डॉ डी के गर्ग –भाग 5
निवेदन : ये लेखमाला 20 भाग में है। इसके लिए सत्यार्थ प्रकाश एवं अन्य वैदिक विद्वानों के द्वारा लिखे गए लेखो की मदद ली गयी है। कृपय अपने विचार बताये और उत्साह वर्धन के लिए शेयर भी करें।
जैन समाज का अहिंसा के नाम पर त्याग या केवल दिखावा
जैन धर्म में अहिंसा के नाम पर किया जाने वाला त्याग दिखावा ज्यादा प्रतीत होता है क्योंकि
1.शाकाहार के प्रचार प्रसार के लिएं इनका योगदान लगभग शुन्य है।
2.मेरे जैन मित्र ने बताया की मांस खाना पाप है लेकिन इसका व्यवसाय करना पाप नही है इसलिए कुछ मांस का व्यापार करने वालें लोगो ने जैन भीं है।
3.बीमार पशुयो की रक्षा के लिए कितने अस्पताल बनाते है,कितनी गौ शाला जैन समाज की है,कोई उत्तर नही।
4.इनका ध्यान सिर्फ मुनि जी के दर्शन और जैन मंदिर बनाने में है।
5.अहिंसा के लिए त्याग जैन साधुओ तक सीमित है,बाकी जैन उनके दर्शन करने ,चंदा देने तक सीमिय है।
6 हिंसा से बचने के लिए जो उपाय करते है वो अवैज्ञानिक है ,आयुर्वेद के विपरीत है दिखावा ज्यादा है
5 मुख पर पट्टी बांधना— जैन मत के अनुसार ‘वायुकाय’ अर्थात् जो वायु में सूक्ष्म शरीरवाले जीव रहते हैं, वे मुख के बाफ की उष्णता से मरते हैं और उसका पाप मुख पर पट्टी न बांधनेवाले पर होता है।यदि जीव नहीं मरता तब भी मुखके उष्ण वायु से उनको पीड़ा पहुँचती है, उस पीड़ा पहुँचानेवाले को पाप होता है, इसलिये जैन लोग मुख पर पट्टी बाँधना अच्छा समझते हैं।
विश्लेषण —सबसे पहला प्रश्न यही होगा को मुंह पर पट्टी केवल जैन मुनि ही क्यों बांधते है? जिनकी संख्या एक दो हजार ही होगी । बाकी सभी जैन मत वाले जो मुंह पर पट्टी नहीं बांधते ,यानी की वे पापी हुए?
मुँह पर सफ़ेद कपड़े को “मुँहपत्ती” कहते हैं । यह बात विद्या और प्रत्यक्षादि प्रमाणादि की रीति से अयुक्त है। क्योंकि जीव अजर-अमर हैं, फिर वे मुख की बाफ से कभी नहीं मर सकते। इनको जैन भी अजर-अमर मानते है ।यदि मनुष्य के मुख की बाफ से जीव की मृत्यु होती तो फिर स्वास तो पशु पक्षी भी लेते और छोड़ते है। इसका मतलब पूरी दुनिया पापी हो गई और ऐसा पाप कर्म करवाने के लिए ईश्वर दोषी है, जिसने स्वास छोड़ने के लिए नासिका बनायी है। ध्यान रखो ,ईश्वर की महानता को जिसने ऑक्सीज़न युक्त स्वास लेने के लिए नासिका बनायीं है और गन्दी स्वास स्वतः वायु मंडल में समाप्त होती रहती है जो फिर से स्वास के माध्यम से वापिस नहीं आती।
वैज्ञानिक दृष्टि से विचार करें तो कपड़ा बाँधने से जीवों को अधिक दुःख पहुँचता है। जब कोई मुख पर कपड़ा बाँधे, तो उसका मुख का वायु रुक के, नीचे वा पार्श्व और मौन समय में नासिका द्वारा इकट्ठा होकर वेग से निकलता है, उससे उष्णता अधिक होकर जीवों को विशेष पीड़ा तुम्हारे मताऽनुसार पहुँचती होगी। उदाहरण के लिए जैसे घर वा कोठरी के सब दरवाजे बंध किये वा पड़दे डाले जायें तो उसमें उष्णता विशेष होती है, खुला रखने से उतनी नहीं होती, वैसे मुख पर कपड़ा बाँधने से उष्णता अधिक होती है और खुला रखने से न्यून। वैसे ही ये जैन अपने मतानुसार जीवों को अधिक दुःखदायक है। और जब मुख बंध किया जाता है, तब नासिका के छिद्रों से वायु रुक, इकट्ठा होकर वेग से निकलता हुआ, जीवों को अधिक धक्का और पीड़ा करता होगा।
जैसे कोई मनुष्य अग्नि को मुख से फूँकता और कोई नली से, तो मुख का वायु फैलने से कम बल और नली का वायु इकट्ठा होने से अधिक बल से अग्नि में लगता है, वैसे ही मुख पर पट्टी बाँधकर वायु को रोकने से नासिका द्वारा अति वेग से निकलकर जीवों को अधिक दुःख देता है। मुख पट्टी बाँधने से दुर्गन्ध भी अधिक बढ़ता है, क्योंकि शरीर के भीतर दुर्गन्ध भरा है। शरीर से जितना वायु निकलता है, वह दुर्गन्धयुक्त प्रत्यक्ष है। जो वह रोका जाय तो दुर्गन्ध भी अधिक बढ़ जाय, जैसा कि बंध ‘जाजरूर’ अधिक दुर्गन्धयुक्त और खुला हुआ न्यून दुर्गन्धयुक्त होता है, वैसे ही मुख-पट्टी बाँधने, दन्तधावन, मुखप्रक्षालन, स्नान न करने तथा अच्छे प्रकार वस्त्र न धोने से तुम्हारे शरीरों से अधिक दुर्गन्ध उत्पन्न होकर संसार में बहुत रोग करके जीवों को जितनी पीड़ा पहुँचाते हैं,उतना पाप तुमको अधिक होता है।
जैसे मेले आदि में अधिक दुर्गन्ध होने से विसूचिका अर्थात् हैजा आदि बहुत प्रकार के रोग उत्पन्न होकर जीवों को दुःखदायक होते हैं, और न्यून दुर्गन्ध होने से रोग भी न्यून होकर जीवों को बहुत दुःख नहीं पहुँचता। इससे तुम अधिक दुर्गन्ध बढ़ाने में अधिक अपराधी; और जो मुख-पट्टी नहीं बाँधते, दन्तधावन, मुखप्रक्षालन, स्नान करके स्थान-वस्त्रों को शुद्ध रखते हैं, वे तुमसे बहुत अच्छे हैं।
इस से यह सिद्ध हुआ कि अधिक दुर्गन्ध बढ़ाने वाला अधिक अपराधी होता है । जैसा कि जैन लोग दन्तधावन और स्नानादि कम करने से दुर्गन्ध बढ़ाते है । जिस से रोगोत्पत्ति कर बुद्धि और पुरुषार्थ को नष्ट करके धर्मानुष्ठान के बाधक होते हो ।जब दुर्गन्धयुक्त पुरुष की बुद्धि अति मन्द होती है तो उस के संगियों की क्यों नहीं होती होगी ।
(देशहितैषी’ खण्ड १, संख्या २, पृष्ठ ७ से १३, ज्येष्ठ मास, संवत् १९३९)
अन्य तर्क :: जब कोई मनुष्य किसी अन्य मनुष्य कान में वा निकट होकर बात कहता है तब मुख पर पल्ला वा हाथ लगाता है, इसलिए कि मुख से थूक उड़कर वा दुर्गन्ध उसको न लगे और जब पुस्तक बाँचता है, तब अवश्य थूक उड़कर उस पर गिरने से उच्छिष्ट होकर वह बिगड़ जाता है, इसलिए मुख-पट्टी बाँधना अच्छा है।
उत्तर—इससे यह सिद्ध हुआ कि जीवरक्षार्थ मुखपट्टी बाँधना व्यर्थ है। और जब कोई बड़े मनुष्य से बात करता है, तब मुख पर हाथ वा पल्ला इसलिए रखता है कि उस गुप्त बात को दूसरा कोई न सुन लेवे। क्योंकि जब कोई प्रसिद्ध बात करता है, तब कोई भी मुख पर हाथ वा पल्ला नहीं धरता। इससे क्या विदित होता है कि गुप्त बात के लिए यह बात है। दन्तधावनादि न करने से तुम्हारे मुखादि अवयवों से अत्यन्त दुर्गन्ध निकलता है और जब तुम किसी के पास वा कोई तुम्हारे पास बैठता होगा, तो विना दुर्गन्ध के अन्य क्या आता होगा, इत्यादि।
मुख के आड़ा हाथ वा पल्ला देने के प्रयोजन अन्य बहुत हैं। जैसे बहुत मनुष्यों के सामने गुप्त बात करने में जो हाथ वा पल्ला न लगाया जाय तो दूसरों की ओर वायु के फैलने से बात भी फैल जाय। जब वे दोनों एकान्त में बात करते हैं, तब मुख पर हाथ वा पल्ला इसलिए नहीं लगाते कि यहाँ तीसरा कोई सुननेवाला नहीं।
वैशाख वा ज्येष्ठ महीने में सूर्य्य की महा उष्णता से वायुकाय के जीवों में से मरे विना एक भी न बच सके। सो उस उष्णता से भी वे जीव नहीं मर सकते, इसलिये यह ये सिद्धान्त झूठा है।
६ जैन मत के अनुसार जो लोग विना उष्ण किए कच्चा पानी पीते है , वह बड़ा पाप करते है।
यह भ्रमजाल ही है। क्योंकि जब पानी को उष्ण करते हो, तब पानी के जीव सब मरते होंगे? , क्योंकि जब ठंढा पानी पियेंगे, तब उदर में जाने से किञ्चित् उष्णता पाकर श्वास के साथ वे जीव बाहर निकल जायेंगे। जलकाय जीवों को सुख-दुःख प्राप्त पूर्वोक्त रीति से नहीं हो सकता, पुनः इसमें पाप किसी को नहीं होगा।
•सर्वथा सब जीवों पर दया करना भी दुःख का कारण होता है। क्योंकि जैन मतानुसार छमा करना परम धर्म है तो फिर चोर-डाकुओं को कोई भी दण्ड न देवे , छमा वाणी का गान करते रहे तो कितना बड़ा पाप खड़ा हो जाय?
•कितने जैनी लोग दुकान करते, उन व्यवहारों में झूठ बोलते, पराया धन मारते और गरीबों को छलने आदि कुकर्म करते हैं, उनके निवारण में विशेष उपदेश क्यों नहीं करते और मुखपट्टी बाँधने आदि ढोंग में क्यों रहते हो?
•जैन उत्सवों के दौरान हाथी, घोड़े, बैल, ऊँट आदि की सवारी करना,रिक्शा में बैठना , मनुष्यों से मजूरी कराने जैसे कार्यों को जैनी लोग पाप की श्रेणी ने क्यों नहीं गिनते?
जल छान के पीना, और सूक्ष्म जीवों पर नाममात्र दया करना, रात्रि को भोजन न करना ये तीन बातें अच्छी हैं। बाकी जितना इनका कथन है, सब असम्भवग्रस्त है।
7 कुछ खाद्य पदार्थों से परहेज़ करना : जैन अपने सख्त आहार प्रतिबंधों के लिए जाने जाते हैं, खासकर प्याज, लहसुन, आलू और गाजर जैसी जड़ वाली सब्जियों के सेवन के मामले में। यह विश्वास इस विचार पर आधारित है कि इन सब्जियों को उखाड़ने से मिट्टी में रहने वाले छोटे जीवों को नुकसान हो सकता है, जो अहिंसा के सिद्धांत के खिलाफ है।
ये एक प्रकार का अंधविस्वास है। क्या बाकि फल ,सब्जियों में कीट नाशक का प्रयोग नहीं होता ? जो जैन समाज के लोग शराब आदि का सेवन करते है , का दूध ,घी आदि का सेवन करते है फिर तो सभी पापी हुए। जैन समाज के व्यापारी मुनाफाखोरी , सूदखोरी , रिश्वत खोरी ,मिलावट ,मांसाहार की बिक्री आदि के विरुद्ध कितने है ? ये इसका सिर्फ नाम मात्र के लिए विरोध करते है है। ,
8 ज्योतिष और राशिफल : कुछ जैन ज्योतिष में विश्वास करते हैं और शादी, व्यापार या यात्रा जैसे महत्वपूर्ण आयोजनों के लिए शुभ समय निर्धारित करने के लिए ज्योतिषियों से सलाह लेते हैं। वे ज्योतिषीय सलाह के आधार पर कुछ अनुष्ठान भी कर सकते हैं या विशिष्ट रत्न पहन सकते हैं।
9 मूर्तियों और देवताओं की पूजा करना : जबकि जैन धर्म आम तौर पर अनीश्वरवादी है और व्यक्तिगत आध्यात्मिक विकास और मुक्ति पर ध्यान केंद्रित करता है, कुछ जैन कुछ अनुष्ठानों का पालन करते हैं या तीर्थंकरों (आध्यात्मिक शिक्षकों) की मूर्तियों की पूजा करते हैं और सुरक्षा और समृद्धि के लिए उनका आशीर्वाद प्राप्त करते हैं।
10 अंक ज्योतिष : कुछ जैन लोग संख्याओं के महत्व में विश्वास करते हैं और विभिन्न प्रयोजनों के लिए भाग्यशाली संख्या निर्धारित करने के लिए अंकशास्त्रियों से परामर्श करते हैं, जैसे कि नवजात शिशु का नामकरण, व्यवसाय का नाम चुनना, या महत्वपूर्ण तिथियों पर निर्णय लेना।
11 फेंग शुई और वास्तु शास्त्र : कुछ जैन लोग अपने घरों या कार्यस्थलों में सद्भाव और सकारात्मक ऊर्जा प्रवाह सुनिश्चित करने के लिए फेंग शुई या वास्तु शास्त्र (पारंपरिक भारतीय वास्तुकला) के सिद्धांतों का पालन करते हैं।
१२ नग्न रहना : दिगंबर जैन मुनियों का मानना है कि उनके मन-जीवन में खोट नहीं। दिगबंर मुनि चारों दिशाओं के कपड़ों के रूप में पहन लेते हैं. उनका कहना है दुनिया में नग्नता से बेहतर कोई पोशाक नहीं है. वस्त्र तो विकारों को ढकने के लिए होते है. जो विकारों से परे है, ऐसे शिशु और मुनि को वस्त्रों की क्या जरूरत है। दिगंबर विश्वास के अनुसार पुरुष हो या स्त्री कपड़ों के साथ मोक्ष संभव नहीं. नग्नता मोक्ष के लिए एक अहम शर्त है. चूंकि औरतें कपड़ों के बिना नहीं रह सकतीं इसलिए उनके लिए मोक्ष संभव नहीं।
विश्लेषण इसका मतलब तो ये भी स्वीकार करें की भी जैन वस्त्र धारण करता है ,नग्न नहीं रहता ,वह मोक्ष्य नहीं जा सकता ,केवल १०००-१२०० साधु जो वस्त्र नहीं पहनते ,वे हो मोक्ष्य जायेंगे ।
वस्त्र कैसे ,किया प्रकार के पहने ये मानव सभ्यता के विकास के साथ आगे बढ़ता रहा है ।पहले मृग छल के वस्त्र,फिर पेड़ पत्तो से बने, सूती वस्त्र आदि आए।
दिशायो को वस्त्र कहना बुद्धिमता नही।
सुना है कुछ साधू स्वयं को जितेंद्रिय सिद्ध करने किए केले की जड़ का रस पीकर नपुंसक बनते हैं,और जितेंद्रिय होने का नाटक करते हैं।
सारांश::एक हण्डे में चुड़ते चावलों में से एक चावल की परीक्षा से कच्चे वा पक्के हैं, सब चावल विदित हो जाते हैं। ऐसे ही इस थोड़े से लेख से सज्जन लोग बहुत सी बातें समझ लेंगे। बुद्धिमानों के सामने बहुत लिखना आवश्यक नहीं क्योंकि बुद्धिमान् लोग स्वत जान ही लेते हैं।
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