ा कर जीवन को बर्बाद कर बैठते हैं। जबकि रामचंद्र जी जैसे लोग मर्यादा पुरुषोत्तम इसीलिए बनते हैं कि वह राज्य की प्राप्ति की छोटी लड़ाई को गौण करके आने वाले 14 वर्ष को अपनी तपस्या और साधना के लिए समर्पित कर देते हैं। 
यदि मर्यादा पुरुषोत्तम श्री राम भरत जी की बात को स्वीकार कर अयोध्या लौट आते तो बहुत संभव था कि वह कलह पूर्ण परिवेश में जाकर वहीं मिट जाते । पर उन्होंने लिए हुए निर्णय से पीछे हटना उचित नहीं माना। सोच लिया कि 14 वर्ष के काल में घर का कलह शांत हो जाएगा। मित्र संबंधी अन्य वे लोग जो कल विरोधी थे ,तब तक शांत हो जाएंगे और तब तक मैं भी अपने आप को और अधिक परिपक्व कर लूंगा । 14 वर्ष का वनवास उन्होंने साधना का काल बना लिया। फिर साधना को भी इतना ऊंचा कर दिया कि संपूर्ण भूमंडल से ही राक्षस शक्तियों का विनाश कर दिया। उनकी यह साधना लोक कल्याण के लिए की गई साधना थी। अपनी इस साधना के प्रति उन्होंने अपना पूर्ण समर्पण कर दिया था । पूर्ण समर्पण की पवित्र भावना से ही पूर्णता की प्राप्ति होती है। उच्चता और महानता की प्राप्ति होती है।

क्यों बने राम मर्यादा पुरुषोत्तम श्री राम ?

तनिक कल्पना कीजिए कि यदि श्री राम अपने भाई भरत के कहने पर वनवास से लौट आते तो क्या होता ? निश्चित रूप से तब राम श्री राम अमरत्व के उस पद को प्राप्त नहीं किए होते जो उन्होंने आज किया हुआ है । तब वह साधारण व्यक्ति की भांति मौत को प्राप्त हो जाते । तब लोग उन्हें भगवान श्री राम के नाम से नहीं जानते। उन्हें कोई मर्यादा पुरुषोत्तम राम भी नहीं कहता। वह भगवान श्री राम या मर्यादा पुरुषोत्तम श्री राम इसीलिए हैं कि उन्होंने मर्यादा को तोड़ा नहीं, संकल्प को छोड़ा नहीं। जब भरत उन्हें लेने के लिए गए तो श्री राम ने यह उचित नहीं माना कि वह घर के उस कलहपूर्ण परिवेश में फिर जाकर खड़े हो जाएं जिसमें उन्हें वनवास दिया गया था। निश्चित रूप से उस समय उनके लौटने पर फिर छोटी बातें होती। श्री राम ने अपने धैर्य और गंभीरता से छोटी बातों के सामने इतनी बड़ी लकीर खींच दी कि जब वह अयोध्या लौटे तो लोगों ने एक विजयी और संकल्पशील श्री राम का स्वागत सत्कार किया। उन्हें राम के व्यक्तित्व और कृतित्व दोनों पर गर्व हुआ। यदि श्रीराम अपने भाई के कहने पर ही लौट गए होते तो वह पराजित राम होते। क्योंकि तब वह संकल्पशील राम दिखाई नहीं देते। तब वह लिए हुए निर्णय और लिए हुए संकल्प से पीछे मुड़ गए होते। पीछे मुड़ना ही तो मौत है। निरंतर आगे बढ़ते रहना और मंजिल पर जाकर परचम लहराने का तो मजा ही कुछ और है। श्री राम ने यही तो कर दिखाया था।
अस्तित्व के विस्तार के लिए वर्तमान अस्तित्व को मिटाना पड़ता है। बीज जब तक अपने आप को मिट्टी में ना मिला दे, तब तक वह बीज विशाल वृक्ष नहीं बन सकता। श्री राम क्रांतिकारी थे। उन्होंने प्रत्येक उस चुनौती को स्वीकार किया जो उन्हें राजा रहते हुए स्वीकार कर लेनी ही चाहिए थी। उन्होंने बीज की भांति अपने वर्तमान अस्तित्व को मिटाया । जब लौटे तो विशाल वृक्ष बनकर लौटे। यही उनका विराट व्यक्तित्व है।
श्रीराम कभी भी लक्ष्य को साधने से पहले रुके नहीं। उन्होंने भारत की सनातन संस्कृति को मानने वाले लोगों को यही संदेश दिया कि लक्ष्य प्राप्त करने से पहले रुकना नहीं है। संसार में जीने के लिए और अपने अस्तित्व की रक्षा के लिए उन लोगों का अस्तित्व मिटाना पड़ता है जो दूसरों के अस्तित्व को मिटाने की ताक में लगे रहते हैं। मध्यकाल में जिन लोगों ने अपने राज्य विस्तार की लिप्सा के वशीभूत होकर दूसरे देशों की संस्कृतियों को मिटाया, लोगों के नरसंहार किये, वे लोग पापी थे। अत्याचारी थे । श्री राम को मानने वाले लोगों ने उनके सामने शस्त्र नहीं फेंके। उनके सामने शीश नहीं झुकाया। निरंतर अपना संघर्ष जारी रखा और एक दिन आया कि भारत आजाद हुआ। इसके पीछे श्री राम जी की बहुत बड़ी प्रेरणा काम कर रही थी।

राम की मर्यादा में भी है इतिहास

राम की मर्यादा में इतिहास है। राम की गंभीरता में इतिहास है। राम के व्यक्तित्व में इतिहास है। उनके कृतित्व में इतिहास है। उनके जन्म से लेकर मृत्यु पर्यंत किए गए प्रत्येक कार्य में इतिहास है, इतिहास की गंभीरता है, इतिहास की मर्यादा है, इतिहास का ऊंचापन है। इतिहास इस ऊंचाई को देखकर स्वयं नृत्य करने लगता है। उसे श्री राम जैसे व्यक्तित्व का गुणगान करने और अपने पृष्ठों पर उसे स्थान देने में आनंद की अनुभूति होती है। याद रहे स्वर्णिम इतिहास तभी बनता है जब स्वर्णिम व्यक्तित्व उसे प्राप्त होता है। जब स्वर्णिम व्यक्तित्व की दिव्य आभा और प्रतिभा उसके पृष्ठों को सजाती संवारती है , उसका श्रृंगार करती है तब इतिहास अपने लिए अपने आप मंगल गान गाता है। अपने भाग्य पर इठलाता है और जब उसे मध्यकाल में भारत पर आक्रमण करने वाले और यहां आकर बार-बार नरसंहार करने वाले पापी लोग शासक के रूप में मिलते हैं और ज़बरदस्ती उससे उनका गुणगान करवाया जाता है तब इतिहास अपने भाग्य पर अपने आप रोता है। जो लोग इतिहास को आंसू बहाने के लिए मजबूर करते हैं वे स्वयं इतिहास के कूड़ेदान की वस्तु बन जाते हैं । जो इतिहास को अपने भाग्य पर इठलाने का अवसर देते हैं, वे इतिहास के गौरव बनाकर अमरत्व को प्राप्त हो जाते हैं।

श्री राम और वानरराज सुग्रीव

श्री राम ने जब सुग्रीव से मित्रता की और देखा कि उनका मित्र सुग्रीव उस समय अपने ही बड़े भाई के अत्याचारों का शिकार बना हुआ था, तब उन्होंने अपने लिए हुए संकल्प के आधार पर अयोध्या के राजा भरत के प्रतिनिधि के रूप में बाली का वध किया। बाली ने श्री राम की उस समय कठोर भर्त्सना की। उसने रामचंद्र जी से कहा कि मैंने तुम्हारा क्या बिगाड़ा था ? यदि तुम्हें इस समय अपनी पत्नी को लेकर रावण से युद्ध करने की ही आवश्यकता पड़ रही थी तो मैं तुम्हें सुग्रीव से भी अधिक उपयोगी सहायता प्रदान करता। तुमने मुझे मारकर अच्छा नहीं किया। तुमने यह अधर्म और अनीति का कार्य किया है।

इस प्रकार की भर्त्सना को सुनकर श्री राम ने बाली को प्रति उत्तर देते हुए कहा कि ‘अरे ! धर्म, अर्थ, काम और लौकिक आचार को जाने बिना ही तुम मूर्खतावश मेरी निंदा क्यों कर रहे हो ? क्या तुम्हें पता नहीं कि वन, पर्वत और वाटिका आदि से परिपूर्ण समस्त भूमंडल इक्ष्वाकु वंशीय लोगों के अधिकार में है। इस अखिल भूमंडल में जितने पशु पक्षी और मनुष्य रहते हैं उन सब को दंड देने अथवा उन पर अनुग्रह करने का अधिकार उन्हीं को है। नीति, नम्रता, स्थिरता, सत्य और पराक्रम जिसमें विद्यमान हो, जो देशकालवित हो , वही राजा होने योग्य है। भरत में यह सभी गुण विद्यमान हैं। हम दोनों बंधु तथा अन्य अनेक राजा लोग भरत के धर्म अनुकूल आदेश से धर्म वृद्धि की कामना से इस संपूर्ण पृथ्वी पर भ्रमण कर रहे हैं। उन राज सिंह और धर्मवत्सल महाराज भरत के राज्य शासन में किस मनुष्य में समर्थ है जो धर्म विरुद्ध कोई काम कर सके ?
जो कोई सहोदरी भगिनी अथवा अपने छोटे भाई की स्त्री के साथ धर्मनिंदित कामुकता का व्यवहार करता है उसके लिए प्राण दंड ही उचित दंड बतलाया गया है। भाई भरत इस समय अखिल भूमंडल के चक्रवर्ती सम्राट हैं । उनके आदेश का पालन करते हुए ही मैंने यह कार्य किया है। सज्जनों का धर्म ऐसा सूक्ष्म है कि सहज़ता से कोई जान नहीं सकता। अतः तुम केवल जोश में भरकर मुझे दोषी नहीं ठहरा सकते। सुग्रीव मेरा मित्र है। मेरा जैसा मित्र भाव लक्ष्मण के प्रति है, वैसा ही सुग्रीव के प्रति है। स्त्री तथा राज्य प्राप्ति के प्रतिकार में वे भी मेरे कल्याण के लिए प्रतिज्ञाबद्ध हैं।
क्रमशः

डॉ राकेश कुमार आर्य

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