आत्मा शरीर में कहां रहती है, भाग – 6
ब्रहदारण्यकोपनिषद के आधार पर ।
आत्मा शरीर में कहां रहती है?
इस उपनिषद में बहुत लंबा वृतांत आत्मा के निवास के विषय में दिया हुआ है लेकिन हम सुधीर पाठकों की सुविधा के लिए छोटे-छोटे भाग में तोड़ तोड़ कर प्रस्तुत करना उचित समझेंगे।
पृष्ठ संख्या 829
बहुत महत्वपूर्ण बात लिखी गई है कृपया गंभीरता पूर्वक पढ़ने, सुनने और समझने का प्रयास करें।
“एक जगह अथर्ववेद में हृदय मंदिर को अयोध्या कहते हुए उसे ब्रह्म की पुरी बतलाया गया है”
(10- 2- 61, 62 अथर्ववेद)
कठोपनिषद में गुहा( हृदय आकाश )के लिए एक जगह कहा गया है की जीवात्मा और परमात्मा छाया और प्रकाश की तरह उसमें रहते हैं ( कठोपनिषद तीन बटा एक)
इसी बात की पुष्टि इस उपनिषद में भी की गई है। अजातशत्रु ने बालाकी को एक सोए हुए पुरुष के पास ले जाकर बतलाया था कि जब मनुष्य सो जाता है तो जीव समस्त इंद्रियों के विषय ग्रहण करने की शक्ति को अपने अधिकार में करके हृदय आकाश में रहा करता है ।उस समय जीव का नाम ‘स्वपिति’ (अर्थात अपने स्वयं के स्वरूप में स्थित)होता है
(
बृहदारण्यक उपनिषद् 1-1-17)
जब मैंने यह आत्मा के निवास स्थान के संबंधमें लेख लिखना प्रारंभ किया था तो हमारे एक विद्वान साथी डॉक्टर वेद प्रकाश शर्मा जी (बरेली निवासी)जो एक अच्छे डॉक्टर भी हैं , ने एक उचित टिप्पणी की थी कि हृदय में जीव उस जगह नहीं रहता कि यदि हृदय का स्थानांतरण (प्रतिस्थापन) किसी दूसरे जीव में कर दिया जाए तो वह जीव वहां से निकाल कर दूसरे जीव में चला जाएगा ।इसका डॉक्टर साहब ने भी खंडन किया था जो बहुत अच्छा विषय उन्होंने रखा था।
इस विषय में मैं डॉक्टर श्री सत्यदेव आर्य के उदाहरण को पेश करना उचित समझता हूं। जिससे कि यह बात स्पष्ट हो जाएगी वह हृदय कौन सा है जिसमें जीवात्मा रहती है।
डॉ श्री सत्यदेव आर्य के अनुसार यह हृदय वह नहीं है जो शरीर में रक्त संचालन का केंद्र है किंतु यह हृदय मस्तिष्क संस्थान का ही विशिष्ट अंग है। विद्वान लेखक ने सत्य प्रकाशन से प्रकाशित अपने ग्रंथ ‘उपासना रहस्य’ में इस विषय पर सप्रमाण विस्तार से विचार किया है।
जीव केवल सपनावस्था में ही हृदय या हृदय आकाश में रहता हो इस स्वपिति का अर्थ यही नहीं है बल्कि उसका शरीर में रहने का स्थिर स्थान प्रत्येक अवस्था में यही है। यह बात जगह जगह वेद और उपनिषद में कही गई है।
आत्मा का शरीर में स्थिर स्थान होते हुए भी इसके लिए अजातशत्रु ने भी यह बतलाया कि वह सूक्ष्म शरीर के साथ यथेष्ट रीति से समस्त शरीर में नाडियों के द्वारा भ्रमण किया करता है।
इस विषय में मैं आदरणीय स्वामी विवेकानंद परिव्राजक जी के प्रवचनों को भी उद्धृत करना अपना उत्तरदायित्व समझता हूं जिससे की विषय की गंभीरता और अधिक स्पष्ट हो सकती है।
आदरणीय स्वामी जी कहते हैं कि जैसे एक सेनापति अथवा राजा अपने राज में घूमता है। ऐसे ही यह आत्मा इस शरीर में नाडियों के माध्यम से घूमती रहती है। लेकिन उसका स्थिर स्थान हृदय आकाश है। स्वामी जी आगे बताते हैं कि एक मकान का स्वामी जिस प्रकार से अपने मकान में कभी बेडरूम में ,कभी किचन में तो कभी डाइनिंग रूम में जाकर के उठता बैठता है, उसी प्रकार से आत्मा भी शरीर में अलग-अलग स्थान पर आती जाती रहती है।
बालाकी को उत्तर देते हुए जात शत्रु ने बतलाया था कि इस जीवात्मा को मैं आत्मनवी अर्थात् परमात्मा की खोज करने वाला मानता हूं ।
(बृहदारण्यक उपनिषद दो एक 13)
अर्थात आत्मा परमात्मा की खोज में लगी रहती है जिससे कि वह परमानंद की प्राप्ति करना चाहती है । क्योंकि वह परमानंद केवल परमात्मा के ही पास है।
पति, पत्नी, पुत्र ,धन, ज्ञान, बल, लोक, देव ,प्राणी और समस्त जगत आत्मा की अपनी कामना के लिए मनुष्य को प्रिय हुआ करते हैं। जगत स्वार्थमय है ।स्वार्थ अच्छे और बुरे दोनों अर्थों में आता है। स्व नाम आत्मा का है। स्वार्थ अर्थात आत्मार्थ है। आत्मोद्देश्य ,आत्मा के ध्येय ही को आत्मा का अर्थ या स्वार्थ कहते हैं। यह स्वार्थ कभी किसी के विरुद्ध नहीं हुआ करता। सदैव निर्दोषतापूर्ण रहा करता है। जो मन और इंद्रियों का स्वार्थ है वह कभी लोक के अनुकूल और कभी प्रतिकूल हुआ करता है। इसीलिए उसे दूसरी अर्थात बुरी श्रेणी में रखा जाता है ।
महर्षि याज्ञवल्क्य ने मैत्रेई को सबसे प्रथम यही बात समझने का प्रयत्न किया था कि जगत के साथ अपना व्यवहार जो जगत में रहकर मनुष्य को करने ही पड़ते हैं ,ऐसा होना चाहिए कि वह आत्मा को अपने उद्देश्य की पूर्ति की ओर चलने में साधक हो ।कम से कम किसी भी अवस्था में भी बाधक न हो।
आत्मा का उद्देश्य क्या है?
निदिध्यासन
जिसके द्वारा आत्मा बाह्य जगत से हटकर सूषुप्ति की सदृश अपनी भीतर की दुनिया में प्रविष्ट हुआ करता है इसी भीतरी दुनिया को गुहा( हृदय मंदिर) अथवा आत्मसात होना कहा जाता है। जहां जीवात्मा अपने ज्ञान और बल को केवल ज्ञान की कोटी से निकलकर अनुभव की कोटी में लाया करता है ।आत्म शक्ति का प्रत्यक्ष ज्ञान प्राप्त और आत्म बल के साक्षात कर लेने से वह आत्मज्ञ बन जाता है। और तब उसे सांसारिक ज्ञान और कर्म हेय प्रतीत होने लगते हैं ।और इसीलिए अब वह उनकी और न जाकर अपने को परमात्मा की ओर चलने और उसके साक्षात करने का अधिकारी समझने लगता है।
इससे भी स्पष्ट हुआ कि यह वह हृदय नहीं जो मांस और खून से भरा है।
बल्कि वह हृदय जो उपरोक्त में स्पष्ट किए गए हैं वह हृदय होता है। जिसमें जीवात्मा निवास करती है।
इसलिए हृदय विस्थापन के समय जीवात्मा विस्थापित नहीं होती।
शेष अगली किस्त में।
देवेंद्र सिंह आर्य एडवोकेट
ग्रेटर नोएडा
चलभाष
9811 838317
7827 681439