भारत एक अध्यात्मवादी राष्ट्र है। इसके बारे में यह भी सत्य है कि हर युग में इसका नेतृत्व अध्यात्मवाद ने ही किया है। भारत की शासन व्यवस्था भी इस बात का स्पष्ट संकेत करती है कि ब्रह्मबल सदा ही क्षात्रबल से पहले पूजनीय है। ब्रह्मबल के बिना कोई भी राष्ट्र उन्नति नहीं कर सकता। यह हमारी प्राचीन भारतीय लोकतांत्रिक व्यवस्था का एक महत्त्वपूर्ण सूत्र था। जब हम चाणक्य के शब्दों में यह कहते हैं कि राजा दार्शनिक होना चाहिए और दार्शनिक राजा होना चाहिए तो इसका अभिप्राय भी यही है कि राजा में ब्रह्मबल और क्षत्रिय बल दोनों का समुचित समन्वय स्थापित होना चाहिए।
हमें यह भी ध्यान रखना चाहिए कि अध्यात्मवाद से मानव की चित्त की वृत्ति शांत होती है और उसके अंदर सकारात्मकता एवं रचनात्मकता के निर्मल भावों की उत्पत्ति होती है उसके हृदय से ऐसे शुद्ध पवित्र चिंतन का उद्भव होता है जो कभी- कभी चित्रकारी के रूप में तो कभी-कभी लेखन या कविता के रूप में प्रस्फुटित होता हुआ दिखाई देता है। अतः यदि हमारे धार्मिक वैदिक लोग कलाकारी, चित्रकारी, कविता और लेखन के क्षेत्र में विख्यात हुए और इस क्षेत्र में उन्होंने अपने कीर्तिमान स्थापित किए तो इसका एक कारण यही था कि वह अपने मूल स्वभाव में आध्यात्मिक प्रवृत्ति के लोग थे। दानवीय भावों से ओतप्रोत व्यक्ति के भीतर ऐसी रचनात्मकता हो ही नहीं सकती। कहने का अभिप्राय है कि यदि आज के अफगानिस्तान में सर्वत्र बुद्ध विहार या हिंदू मंदिर या वैदिक संस्कृति के भग्नावशेष किसी न किसी रूप में हमें दिखाई देते हैं तो इसका कारण यही है कि इस प्रकार की संस्कृति को मानने वाले लोग आध्यात्मिक प्रवृत्ति के थे। यह भग्नावशेष उनकी आध्यात्मिकता, सकारात्मकता और निर्माणात्मकता अर्थात् रचनात्मकता के प्रतीक हैं।
ब्रह्मबल में स्वाभाविक रूप से सात्विक बल होता है, जबकि क्षत्रिय बल में राजसिक बल होता है, जो कि सात्विक बल के समक्ष कुछ दुर्बल होता है। जब- जब हमारा राजसिक बल दिग्भ्रमित हुआ या दुर्बल पड़ा या किसी भी कारण से पथभ्रष्ट हुआ तो उसे हमारे ब्रह्म बल ने संतुलित, मर्यादित, अनुशासित व संयमित करने का सराहनीय कार्य किया। यही कारण था कि जब अरब के आक्रमणकारियों ने भारत पर आक्रमण करने आरंभ किए तो यहाँ के अध्यात्मबल ने क्षत्रिय बल का मार्गदर्शन करना आरंभ किया। वैदिक धर्म के पुरोधा शंकराचार्य जी इस विशेष परिस्थिति को अपने लिए चुनौती मानकर उठ खड़े हुए। उन्होंने क्षत्रियों को इस आपात व्यवस्था से निपटने के लिए विशेष रूप से आंदोलित कर डाला।
कुछ इतिहासकारों की यह मान्यता है कि भारत में राष्ट्र नाम की कोई चीज कभी नहीं रही। उनके दृष्टिकोण में भारत ऐसे ही कुछ कबीलों या समुदायों का अव्यवस्थित देश था, जिसमें ना कोई शासन था ना कोई अनुशासन था, सब कुछ अस्त-व्यस्त था। इस अव्यवस्था के बीच किसी भी प्रकार के ऐसे राष्ट्रवाद की कल्पना नहीं की जा सकती थी जो भारतीयों की एकता को प्रदर्शित करने वाला हो या जो भारतीयों को विदेशी आक्रमणकारियों के विरुद्ध सीना तानकर उठ खड़ा होने की प्रेरणा देने वाला हो। हमारा मानना है कि जिन इतिहासकारों की ऐसी मान्यता है वह भारत के विषय में या तो जानते नहीं है या शत्रुभाव रखकर ऐसी अतार्किक व निराधार मान्यता बनाकर कुप्रचार करने में लगे रहते हैं।
जब अरब आक्रमणकारियों ने भारत पर आक्रमण करने आरंभ किए तो उनका उचित प्रतिकार करने हेतु भारत के शासकों ने बहुत ही उत्तम राष्ट्रवादी भावना से ओतप्रोत कार्य करके दिखाया। भारत के कई शासकों ने मिलकर एक राष्ट्रवादी संघ बनाया। जिसका उद्देश्य अरब आक्रमणकारियों का उचित प्रतिकार करना था। जिससे देश की संस्कृति और देश के धर्म की रक्षा हो सके और विदेशी आक्रमणकारियों को परास्त कर यमलोक का रास्ता दिखाया जा सके। हमारे तत्कालीन शासकों के द्वारा उठाया गया यह कदम ऐतिहासिक था। जिससे पता चलता है कि उनके भीतर राष्ट्रवाद की कितनी उत्कृष्ट और प्रबल भावना थी। जिसके वशीभूत होकर वह विदेशियों को अपनी मातृभूमि को स्पर्श तक न करने देने के लिए संकल्पित थे।
भारत के राजाओं ने बनाया संघ
भारत के राजाओं के इस संघ ने भारतवर्ष की एकता और अखंडता को अक्षुण्ण बनाए रखने के लिए विदेशी अरब आक्रमणकारियों से श्रृंखलाबद्ध कई युद्ध लड़े। सन् 738 में लड़े गए इन युद्धों को 'राजस्थान के युद्ध' कहकर इतिहास में स्थान दिया गया है। यह युद्ध यद्यपि सिन्ध और राजस्थान की सीमा पर कहीं किसी स्थान पर लड़े गए थे, परंतु इन्होंने अन्य अरबों को भारत की ओर दुस्साहस कर आगे बढ़ने से रोकने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई, जिससे न केवल भारत की सुरक्षा संभव हो पाई, अपितु तत्कालीन अफगानिस्तान के हिंदू समाज को भी अपने धर्म और संस्कृति को बचाने में सहायता मिली।
इतिहासकारों की मान्यता है कि इन युद्धों के द्वारा हिंदू शक्ति ने अपनी प्रतिकारात्मक शक्ति का सराहनीय प्रदर्शन किया। जिससे सिंध क्षेत्र में उपस्थित रहे अन्य अरब आक्रमणकारियों को हिंदू के प्रतिशोध लेने की भावना का पता चल गया। फलस्वरूप हिंदू शक्ति के महान् योद्धाओं ने अरब आक्रमणकारियों को सिंधु नदी के पूर्वी भाग से पीछे धकेलते हुए इस भाग को अरबों के प्रभाव से मुक्त कर दिया था। हिंदू शक्ति की प्रबलता और देशभक्ति के सामने अरब आक्रमणकारियों को यहाँ से मैदान छोड़कर भागने के लिए विवश होना पड़ गया। अरब सेना ने सिन्ध पर अधिकार कर लिया, किन्तु उनको सिंधु नदी के पश्चिमी क्षेत्र तक रुकने के लिये विवश होना पड़ा।
हिन्दू सेना में गुर्जर-प्रतिहार राजवंश के नागभट्ट, बप्पा रावल, दक्षिण भारत के चालुक्य राजवंश का सम्राट विक्रमादित्य द्वितीय सहित कई छोटे-छोटे हिन्दू राजा सम्मिलित थे। इन सब महान देशभक्त राजाओं का एक ही उद्देश्य था कि जिस प्रकार से भी संभव हो, भारत देश की सुरक्षा अरब आक्रमणकारियों से की जाए। अरब आक्रमणकारी इस्लाम के जन्म के समय से ही कई संस्कृतियों के विनाश के कार्य में लग गए थे, अब तक उन्हें अपने इस कार्य में आशातीत सफलता भी मिली थी। यह लोग फारस की संस्कृति को विनष्ट करने में सफल हुए थे। अब उनकी सोच ऐसी बन गई थी कि जिस प्रकार फारस को उन्होंने शीघ्रता से मिटा दिया है, उसी प्रकार वह भारत की संस्कृति को भी मिटाने में देर नहीं लगाएँगे। भारत में जब उन्हें अपने विरुद्ध राजाओं के एक संघ का सामना करना पड़ा तो यह उनके लिए भी पहला झटका था। अब से पहले किसी देश की संस्कृति की रक्षा के लिए वहाँ के राजाओं के किसी संघ का सामना अरब आक्रमणकारियों को नहीं करना पड़ा था।
यह विशुद्ध हिंदू संघ था
कुछ अज्ञानी इतिहास लिखो ने भारतीय राज्यों के इस गठबंधन को हिंदू गुर्जर संगठन के रूप में अपने लिखो या इतिहास में स्थापित करने का प्रयास किया है। हमारा मानना है कि इन इतिहास लेखकों की ऐसी मान्यता न केवल निराधार है, अपितु भारत के सामाजिक सर्व समावेशी स्वरूप के विरुद्ध किया गया एक षड्यंत्र भी है। हिंदू और गुर्जर अलग-अलग नहीं हैं। गुर्जर समाज वैदिक हिंदू धर्म का ही एक अंग है। गुर्जर प्रारंभ से ही देशभक्त जाति के रूप में स्थापित रहे हैं। साथ ही वह इसी देश के मूल निवासी भी रहे हैं। ऐसी परिस्थितियों में हिंदू-गुर्जर संगठन की बात करना इतिहास के तथ्यों के साथ न केवल खिलवाड़ करना है, अपितु इतिहास के सत्य को नकारना भी है, जो किसी भी जीवंत जाति या राष्ट्र के लिए उचित नहीं कहा जा सकता। कुल मिलाकर राजस्थान के इन युद्धों की श्रृंखला में भारत के हिंदू वीरों ने संयुक्त रूप से मिलकर विदेशी आक्रमणकारियों का सफलतापूर्वक सामना किया और उन्हें अपनी पवित्र भूमि से बाहर धकेल कर ही दम लिया। जिससे उस समय के संपूर्ण भारतवर्ष की रक्षा करने में सहायता मिली। हमारे तत्कालीन अफगानिस्तान के हिंदू वैदिक अतीत को भी इससे नई ऊर्जा मिली। हम अपने इस क्षेत्र के हिंदू धर्म और हिंदू संस्कृति की रक्षा करने में सफल रहे।
विदेशी आक्रमणकारियों के विरुद्ध बने इस हिंदू संगठन में गुर्जर प्रतिहार वंश के महाप्रतापी शासक नागभट्ट प्रथम का विशेष योगदान रहा था। इसी महान् प्रतापी शासक के वंश में आगे चलकर गुर्जर प्रतिहार मिहिरभोज जैसे महाप्रतापी शासक का जन्म हुआ। जिसने अपने इस महान् पूर्वज की परंपरा को आगे चलकर अपने शासनकाल में यथावत जारी रखा। जिस पर हम आगे अलग अध्याय में प्रकाश डालेंगे। इस संगठन में मेवाड़ के प्रतापी शासक बप्पा रावल का भी विशेष योगदान रहा था। जिसके वीरतापूर्ण कृत्यों पर हम पूर्व में ही विचार कर चुके हैं।
जब वैदिक धर्म का पतन आरंभ हुआ तो मूलरूप में इस अहिंसावादी धर्म के भीतर हिंसा का प्राबल्य हो गया। लोग यज्ञों के नाम पर पशुबलि और नरबलि तक देने लगे। जिसके विरुद्ध महात्मा बुद्ध ने आवाज उठाई और उन्होंने पूर्ण अहिंसावादी बौद्ध धर्म की स्थापना की। कालांतर में बौद्ध धर्म की अहिंसा ने भी जब अति की तो उससे भी राष्ट्र का पतन हुआ। अब नई क्रांति का समय आ गया था। इस्लाम ने अपने मौलिक चिंतन में वैदिक धर्म के एकेश्वरवाद को स्थापित किया तो उसने बौद्ध धर्म की अहिंसा को पूर्णतया नकार दिया। परंतु इस्लाम भी अपने इस मूल सिद्धांत पर अधिक देर तक टिक नहीं सका। इसके शासकों और खलीफाओं ने अहिंसा के स्थान पर हिंसा को पहले दिन से इतनी अधिक प्राथमिकता देनी आरंभ की कि उसने मानवता का रूपांतरण कर उसे दानवता में परिवर्तित करके रख दिया। हिंसा, रक्तपात और व्यभिचार के आधार पर इसने मानवतावाद की सारी प्रक्रिया, परिभाषा और प्रकृति को परिवर्तित करने का प्रयास किया। सातवीं शताब्दी के अंत तक इस्लाम अपनी इन प्रवृत्तियों के आधार पर एक आंधी बन चुका था, जो सभ्यताओं को उजाड़ने और संस्कृतियों का विनाश करने के कार्य को लेकर निरंतर आगे बढ़ता जा रहा था। इसके आधार पर इस्लाम एक शक्तिशाली धर्म बन गया था और अरब एक शक्तिशाली सेना।
मोहम्मद बिन कासिम ने ईरान और अफगानिस्तान पर अपना आधिपत्य स्थापित करने में सफलता प्राप्त कर ली थी। यद्यपि हमारे महान् प्रतापी शासक बप्पा रावल ने अपने वीरतापूर्ण कृत्यों से मोहम्मद बिन कासिम के इस पाप का प्रक्षालन कर दिया था, परंतु इसके उपरांत भी कुछ क्षेत्रों में उसके उत्तराधिकारी अभी भी उत्पात मचा रहे थे। मोहम्मद बिन कासिम के उत्तराधिकारी, जुनेद इब्न अब्द अल-रहमान अल-मुरी, ने 730 ई. के आरम्भ में भारतवर्ष के क्षेत्र में एक बड़ी सेना का नेतृत्व किया। अपनी सेना को दो भागों में बाँटकर उसने दक्षिणी राजस्थान, पश्चिमी मालवा और गुजरात के कई शहरों में लूटपाट की। बप्पा रावल ने इन अरबी लुटेरों के विरुद्ध कठोर कार्यवाही की थी।
गुर्जर प्रतिहार शासक नागभट्ट ने स्वीकार की चुनौती
गुर्जर प्रतिहार वंश के शासक नागभट्ट प्रथम के लिए भी यह एक चुनौती थी कि वह अरब दस्युओं के विरुद्ध कठोर कार्यवाही करें। इन अरब दस्युओं का विरोध, प्रतिशोध और प्रतिरोध करना समय की आवश्यकता थी। जिसके लिए नागभट्ट प्रथम ने एक कारगर रणनीति बनाने का निर्णय लिया। उनकी यह रणनीति अब तक के भारतीय शासकों के द्वारा अपनायी गयी ऐसी पहली रणनीति थी। अबसे पूर्व के भारतीय शासकों के सामने कभी ऐसी स्थिति संभवतः नहीं आई थी कि जब उन्हें विदेशी आक्रमणकारियों के विरुद्ध किसी संघ को बनाने की आवश्यकता अनुभव हुई हो। अरब वालों के उत्पातों को रोकने के लिए और उनकी शक्ति का उचित प्रतिशोध करने के लिए नागभट्ट प्रथम ने अपने समकालीन शक्तिशाली शासकों के साथ मिलकर हिंदू संघ का निर्माण किया। उन्होंने भारत के इतिहास में अपना नाम इस बात के लिए स्वर्णिम अक्षरों से लिखवाया कि जब देश, धर्म और संस्कृति की रक्षा के लिए कोई चुनौती आ खड़ी होती है तो हमारे शासक सारे पूर्वाग्रहों को त्यागकर उस चुनौती का सामना संयुक्त संगठन के माध्यम से करने की क्षमता भी रखते हैं। गुर्जर प्रतिहार वंश के शासक नागभट्ट प्रथम का यह प्रयास उनके इस चिंतन को इंगित करता है कि उनके लिएराष्ट्रीय प्रथम था l यदि वह किसी हम के वशीभूत
होकर शासन करते तो किसी दूसरे शासक के समक्ष जाकर राष्ट्रहित में किसी संगठन को खड़ा करने की पर विचार तक भी ना करते।
'राष्ट्र सर्वप्रथम' की अपनी उत्कृष्ट और उदात्त भावना के वशीभूत होकर नागभट्ट प्रथम ने राष्ट्र कूट साम्राज्य के जयसिम्हा वर्मन के साथ संयुक्त मोर्चा दिखाने का आग्रह किया। राष्ट्रकूट शासक ने नागभट्ट प्रथम के इस राष्ट् रहित से जुड़े प्रस्ताव का हृदय से स्वागत किया। जयसिम्हा ने अपने पुत्र अवनिजनश्रया पुलकेसी को नागभट्ट प्रथम को समर्थन देने के लिए भेजा। उस समय मेवाड़ के महान् शासक बप्पा रावल विदेशी आक्रमणकारियों से राजस्थान की सीमा पर पहले से ही जूझ रहे थे,जिन्हें उसे समय पीछे से किसी बड़ी शक्ति के सहयोग और समर्थन की आवश्यकता थी। जिसे अब हमारे इन दो महान् देशभक्त राजाओं ने पूर्ण कर दिया था। इन दोनों देशभक्त राजाओं की सेनाएँ राजस्थान की सीमा पर महावीर बप्पा रावल के नेतृत्व वाली हिन्दू सेना में जाकर सम्मिलित हो गई थीं।
इतिहासकारों का मानना है कि बप्पा रावल के नेतृत्व में लड़ रही इस सेना के हिंदू संघ के सैनिको की कुल संख्या 5 या 6 हजार ही थी। इतिहास लेखकों ने इस सेना का नाम गुर्जर-राजपूत सेना के नाम से पुकारने का काम किया है। जबकि इसे जातिसूचक शब्द से संबोधित ना कर राष्ट् वादी हिंदू सेना शब्द से संबोधित किया जाना ही न्याय संगत होगा, क्योंकि यह गुर्जर-राजपूत सेना न होकर राष्ट्र के लिए लड़ने वाली हिंदू सेना थी। जिसमें जाति-बिरादरी का कोई स्थान नहीं रखा गया था। इन सब संकीर्णताओं से ऊपर उठकर नागभट्ट प्रथम ने वंदनीय कार्य किया था, जिसको तत्कालीन अन्य महान् शासकों ने अपना सहयोग व समर्थन देकर यह स्पष्ट कर दिया था कि उनके लिए जातीय संकीर्णताएँ कोई अर्थ नहीं रखतीं। इतिहास का यह भी एक रोचक और रोमांचकारी तथ्य है कि हमारी हिंदू सेना के 5 या 6 हजार घुड़सवारों ने 30000 से अधिक अरबी सेना का सामना किया।
दोनों पक्षों में बड़ा भयंकर संग्राम हुआ। अंत में बप्पा रावल के नेतृत्व वालो राजपूत सेना अरबी नेता अमीर जुनैद को मारने में सफल रही।
अरब की 30000 की विशाल सी या तो भर दी गई या फिर जो शेष बचे उसके वे सैनिक मैदान छोड़कर भाग गए। वास्तव में अरब वालों के लिए यह ऐसी करारी पराजय थी, जिसकी उन्होंने कल्पना नहीं की थी। हमारे इस तर्क की पुष्टि में अरब इतिहासकार सुलेमान कहता है कि “मुसलमानों को भाग कर शरण लेने का स्थान भी नहीं मिल पाया था।”
वास्तव में वीरता इसी का नाम है, जब शत्रु आपके सामने से मैदान छोड़कर न केवल भाग जाए, अपितु उसे अपना अस्तित्व तक बचाना असंभव दिखाई देने लगे।
अरबों को भारतीयों के इस हिंदू संघ से मिली पराजय का परिणाम यह निकला कि उन्हें अपनी हार से उबरने में काफी समय लग गया। जुनेद के उत्तराधिकारी तमीम इब्न जेड अल-उत्बी ने राजस्थान के विरुद्ध एक नए युद्ध की रचना की, परंतु अनेकों प्रयल करने के उपरांत भी वह अपनी योजना में सफल नहीं हो सका अर्थात् राजस्थान के किसी भी क्षेत्र पर अधिकार करने में उसे सफलता नहीं मिली। इस प्रकार भारतीय राज्यों के इस हिंदू संघ ने कम से कम अगले 200 वर्षों तक अरब आक्रमणकारियों से हिंदुस्तान को बचाया। यहाँ पर बचाने का अभिप्राय यह है कि अरब आक्रमणकारियों के आक्रमणों से अगले 200 वर्ष तक भारत का कोई क्षेत्र अपनी स्वाधीनता को छोड़ने पर विवश न हुआ।
नागभट्ट द्वितीय
नागभट्ट प्रथम की भाँति ही गुर्जर प्रतिहार वंश में नागभट्ट द्वितीय नाम का शासक भी महान् प्रतापी शासकों में गिना जाता है। उसके संबंध में ग्वालियर प्रशस्ति में उसकी सैनिक उपलब्धियों का वर्णन किया गया है। जिसमें यह बताया गया है कि उसने आंध्र, विदर्भ, कलिंग, मत्स्य, वत्स और तुर्क शासकों को परास्त किया था। इससे पता चलता है कि वह भी अपने वंश के अन्य कई शासकों की भाँति पराक्रमी शासक था। जिसने तुर्कों को भारत में प्रवेश करने से रोका और अपने देश के पश्चिमी क्षेत्र की रक्षा करने में सफल रहा। सेंधवा के शासक राणका प्रथम पर उसने चढ़ाई की और उस पर विजय प्राप्त की। मालवा और गुजरात उसे अपने शासनकाल में एक बार खोना भी पड़ा। परंतु मालवा पर पुनः अधिकार करने में उसे सफलता मिली। उसके बारे में बताया जाता है कि वह मुसलमानों के हमलों को विफल करने में भी सफल रहा था। इस प्रकार इस देशभक्त शासक ने भी अपने पराक्रम के बल पर विदेशी तुर्कों और यवनों को भारत में प्रवेश करने से रोकने में सफलता प्राप्त की।
क्रमशः
मुख्य संपादक, उगता भारत