*
डॉ डी के गर्ग

निवेदन : ये लेखमाला 20 भाग में है। इसके लिए सत्यार्थ प्रकाश एवं अन्य वैदिक विद्वानों के द्वारा लिखे गए लेखो की मदद ली गयी है। कृपया अपने विचार बताये और शेयर भी करें।
भाग–9

जैन मत का अभिवादनजय जिनेन्द्र

जय जिनेन्द्र का वास्तविक भावार्थ —-जय जिनेन्द्र अभिवादन नहीं ,एक ज्ञान सूचक सन्देश है जिसका वास्तविक भावार्थ समझाने के बजाय सार्वजनिक अभिवादन बना दिया। ये अभी तक अज्ञात है की जय जिनेन्द्र अभिवादन कब और किसने सुरु किया। लेकिन इस शब्द का महत्त्व अत्यंत गूढ़ है ।अभिवादन में छिपे इस सन्देश को समझने वाला और जीवन में अपनाने वाला जितेन्द्रिय हो सकता है।
जितेन्द्रिय कौन हो सकता है ? वेद का संदेश भी है कि मनुष्य जितेन्द्रिय बने अर्थात अपनी इंद्रियों पर विजय पाए, लेकिन इंद्रियों को जीतने की बात करने से पहले इंद्रियों के बारे में जान लेना जरुरी है ।
उद्बोधन है की जितेन्द्रिय बनो और जो जितेंद्रिय है उसकी हमेशा जीत या कहो जय जयकार होती है।
जितेंद्रिय कौन हो सकता है ? प्राय: सभी जानते हैं शास्त्रों के अनुसार मानव शरीर मे 23 तत्वों से बना है जो इस प्रकार है ,:

5 ज्ञानेंद्रियां- आंख, कान, नाक, जीभ और त्वचा;

5 पांच कर्मेंद्रियां- हाथ, पैर, मुंह, गुदा और लिंग और चार अंतःकरण- मन ,बुद्धि, चित्त और अहंकार।।

11 वा है मन

जिस मनुष्य ने इन इंद्रियों को वश में किया हो वह साधारण मनुष्य नही, बल्कि देवता लोग उसी को ब्राह्मण की संज्ञा देते हैं। हर मनुष्य भी अपने जीवन में ऐसे ही उच्च आदर्शों का पालन करते हुए सिर्फ एक ही शब्द जो उक्त उद्बोधन का प्रथम शब्द जितेन्द्रिय है का अनुकरण करे तो हर मनुष्य भी महापुरूष बन जाएगा। सभी को यह प्रेरणा लेनी चाहिए तभी संसार से छल कपट, धोखा बेइमानी पाप और अधर्म बिलकुल ही समाप्त हो पाएगा
इसके अतिरिक्त —
5 तन्मात्राएँ हैं – रूप, रस, गंध, शब्द और स्पर्श ये तन्मात्राएँ प्रत्येक इंद्रिय से संबंधित हैं।

3 गुण यानि मन ,बुद्धि और अहंकार जिन्हे सत्व, रज तथा तम इन्हें त्रिगुण के नाम से भी जाना जाता हैं। यही गुण व्यक्तित्व का निर्माण करते है। योग सूत्र 4 –13 में लिखा है: ते व्यक्तसूक्ष्मा गुणात्मान:।।13 ।।
इनमें काल के अनुसार बदलाव होता रहता है । जैसे भूतकाल व भविष्य काल में यह गुण अव्यक्त अर्थात अप्रत्यक्ष रूप में होते हैं । और वर्तमान काल में यह गुण व्यक्त अर्थात प्रत्यक्ष रूप में मौजूद होते हैं ।
प्रकृति से लेकर महतत्त्व, अहंकार, मन, दस इन्द्रियाँ, पाँच तन्मात्रा, पाँच महाभूत व मनुष्य की उत्पत्ति में भी इन तीनों गुणों का ही योगदान होता है । संसार के सभी पदार्थों की उत्पत्ति का आधार यही तीनों गुण होते हैं । इसीलिए इनको गुण स्वरूप कहकर सम्बोधित किया गया है । यह सब दृश्यमान संसार इन तीन गुणों की ही देन है ।

ये सभी 18 तत्व आत्मा के साथ हर जन्म में होते हैं,और मोक्ष के समय आत्मा से अलग हो जाते है। जन्म बंधन से मुक्ति के लिए इन पर नियंत्रण यानी कि जितेंद्रिय होना पड़ेगा।

दूसरे शब्दों में ये सभी तत्व हमारे शरीर में विद्यमान हैं। यहाँ शरीर से इस भौतिक शरीर से नही है जो हम देख रहे हैं, बल्कि शरीर भी तीन प्रकार के होते हैं। स्थूल शरीर, सूक्ष्म शरीर और कारण शरीर।
ऋग्वेद में एक मंत्र आता है —
अपश्यं गोपामनिपद्यमानमा च परा च पथिभिश्चरन्तम् |
स सध्रीची: स विषूचीर्वसान आ वरीवर्ति भुवनेष्वन्त: ||ऋग्वेद 1.164.31

इस मन्त्र में आत्मा को यहां गोपा कहा गया है | गोपा का अर्थ इन्द्रियों का स्वामी है अर्थात आत्मा इन्द्रियों से भिन्न है | इन्द्रियां आत्मा नहीं हैं, वरन् वह इनका स्वामी है | गोपा का अर्थ ‘इन्द्रियों का रक्षक’ भी होता है | इन्द्रियां तभी तक शरीर में कार्य करती हैं , जब तक आत्मा शरीर में रहता है |
ऋषि मुनि अपने योगाभ्यास द्वारा आत्म बल से इंद्रियों को वश में करके जितेन्द्रिय हो जाते है।
जीव के–
इच्छाद्वेषप्रयत्नसुखदुःखज्ञानान्यात्मनो लिंगमिति।। -न्याय सूत्र।
प्राणापाननिमेषोन्मेषजीवनमनोगतीन्द्रियान्तर्विकाराः सुखदुःखे इच्छाद्वेषो प्रयत्नाश्चात्मनो लिंगानि।। -वैशेषिक सूत्र।
न्याय दर्शन और वैशेषिक दर्शन दोनों के उपर्युक्त सूत्रों में मोटे तौर पर जीव के मुख्य 24 गुण बताये हैं :-जैसे इच्छा ,द्वेष,प्रयत्न, सुख, दुख ,ज्ञान, प्राण, अपान , निमेष (आंख को मीचना) उन्मेष ,(आंख को खोलना) मन (निश्चय स्मरण और अहंकार),गति ,(चलना)इंद्रियों को चलाना, अंतर विकार, क्षुधा, तृषा ,हर्ष ,शोक , संतानोत्पत्ति करना, उनका पालन करना, शिल्प विद्या,आदि होते हैं । लेकिन ऋषियों ने दो ही गुण जीव के मुख्य माने जो निम्न प्रकार हैं :– क्योंकि यह दो ही गुण जीवात्मा में रह जाते हैं। पहला ज्ञान ,दूसरा प्रयत्न।

तीन शरीर का विस्तार से वर्णन (ताकि कोई संशय न रहे)

जब हम “शरीर” की चर्चा करते हैं, तो यह मुख्य रूप से भौतिक और अध्यात्मिक दोनों दृष्टिकोणों से देखा जाता है। वेदों में, शरीर को जीवात्मा का वाहन माना जाता है, जो अनंत और अविनाशी है, जबकि शरीर नाशवान है।

सामवेद मैं कहा गया है “इन्द्र॑ त्रि॒धातु॑ शर॒णं त्रि॒वरू॑थं स्वस्ति॒मत्” मतलब शरीर को वात, पित और कफ तीन धातु वाला बताया गया है तथा स्थूल, सूक्षम और कारण तीन आवरणों वाला बताया गया है।

मानव जीवन मैं तीनो शरीर बहुत महत्वपूर्ण हैं, स्थूल शरीर को जो प्राण मतलब ऊर्जा मिलती है वो सूक्षम शरीर से मिलती है और सूक्षम शरीर को जो ऊर्जा मिलती है वो कारण शरीर से मिलती है। अब तीनो शरीर को अच्छे से समझते हैं ।
1). स्थूल शरीर (Gross Body):स्थूल शरीर वह भौतिक शरीर है जिसे हम अपनी आंखों से देख सकते हैं और स्पर्श कर सकते हैं। स्थूल शरीर का मुख्य कार्य जीवन के विविध क्रियाकलापों में भाग लेना है, जैसे खाना-पीना, सोना, चलना-फिरना और अन्य शारीरिक गतिविधियाँ।
स्थूल शरीर सप्तधातु से निर्मित होता है जिसमे आता है रस, रक्त, मांस, मेद, अस्थि, मज्जा और शुक्र। धातु का मतलब होता है जो शरीर को धारण करता है।
हम जो भोजन करते हैं उससे रस बनता है और उसी रस से रक्त बनता है, उस रस से मांस, मांस से मेद, मेद से अस्थि, अस्थि से मज्ज, मज्ज से शुक्र।
यह स्थूल शरीर पाँच महाभूतों से बना है – पृथ्वी, जल, वायु, आग और आकाश। ये पाँच महाभूत स्थूल शरीर की विविधता और संरचना को प्रकट करते हैं।
योगिक शरीर रचना विज्ञान के अनुसार, आपके शरीर का 72% भाग जल है, 12% भाग पृथ्वी है, 6% भाग वायु है, 4% भाग अग्नि है और शेष भाग आकाश है।
जब मौत होती है, स्थूल शरीर मृत हो जाता है। इसके बाद, यह शरीर प्रकृति में विघटित होकर मिल जाता है। स्थूल शरीर अन्ततः नश्वर है।
अध्यात्मिक दृष्टिकोण से, यह समझना महत्वपूर्ण है कि स्थूल शरीर केवल एक अस्थायी वाहन है, जबकि आत्मा शाश्वत है।

2).सूक्ष्म शरीर (Subtle Body): सूक्ष्म शरीर वह भाग है जो हमारे भौतिक शरीर के अदृश्य होता है और यह हमारी भावनाओं, विचारों, और प्राणिक ऊर्जा से संबंधित है। जबकि हमारा स्थूल शरीर (भौतिक शरीर) मृत्यु के बाद नष्ट हो जाता है, सूक्ष्म शरीर मृत्यु के बाद भी बना रहता है और पुनर्जन्म के संसार में चला जाता है।
सूक्ष्म शरीर का समझना अध्यात्मिक उन्नति में महत्वपूर्ण है, क्योंकि यह हमें जीवन की गहराईयों और माया की समझ में मदद करता है। यदि हम सूक्ष्म शरीर को सही तरीके से पहचानते हैं और इसे नियंत्रित करते हैं, तो हम अध्यात्मिक रूप से उन्नत हो सकते हैं।

मन (Mind): यह सूक्ष्म शरीर का एक मुख्य घटक है, जो ज्ञानेन्द्रियों और कर्मेन्द्रियों के साथ मिलकर व्यक्ति की अंतरात्मा के संवेदन और प्रतिक्रिया को संचालित करता है। मन व्यक्ति को अनुभव कराने वाला तत्व है। यह बाहरी जगत से जानकारी ग्रहण करता है और उसे समझता है। मन भावनाओं का स्थल है। खुशी, दुःख, भय, आशा, ईर्ष्या, मोह आदि सभी भावनाएँ मन में ही उत्पन्न होती हैं। मन हमें विभिन्न विकल्पों में से चयन करने में और हमे बाहरी जगत के साथ संचार साधने में मदद करता है और यह हमारी अंतरात्मा के संवाद का माध्यम भी है। मन पिछले अनुभवों को संजोता है और उन्हें पुनः प्रस्तुत करता है जब जरूरत होती है। मन का नियंत्रण और स्थिरता पाना योग की एक मुख्य धारा है। पतंजलि के योगसूत्र में कहा गया है, “योगश्चित्तवृत्तिनिरोधः”, जिसका अर्थ है कि योग मन की चंचलता को निरोधित करने की प्रक्रिया है। जब मन शांत होता है, तो व्यक्ति अपने अध्यात्मिक स्वरूप का अनुभव कर सकता है।

3) कारण शरीर (Causal Body) : यह व्यक्ति के तीन शरीरों (स्थूल, सूक्ष्म और कारण) में सबसे सूक्ष्म और अदृश्य शरीर माना जाता है, हमारे जीवन के अनुभवों के संस्कार और कर्मों का संचय है। कारण शरीर हमारे जीवनों के पूर्वजन्म के कर्मों और संस्कारों का संचय है। यह वह शरीर है जिसमें हमारे संस्कार और कर्म संचित होते हैं और जिसके कारण हम अगले जन्म में जन्म लेते हैं। कारण शरीर में जागरण, स्वप्न और सुषुप्ति अवस्था की अवबोधन रहती है।

कारण शरीर का सीधा संबंध मोक्ष या सम्पूर्ण मुक्ति से है। जब व्यक्ति अपने कारण शरीर के संस्कारों और कर्मों को पार कर लेता है, तब वह सम्पूर्ण रूप से मुक्त होता है और आत्मा ब्रह्म से मिल जाती है।
कारण शरीर में अविद्या विद्यमान रहती है। अविद्या का अर्थ है आत्मा की असली प्रकृति का अज्ञान। इसके चलते ही जीवात्मा संसार में जन्म लेता है और पुन: पुन: जन्म-मरण के चक्र में फंस जाता है। अविद्या की वजह से ही जीव अपने असली स्वरूप को भूल जाता है और शरीर, मन, और बुद्धि के साथ तादात्म्य (आधार-आधेय भाव) कर लेता है।परंतु जब जीवात्मा अपने असली स्वरूप, जो कि शुद्ध, चैतन्य, और अनंत है, को पहचानता है, तो अविद्या का नाश होता है। यह पहचान आत्म-ज्ञान के माध्यम से होती है। जब अविद्या का नाश होता है, तो कारण शरीर की प्रकृति भी समाप्त हो जाती है, और जीवात्मा को मोक्ष प्राप्त होता है।

स्वप्न अवस्था में, जब हम सपने देखते हैं, तो हमारा सूक्ष्म शरीर सक्रिय होता है, जबकि स्थूल शरीर विश्राम कर रहा होता है। लेकिन सुषुप्ति अवस्था, या गहरी नींद, में हमारे स्थूल और सूक्ष्म शरीर दोनों ही विश्राम में होते हैं। इस समय केवल कारण शरीर ही सक्रिय होता है। इसलिए, सुषुप्ति को कारण शरीर की अवस्था भी कहा जाता है।

संक्षेप में स्थूल शरीर तो वह है जो हम देख रहे हैं। इसके अंदर एक और शरीर जिसका दर्शन ज्ञानी एवं आप्त पुरूष किया करते हैं वह सूक्ष्म शरीर है ।तीसरे कारण शरीर की उत्पत्ति कैसे है क्या है? कारण शरीर इसके मूल में अज्ञात है अर्थात कारण शरीर अज्ञात है। मनुष्य का अज्ञात ही जन्म और मृत्यु का कारण होता है और मनुष्य के अज्ञात ने चेतन को भ्रमित करके जीव भाव प्राप्त किया है अन्यथा वह कुछ नही है। मात्र परमात्मा का अंश है यदि इसी का ज्ञान हो जाए तो जीव मुक्ति पा जाए। जन्ममरण के बंधन से छूट जाए।

जैन धर्म अनुसार छह द्रव्य होते है- जीव, अजीव, आकाश, धर्म, अधर्म और काल यह छह द्रव्य अनादि है इनका कोई बनाने वाला नही है। इन्ही छह द्रव्य के सद्भाव में जीव द्रव्य अपना परावर्तन करता है। चार्वाक के मत में पृथ्वी, जल, अग्नि और वायु ये ही तत्त्व माने गए हैं और इन्हीं से जगत् की उत्पत्ति कही गई है।

Comment: