जैन मत समीक्षा* भाग 8

images (10)

*
डॉ डी के गर्ग

निवेदन : ये लेखमाला 20 भाग में है। इसके लिए सत्यार्थ प्रकाश एवं अन्य वैदिक विद्वानों के द्वारा लिखे गए लेखो की मदद ली गयी है। कृपया अपने विचार बताये और शेयर भी करें।
भाग-8

जैन मत का अभिवादनजय जिनेन्द्र

जैन समुदाय का अभिवादन,ध्वज ,पूजा पाठ का तरीका ,विवाह संस्कार आदि सामान्य हिंदू समुदाय से भिन्न हैं।अभिवादन स्वरूप ये नमस्ते के स्थान पर जय जिनेंद्र कहते है।

विश्लेषण ; जय जिनेन्द्र का क्या भावार्थ है ,ये अभिवादन है या उद्बोधन और किसने सुरु किया ? समझना जरुरी है।
इस विषय में तीन प्रश्न उठते है – १ क्या अभिवादन स्वरूप जय जिनेंद्र कहना अभिवादन है?
दूसरा -जय जिनेन्द्र का भावार्थ क्या है ?
तीसरा -हमारा प्राचीन अभिवादन क्या है ?

जय जिनेन्द्र का अर्थ (जैन समुदाय के अनुसार)–जय जिनेन्द्र एक मिश्रित संस्कृत शब्द है जो जय + जिन + इंद्र शब्दों से बना है। यहां ‘जय’ का प्रयोग प्रशंसा या सम्मान के लिए किया जाता है, ‘जिना’ का तात्पर्य उस शुद्ध आत्मा से है जिसने सभी आंतरिक जुनूनों पर विजय प्राप्त कर ली है और जिसके पास केवलज्ञान (शुद्ध अनंत ज्ञान) है और ‘इंद्र’ शब्द का अर्थ है प्रमुख या भगवान।’
यानि कि जय जिनेन्द्र का अर्थ है जिसने पांच इंद्रियों के सभी विषयों पर विजय प्राप्त कर ली है उनकी जय हो। ऐसे भगवान को ही जिनेन्द्र कहते है। इससे स्पष्ट है की जय जिनेन्द्र एक प्रकार से सम्मान सूचक शब्द है उनके लिए जिन्होंने अपनी इंद्रियों पर नियंत्रण कर लिया है।
हमारे देश में सेकड़ो शब्द अभिवादन के लिए प्रयोग होते है और कुछ अभिवादन जाती सूचक और पथ सूचक भी है जैसे जय गुरु देव, हरे कृष्णा , सत श्री अकाल ,राधे राधे आदि।

ये शब्द वास्तव में अभिवादन नहीं है , राम राम ,सीता राम भी अभिवादन नहीं है।उपरोक्त प्रकार के सभी उद्बोधनों का एक ही भावार्थ है की एक व्यक्ति दूसरे को ये अनुशंसा कर रहा है की आप ,राम के गुणों का सम्मान करते हुए राम राम बनो ,कृष्ण कृष्ण बनो और उनके आदर्शो पर चलो उन्हें ग्रहण करो, जय जिनेन्द्र का मतलब है की आप जितेंद्रिय बनो। स्पष्ट है कि जय जिनेन्द्र अभिवादन नहीं है।

२)हमारा प्राचीन और सर्वमान्य अभिवादन क्या है ? नमस्ते है —
नमस्ते वेदोक्त शब्द है | इस शब्द का प्रयोग वेद में तो मिलता ही है ओर इतिहास में भी। इतिहास में भी हम देखते हैं कि जब भी कहीं अभिवादन का प्रश्न आता है तो सब एक दूसरे को नमस्ते ही करते व कहते हुए मिलते हैं | छोटे – बड़े व बराबर की आयु वाले सभी एक दूसरे को अभिवादन के रूप में नमस्ते ही किया करते थे | अन्य किसी शब्द का प्रयोग नहीं करते थे |
नमस्ते केवल बोलकर ही नहीं की जाती अपितु एक विशेष विधि से , विशेष मुद्रा से की जाती है | यह मुद्रा ही इस के भाव को स्पष्ट करती है | जब हम अपने दोनों हाथ जोड़कर अपनी छाती पर रखते हुए अपने सिर को झुका लेते हैं तथा मुख से उच्चारण करते है नमस्ते जी , तो मन आगंतुक के सम्मुख नम्रता से भर जाता है | उसके प्रति अपार आदर का प्रकट करता है | मन में इसका भाव आता है मैं आप का मान्या करता हूँ | अर्थात मैं अपने बाहू बल से , अपने हृदय से, अपनी बुद्धि से तथा अपने सब अंगों से आप के सम्मुख नत करते हुए आप का आदर करता हूँ, आप का अभिवादन करता हूँ |जब इस प्रकार से आगंतुक का अभिवादन किया जाता है तो अभिवादन करने वाले को तो अपार आनंद की अनुभूति होती ही है |
“नमस्ते” शब्द संस्कृत भाषा का है। इसमें दो पद हैं – नम:+ते । इसका अर्थ है कि ‘आपका मान करता हूँ।’ संस्कृत व्याकरण के नियमानुसार “नम:” पद अव्यय (विकाररहित) है। इसके रूप में कोई विकार=परिवर्तन नहीं होता, लिङ्ग और विभक्ति का इस पर कुछ प्रभाव नहीं। नमस्ते का साधारण अर्थ सत्कार=मान होता है। आदरसूचक शब्दों में “नमस्ते” शब्द का प्रयोग ही उचित तथा उत्तम है।
परिणाम स्वरूप आजकल नित नए अभिवादन चलन में आ रहे हैं जैसे जय भीम,जय गुरुदेव, सत सिरी अकाल आदि।ये सभी व्यक्तिवाचक,वर्गवाचक, क्षेत्रीय, जातिवाचक अभिवादन है जिनका प्रयोग सांप्रदायिक व संकीर्णता युक्त है।
हम अपने विचारों को दृढ़ बनायें और अभिवादनों को तर्क की कसौटी पर कसें जो अभिवादन खरा उतरे उसी को अपनाएं क्योंकि अधोगामी विचार मन को चंचल, क्षुब्ध, संकीर्ण व कुण्ठित बनाते हैं।
हमें चाहिए कि हम अपने गौरवमय भारत की श्रेष्ठता वाला अभिवादन नमस्ते ही अपनाएं। जिससे आत्मवत सर्वभूतेषु व वसुधैव कुटुंबकम् के महान आदर्श पर कीचड न पड़े और अपने श्रेष्ठ पूर्वजों पर ईश्वरत्व न थोपकर बल्कि उनके हम सच्चे अनुयाई बन सकें।

प्रमाण: वेदादि सत्य शास्त्रों और आर्य इतिहास (रामायण, महाभारत आदि) में ‘नमस्ते’ शब्द का ही प्रयोग सर्वत्र पाया जाता है। पुराणों आदि में भी नमस्ते शब्द का ही प्रयोग पाया जाता है। सब शास्त्रों में ईश्वरोक्त होने के कारण वेद का ही परम प्रमाण है, अत: हम परम प्रमाण वेद से ही मन्त्रांश नीचे देते है :-

नमस्ते—

परमेश्वर के लिए
1. दिव्य देव नमस्ते अस्तु अथर्व० 2/2/१ हे प्रकाशस्वरूप देव प्रभो! आपको नमस्ते होवे।

  1. तस्मै ज्येष्ठाय ब्रह्मणे नम: ॥ – अथर्व० 10/7/३२ –सृष्टिपालक महाप्रभु ब्रह्म परमेश्वर के लिए हम नमन=भक्ति करते है।

  2. नमस्ते भगवन्नस्तु ॥ – यजु० ३६/२१– हे ऐश्वर्यसम्पन्न ईश्वर ! आपको हमारा नमस्ते होवे।

बड़े के लिए —
1. नमस्ते राजन ॥ – अथर्व० 1/10/२–हे राष्ट्रपते ! आपको हम नमस्ते करते है।
2. तस्मै यमाय नमो अस्तु मृत्यवे ॥ – अथर्व० 6/28/3

पापियों के लिए मृत्युस्वरूप दण्डदाता न्यायाधीश के लिए नमस्ते हो।
3. नमस्ते अधिवाकाय ॥ – अथर्व० 6/13/२– उपदेशक और अध्यापक के लिए नमस्ते हो।
देवी (स्त्री) के लिए

  1. नमोsस्तु देवी ॥ – अथर्व० 1/13/४–हे देवी ! माननीया महनीया माता आदि देवी ! तेरे लिए नमस्ते हो।
  2. नमो नमस्कृताभ्य: ॥ – अथर्व० 11/2/३१–पूज्य देवियों के लिए नमस्ते।

बड़े, छोटे बराबर सब को

  1. नमो महदभयो नमो अर्भकेभ्यो नमो युवभ्य: ॥ – ऋग० १/२७/१३–बड़ों बच्चों जवानों को नमस्ते ।

  2. नमो हृस्वाय नमो बृहते वर्षीयसे च नम: ॥ – यजु० १६/३०–छोटे, बड़े और वृद्ध को नमस्ते ।

  3. नमो ज्येष्ठाय च कनिष्ठाय च नम: ॥ – यजु० १६/३२–सबसे बड़े और सबसे छोटे के लिए नमस्ते।
    ईश्वर को नमस्ते -श्लोक है, स्व. पं. भीमसेन शर्मा द्वारा रचित।
    नमस्ते सते ते जगत्कारणाय,
    नमस्ते चिते सर्वलोकाश्रयाय।
    नमोऽद्वैततत्त्वाय मुक्तिप्रदाय,
    नमो ब्रह्मणे व्यापिने शाश्वताय ।।१।।
    सच्चिदानंद ईश्वर के सत् और चित् रूप को याद करते हुए कहते हैं कि –
    नमन है उस सत्यस्वरूप ईश्वर को जो जगत् का निमित्त कारण है।
    नमन है उस चेतनस्वरूप ईश्वर को, सारे लोक जिसके आश्रय में स्थित हैं।
    नमन है उस अद्वैत तत्व को, जो मुक्ति का प्रदाता है।
    नमन है उस ब्रह्म, सबसे बड़ी सत्ता को, जिसने सारा जगत व्याप रखा है और जो शाश्वत, सदा सर्व काल में रहने वाला है।
    वेद मंत्रो में ईश्वर को विभिन्न नामो से अभिवादन —
    नमः शम्भवाय च मयोभवाय च नमः शंकराय च ।
    मयस्कराय च नमः शिवाय च शिवतराय च ।। यजुर्वेद 16.4॥
    जो सुखस्वरूप, कल्याण कर्ता, मोक्षस्वरूप, धर्मयुक्त कामों का ही करने वाला, सुख देने वाला और धर्मयुक्त कामों में युक्त करने वाला, मोक्ष का सुख देने वाला है, उस को हमारा बारम्बार नमन् हो ।।

नमस्ते हमारा प्राचीनतम अभिवादन है जो कि अपने से बड़ो को किया जाना चाहिए ,वे इसके बदले में आशीर्वाद देते है और इसका लाभ वैदिक साहित्य में बताया गया है। मनुस्मृति में लिखा है —
अभिवादनशीलस्य नित्यं वृद्धोपसेविनः।
चत्वारि तस्य वर्धन्ते आयुर्विद्या यशो बलम।।
हिंदी अर्थ – जो व्यक्ति सुशील और विनम्र होते हैं, बड़ों का अभिवादन व सम्मान करने वाले होते हैं तथा अपने बुजुर्गों की सेवा करने वाले होते हैं। उनकी आयु, विद्या, कीर्ति और बल इन चारों में वृद्धि होती है।

Comment: