मेरे मानस के राम ( वाल्मीकि कृत रामायण का दोहों में अनुवाद )
लेखकीय निवेदन
श्री राम को समझने के लिए हमें वाल्मीकि कृत रामायण का अध्ययन करना चाहिए। उनका सही स्वरूप हमें वहीं से प्राप्त होगा। उन पर अभी बहुत कुछ सत्यान्वेषण करने की आवश्यकता है। जब हम वाल्मीकि कृत रामायण को पढ़ते हैं तो पता चलता है कि मर्यादा पुरुषोत्तम श्री राम हमारे सनातन के साकार स्वरूप हैं। उनका व्यक्तित्व और कृतित्व हमारे धर्म का प्रतीक है । उनकी मर्यादा भारत की परंपराओं को स्पष्ट करती है। उनका धर्म के प्रति समर्पण हमें जीवन को उत्कृष्टता में ढालकर जीने के लिए प्रेरित करता है । उनका माता-पिता के प्रति समर्पण और भाइयों के प्रति असीम अनुराग उन्हें एक अनुकरणीय व्यक्तित्व प्रदान करता है। वह ब्रह्मचर्य की साकार मूर्ति हैं। नैतिकता उनके रोम रोम में रची बसी है। प्रेम उनके हृदय की अमूल्य धरोहर है। वीरता का रस उनमें से प्रतिपल झरता हुआ दिखाई देता है। श्री राम का पराक्रम भारत का सनातन मूल्य है। उनका पराक्रम हमें बताता है कि जब समाज विरोधी और राष्ट्र विरोधी शक्तियां सज्जन शक्ति का जीना हराम करती हों, तब राजा को अपने पराक्रम का परिचय देना चाहिए। राजा को पराक्रम धारण करके ही जीना चाहिए। उसका पराक्रम लोक कल्याण के लिए हो।
गुणों की खान थे श्री राम
राम का व्यक्तित्व उनकी मातृ पितृ भक्ति है। देश भक्ति है। समाज और संसार के प्रति अपने धर्म को समझने की उनकी मौलिक प्रकृति है। उनका राष्ट्र प्रेम है। उनका भगवत प्रेम है । उनकी वेद भक्ति है।
आदि कवि वाल्मीकि ने जब कविता के रूप में कुछ लिखना चाहा तो उन्होंने नारद जी से पूछा कि ‘भगवन ! इस समय संसार में गुणवान, शूरवीर धर्मज्ञ, कर्तव्यपरायण ,सत्यवादी और दृढ़ प्रतिज्ञ कौन है ?
उनकी ऐसी जिज्ञासा को सुनकर तब नारद जी ने कहा कि ‘हे मुने! आपने जिन बहुत से तथा दुर्लभ गुणों का वर्णन किया है उनसे युक्त मनुष्य के संबंध में यदि आप सुनना चाहते हैं तो मैं आपको बताता हूं कि इक्ष्वाकु वंश में उत्पन्न राम नाम से लोगों में विख्यात श्री रामचंद्र नियत स्वभाव ,अति बलवान, तेजस्वी, धैर्यवान और जितेंद्रिय हैं । वह बुद्धिमान , नीतिज्ञ, मधुरभाषी, श्रीमान, शत्रुनाशक, विशाल कंधों वाले, गोल तथा मोटी भुजाओं वाले, शंकर के समान गर्दन वाले, बड़ी ठोड़ी वाले और बड़े भारी धनुष को धारण करने वाले हैं ।
वे प्रजापति के समान प्रजा रक्षक, धर्मज्ञ, सत्य प्रतिज्ञ, परोपकारी, कीर्ति युक्त, ज्ञाननिष्ठ ,पवित्र और समाधि लगाने वाले हैं। वे शत्रुओं का नाश करने वाले हैं। वे प्राणी मात्र के रक्षक और धर्म के प्रवर्तक हैं। वे अपने प्रजापालन रूप धर्म के रक्षक, सज्जनों के पालक, वेद और वेदांगों के मर्मज्ञ तथा धनुर्वेद में निष्णात हैं। वे सब शास्त्रों के तत्वों को भली भांति जानने वाले, उत्तम स्मरण शक्ति से युक्त, प्रतिभाशाली ( सूझबूझ वाले) सर्वप्रिय ,सज्जन , कभी दीनता न दिखाने वाले और लौकिक तथा अलौकिक क्रियाओं में कुशल हैं ।
जिस प्रकार नदियां समुद्र में पहुंचती हैं उसी प्रकार उनके पास सदा सज्जनों का समागम रहता है। वह आर्य हैं। वे समदृष्टि हैं और सदा प्रियदर्शन, सब गुणों से युक्त और कौशल्या के आनंद को बढ़ाने वाले हैं। वह गंभीरता में समुद्र के समान , धैर्य में हिमालय के तुल्य, पराक्रम में विष्णु के समान , प्रियदर्शन में चंद्रमा जैसे, क्षमा में पृथ्वी की भांति और क्रोध में कालाग्नि के समान हैं। वे दान देने में कुबेर के समान और सत्य भाषण में मानो दूसरे धर्म हैं।’
इतने सारे गुण एक व्यक्ति के भीतर मिलने असंभव हैं । राम असंभव को संभव करके दिखाने वाले व्यक्तित्व का नाम है। अतः कहा जा सकता है कि सारे गुणों का समायोजन केवल राम के भीतर ही हो सकता था।
धर्म और धरा धन्य हो गए
राम एक वैश्विक व्यक्तित्व हैं। सार्वभौम व्यक्तित्व के स्वामी हैं। आज इतिहास पर पड़ी धूल के कारण भारत से बाहर के अन्य देश चाहे उन्हें भूल गए हों पर जिस समय श्री राम हुए, उस समय भारत का चक्रवर्ती सम्राट संपूर्ण भूमंडल का शासक हुआ करता था। स्वयं रामचंद्र जी बाली वध के समय बाली से ही कहते हैं कि मैं उस इक्ष्वाकु वंश का वंशज हूं जिसका राज्य संपूर्ण भूमंडल पर है। यही कारण था कि रामचंद्र जी संपूर्ण भूमंडल के निवासियों के बारे में सोचते हैं । उनकी मानसिकता संकीर्ण हो ही नहीं सकती । जिसके पूर्वजों ने संपूर्ण भूमंडल पर शासन किया हो, वह किसी क्षेत्र विशेष के बारे में सोचे, ऐसी कल्पना भी नहीं की जा सकती। यही कारण है कि राम सबके हैं और सब राम के हैं। उन्होंने अपना कार्य क्षेत्र संपूर्ण भूमंडल को बनाया।
अपने सत्कार्यों से रामचंद्र जी ने उस समय संपूर्ण भूमंडल वासियों के हृदय में स्थान बनाया। सबका साथ और सबका विकास - भारत के लोकतांत्रिक शासन प्रणाली का प्राचीन काल से ही सूत्र वाक्य रहा है । इसे प्राचीन काल में चाहे जो नाम दिया गया हो, पर प्रत्येक आर्य राजा के शासन का आधार या सूत्र वाक्य यही रहा है। राम भी शासन के इसी सूत्र वाक्य पर कार्य करने वाले राजा थे। सबके भले में काम करते हुए सबके राम का यश और कीर्ति संपूर्ण धरा पर फैल गई थी। उनके आगमन से धर्म भी धन्य हुआ, धरा भी धन्य हुई और धरावासी भी धन्य हुए। उन्होंने धर्म को सही ढंग से समझा भी और सही ढंग से निभाया भी। धर्म के निर्वाह में उन्होंने किसी प्रकार के छद्म या पाखंड का सहारा नहीं लिया। ना ही किसी प्रकार का तुष्टिकरण किया। उन्होंने दुष्ट के साथ दुष्टता का व्यवहार करने में तनिक भी देर नहीं लगाई। उन्होंने पाप और पापी दोनों को ही ठिकाने लगाने का काम किया। आज कुछ लोग कहते हैं कि पाप से घृणा करो, पापी से नहीं ।यदि श्री राम आज होते तो ऐसा कहने वाले पाखंडियों की भी खबर ले लेते।
राजनीति के महान ज्ञाता थे श्री राम
उन्होंने धरा के प्रति अपने कर्तव्यों का सम्यक निर्वाह किया और धरावासियों अर्थात लोक कल्याण के लिए अपना पूरा जीवन समर्पित कर दिया। उन्होंने जीवन को तपाया, खपाया और लोक कल्याण के लिए लगाया। अपने भाई भरत को उन्होंने चित्रकूट में बैठकर बात-बात में लोक कल्याण और राजनीति का चमत्कृत उपदेश दिया। रामचंद्र जी ने भाई भरत से कहा कि ‘तुम देव अर्थात विद्वानों, रक्षकों,नौकरों , गुरुओं और पिता के समान बड़े बूढ़ों, वैद्यों और ब्राह्मणों का सत्कार करने में सदा तत्पर रहना। क्योंकि राज्य में ऐसे लोगों का सत्कार करने से राज्य की कीर्ति बढ़ती है।
‘तुमने अपने सामान विश्वसनीय वीर , नीतिशास्त्रज्ञ, लोभ में न फंसने वाले प्रमाणिक कुलोत्पन्न और संकेत को समझने वाले व्यक्तियों को मंत्री बनाया है अर्थात तुमको ऐसे ही लोगों को मंत्री बनाना चाहिए। हर ऐरा गैरा नत्थू खैरा या अपने मंत्रालय के बारे में समुचित जानकारी न रखने वाला व्यक्ति मंत्री नहीं होना चाहिए।क्योंकि हे राघव ! मंत्रणा को धारण करने वाले नीति शास्त्र विशारद सचिवों के द्वारा गुप्त रखी हुई मंत्रणा ही राजाओं की विजय का मूल होती है। तुम्हें निद्रा के वशीभूत होकर देर तक नहीं सोना चाहिए। समय से उठना चाहिए और रात्रि के पिछले प्रहर में अर्थ की प्राप्ति के उपाय का चिंतन अवश्य करना चाहिए।
तुम्हें अकेले किसी बात का निर्णय नहीं करना चाहिए। तुम बहुत से लोगों में बैठकर विचार विमर्श करके ही किसी निष्कर्ष पर पहुंचें तो अच्छा रहेगा। राजा को सामूहिक चर्चा के बाद लिए गए सामूहिक निर्णय पर विचार करके ही काम करना चाहिए। यही लोकतंत्र का आधार है।
तुम्हारा विचार कार्य रूप में परिणत होने से पूर्व दूसरे राजाओं को विदित नहीं होना चाहिए। पूरी गोपनीयता बनी रहनी चाहिए। मंत्रियों के साथ की गई तुम्हारी मंत्रणा को कोई जानने न पाए- इस बात का पूरा प्रबंध तुम्हें रखना चाहिए। राजा के रूप में तुम्हारे गुप्त रहस्यों को तुम्हारे मंत्री और दूसरे लोग समय से पहले समझने तक भी ना पाए। जिस राजा के निर्णय क्रियान्वित होने से पहले उसके मंत्रियों को या अधिकारियों को पता चल जाते हैं उस राजा के राज्य की नींव हिल जाती है।
अल्प प्रयास से सिद्ध होने वाले और महान फल देने वाले कार्य को करने का निश्चय कर तुम उसे शीघ्र आरंभ करने वाले बनो। उसे पूर्ण करने में विलंब नहीं होना चाहिए। तुम उत्तम नौकरों को उत्तम कार्यों में, मध्यम नौकरों को मध्य कार्यों में और साधारण नौकरों को साधारण कार्यों में लगाने का अभ्यास करो।
कहने का अभिप्राय है कि राजा को जिसकी जैसी योग्यता है, उससे वैसा ही काम लेना चाहिए। तुम्हारे राज्य में उग्र दंड से उत्तेजित प्रजा तुम्हारा अथवा तुम्हारे मंत्रियों का अपमान ना करे, इस बात का भी ध्यान रखना इत्यादि।
हमारा मानना है कि रामचंद्र जी के द्वारा अपने भाई भरत को दिए गए इस उपदेश को हमें भारत के संविधान में राज्य के नीति निर्देशक तत्वों में स्थान देना चाहिए। इससे न केवल हमारे भारतीय संविधान की मौलिक चेतना भारत की चेतना के साथ सहकार करने में सफल होगी अपितु भारत वासियों के साथ-साथ संपूर्ण संसार के राजनीतिक मनीषियों को भी यह संकेत जाएगा कि भारत की मौलिक चेतना कितनी प्रबल है?
गंभीरता और धैर्य के प्रतीक श्री राम
जब रामचंद्र जी को उनके पिता दशरथ ने यौवराज्याभिषेक के लिए आमंत्रित किया तो उन्हें उसकी कोई अधिक प्रसन्नता नहीं थी और जब उनका वनवास हुआ तो उसका उन्हें कोई दुख नहीं था। दोनों स्थितियों में वह समभाव बनाए रहे। इससे उनकी साधना का पता चलता है। उनकी गंभीरता और उनके धैर्य का पता चलता है। उनकी योग्यता का पता चलता है। किसी भी राजकुमार का इतना अधिक गंभीर होना बताता है कि प्राचीन काल में आर्य राजा किस प्रकार के गुणों से युक्त हुआ करते थे?
अपने वनवास के लिए जिम्मेदार रही अपनी विमाता कैकेई और उसकी दासी मंथरा से भी उन्हें कोई शिकायत नहीं थी। उनके प्रति उन्होंने बहुत ही आदर और सम्मान का भाव व्यक्त किया।
उन्हें कैकेई ने कठोर वचन बोलते हुए बताया था कि ‘हे राम! पूर्व काल में देवासुर संग्राम में शत्रु के बाणों से पीड़ित और मेरे द्वारा रक्षित तुम्हारे पिता ने मेरी सेवाओं से प्रसन्न होकर मुझे दो वर दिए थे। उन दो वरों में से मैंने एक से तो भरत का राज्याभिषेक और दूसरे से तुम्हारा आज ही दंडकारण्य गमन मांग लिया है। यदि तुम अपने पिता को और अपने आप को सत्य प्रतिज्ञ सिद्ध करना चाहते हो तो मैं जो कुछ कहूं उसे सुनो। तुम पिता की आज्ञा के पालन में स्थिर रहो। जैसा कि उन्होंने प्रतिज्ञा की है तुम्हें 14 वर्ष के लिए वन में चले जाना चाहिए।
हे राम ! महाराज दशरथ ने तुम्हारे राज्याभिषेक के लिए जो सामग्री एकत्र कराई है उससे भरत का राज्याभिषेक हो। भरत कोशलपुर में रहकर विभिन्न प्रकार के रत्नों से भरपूर तथा घोड़े, रथ और हाथियों सहित इस राज्य पर शासन करें । यही कारण है कि महाराज करुणा से पूर्ण हैं। दु:ख से उनका मुख शुष्क हो रहा है और वह तुम्हारी ओर देख भी नहीं सकते।
जब श्री राम ने अपनी विमाता कैकेई के मुख से इस प्रकार के शब्द सुने तो उन्होंने बड़ी गंभीरता और धैर्य का परिचय देते हुए कह दिया की ‘बहुत अच्छा’ – ऐसा ही होगा। महाराज की प्रतिज्ञा पूर्ण करने के लिए मैं जटा और वल्कल वस्त्र धारण कर अभी नगर को छोड़कर वन को जाऊंगा।’
श्री राम का पराक्रम और विश्वामित्र जी
श्री राम जब मात्र 15 वर्ष के थे तब उनके पिता महाराज दशरथ से उन्हें विश्वामित्र जी मांग कर ले गए थे। उसे समय विश्वामित्र जी ने राजा दशरथ को बताया था कि राजन ! महर्षि पुलस्त्य के वंश में उत्पन्न रावण नाम का एक राक्षस है। उसी की प्रेरणा से बड़े बलवान दो राक्षस मारीच और सुबाहु हमारे यज्ञों में विघ्न डालते रहते हैं। जिनका विनाश किया जाना बहुत आवश्यक है। उस समय महाराज दशरथ ने विश्वामित्र जी से कहा कि ‘उस दुरात्मा रावण का सामना तो महाराज मैं भी नहीं कर सकता। आप मुझ पर और मेरे बच्चों पर कृपा करें। मैं अपने बाल पुत्र को कदापि नहीं दूंगा।’
इस पर वशिष्ठ जी ने महाराज दशरथ को समझाते हुए कहा कि आपको इस प्रकार के वचन नहीं बोलने चाहिए। श्री राम अस्त्र विद्या में कुशल हों या ना हों, विश्वामित्र से रक्षित राम का राक्षस कुछ भी नहीं बिगाड़ सकते। यदि अग्नि चक्र अमृत का रक्षक हो तो क्या कोई उसे पा सकता है ?
महाराज दशरथ की ऐसी अवस्था के उपरांत भी श्री राम 15 वर्ष की अवस्था में विश्वामित्र जी के साथ वन की ओर चले जाते हैं। साथ में भाई लक्ष्मण भी हैं। वह तनिक भी नहीं घबराते। वन में जाकर विश्वामित्र जी की प्रेरणा से ताटका वध करते हैं। इसके बाद कई अन्य राक्षसों का भी अंत करते हैं। विश्वामित्र जी राम जी को अस्त्र दान करते हैं। यह अस्त्र भी बहुत भयंकर थे। परंतु श्री राम के भीतर योग्यता देखकर ही विश्वामित्र जी ने उन्हें यह हथियार दिए। तब 15 वर्ष की अवस्था में ही उन्होंने अपने पराक्रम का परिचय दे दिया था। उन्होंने विश्वामित्र जी के साथ जाकर कई ऐसे समाज विरोधी और राष्ट्र विरोधी राक्षसों का अंत किया जो विश्वामित्र जी जैसे ऋषि महर्षियों के यज्ञ कार्य में भी विघ्न डाल रहे थे। उनके इस पराक्रमी स्वरूप की उस समय दूर-दूर तक चर्चा होने लगी थी। ऋषि मंडल में उनका नाम बड़े सम्मान से लिया जाने लगा था। बड़े-बड़े राजाओं महाराजाओं को उनके नाम और काम की सूचना मिल गई थी। जिससे उनका यश और उनकी कीर्ति चारों ओर फैल गई थी। उनकी वीरता और पराक्रम को देखकर ही विश्वामित्र जी ने यह अनुमान लगा लिया था कि वह राजा जनक जी की पुत्री सीता के विवाह के लिए लगाई गई शर्त को पूरा कर सकते हैं।
राजा जनक ने जिस धनुष को तोड़ने की शर्त अपनी पुत्री के विवाह के लिए लगाई थी, उसे तोड़ने के लिए उस समय के अनेक राजा आए थे, पर सभी असफल होकर लौटे थे। जब रामचंद्र जी वहां गए तो उस समय उनकी अवस्था 25 वर्ष की हो चुकी थी। तब तक उनके भीतर युद्ध विद्या और शस्त्र विद्या के कई हुनर आ चुके थे। विश्वामित्र जी ने उनकी इस प्रतिभा को और भी अधिक निखार दिया था। विश्वामित्र जी को यह विश्वास था कि यदि रामचंद्र जी को जनक के यहां ले जाया गया तो वह उस कार्य को कर दिखाएंगे जो अभी तक किसी भी क्षत्रिय के द्वारा नहीं किया जा सका है। हुआ भी यही कि 25 वर्ष के पराक्रमी वीर ब्रह्मचारी ने उस धनुष को तोड़ दिया । राजा जनक ने उस समय अपनी पुत्री सीता को वीर्यशुल्का कहा था अर्थात जिसका विवाह पराक्रम दिखाकर उसमें सफल होने वाले राजकुमार के साथ ही किया जा सकता था। बात स्पष्ट है कि श्री राम ने अपना पराक्रम दिखाकर उस समय क्षत्रिय धर्म का पालन किया था। उसकी रक्षा की थी।
क्रमशः
डॉ राकेश कुमार आर्य
मुख्य संपादक, उगता भारत