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भारतीय संस्कृति

जैन मत समीक्षा* भाग 4

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Dr DK Garg,भाग 4

निवेदन; ये लेखमाला 21 भाग में है जिसको लिखने के लिए सत्यार्थ प्रकाश,वैदिक विद्वानों के लेख और जैन साहित्य का सहारा लिया है।इसका उद्देश्य किसी की भावनाओ को ठेस पहुंचाना नहीं,अपितु जैन मत के विषय में जानकारी देना है ।कृपया अपने विचार बताए और शेयर करे।

जैन साधुयो का त्याग और अहिंसा के नाम पर दिखावा

1.जैन साधुओ द्वारा अपने बाल उखाड़ना — जैन साधु अपने केश कटवाने के बजाय उनको उखाड़ते है। वे ब्लेड या चाकू का प्रयोग नहीं करते।जैन मुनि एक केशलोंच के बाद कम से कम 2 महीने और ज्‍यादा से ज्‍यादा 4 महीने में दूसरा केशलोंच करते हैं. जैन मुनि केशलोंच वाले दिन उपवास रखते हैं. उनका मानना है कि केशों के लुंचन से बालों में होने वाले जीवों को हुए नुकसान और उनके कष्‍ट का प्रायश्चित हो सके. इसके पीछे उनके कुछ तर्क है —
१ ताकि उनकी खोपड़ी खुली रहे और जूँ न रहे ।
2 जैन मुनि शरीर की सुंदरता को नष्‍ट करते है
3अहिंसा धर्म का पालन करने के लिए केशलोंच करते हैं.
4 वे बालों को उखाड़ते समय यह भावना रखते हैं कि इस कष्‍ट के साथ उनके पाप कर्म भी निकल रहे हैं. इससे संयम की परीक्षा और पालन भी होता है.

वैसे तो आजकल, दीक्षा से पहले अक्सर सिर मुंडा दिया जाता है, जिससे सिर के मुकुट पर बालों का एक छोटा गुच्छा रह जाता है, जिसे दीक्षा समारोह ( दीक्षा ) के दौरान निकाला जाता है। दिगंबर समुदाय में, यह सार्वजनिक समारोह होता है जिसे आम लोग देखते हैं।
विश्लेषण : आज तक ये स्पष्ट नहीं हुआ है की ये केश उखाड़ने की प्रथा कब और किसने सुरु की। अहिंसा के नाम पैर ये सिर्फ एक दिखावा ज्यादा लगता है।साधु के केश उखड़ते समय भक्तो की भीड़ जय जय कार करती है। ये एक तरह से तामसिक आनंद का प्रतीक है।प्रश्न है की जैन साधु सन्यासी को केश कटवाते ही क्यों है ? सिख भी केश रखते है , हिन्दू साधु आदि भी केश रखते है।
इसका मतलब जैन साधु ये कहना चाहते है की उनको छोड़कर बाकी सभी हिंसक है ? यदि हां तो आज तक उनके अनुयाई जो सकड़ो वर्षो के अहिंसा का पाठ सीख रहे है , क्यो नही इस विधि को अपनाते?और केश तो पूरे शरीर पर होते है ,और नासिका के अंदर भी। उनको क्यो नही उखाड़ते ?ज्यादा लिखने आवश्यक नहीं ,पाठक स्वयं विचार करें की ये कौन सा त्याग ,अहिंसा और प्रायश्चित है ? जबरन शरीर को कष्ट देना कोई प्रायश्चित नहीं । इससे पाप कर्मों का प्रायश्चित नहीं होता।
यदि इस प्रकार से शरीर को कष्ट देने और कष्ट सहने का प्रदर्शन हैं तो वास्तविक श्रम करना चाहिए।
शरीर को कष्ट तो मजदूर देता है जो सर्दी , गर्मी भूलकर पूरे दिन सिर पर मिटटी ,रोड़ी लेकर लेकर भवन निर्माण करता है ,पत्थर तोड़कर पहाड़ से रास्ता बनाता है ।
विज्ञान कहता है कि ईश्वर ने जीव के शरीर पर बाल किसी महत्वपूर्ण उद्देश्य के लिए दिए हैं।
मनुष्यों में, विशिष्ट बाल जैसे आंखों की पलकें और नासिका और बाहरी कान के अंदर के बाल पर्यावरण से कुछ सुरक्षा प्रदान करते हैं। भौहें पसीने को आँखों में जाने से रोकती हैं। सिर के बाल मस्तिष्क के तापमान को स्थिर करने में सहायता कर सकते हैं।
इसे प्रकृति के उपहार के रूप में देखा जाना चाहिए
हमारे शरीर पर बाल कई कार्य करते हैं। यह हमें तत्वों से बचाने, हमारे शरीर के तापमान को नियंत्रित करने और संवेदनाओं को समझने में मदद करता है।
चूँकि मनुष्य दो पैरों पर सीधा चलते हैं, इसलिए उनके सिर के ऊपरी हिस्से को अभी भी सूर्य से सुरक्षा की आवश्यकता होती है। यही कारण है कि लोगों के शरीर के बाकी हिस्सों की तुलना में उनके सिर पर अधिक बाल होते हैं।

2.जैन मुनि दांत साफ़ नहीं करते
जैन मुनि तरुण सागर जी महाराज के अनुसार दिगंबर धारण करने के बाद मुनि उसी अवस्था में रहता है जिस अवस्था में वो दुनिया में आया था। ब्रश और स्नान न करना इसी अवस्था का एक हिस्सा है। उनके अनुसार दांत साफ़ करना हिंसा है क्योकि जबकि, ब्रश करने पर मुंह के बैक्टीरिया मर जाते हैं। इसी कारण इस तरह के नियम का पालन किया जाता है।

विश्लेषण: पुराने समय में जब लोग दातुन का उपयोग करते थे तो उनके दांत न केवल चमकते थे बल्कि मुंह से बदबू भी नहीं आती थी। दांतों को ब्रश करने की इस प्राचीन और आयुर्वेदिक पद्धति इसका महत्व बताया गया है। मुंह में निरंतर लार का निर्माण होता रहता है, जो कई प्रकार के बैक्टीरिया को बढ़ावा देने का अनुकूल माहौल बना देती है। उचित मौखिक स्वच्छता न रखने की स्थिति में बैक्टीरिया के तेजी से बढ़ने और कई प्रकार के मौखिक संक्रमण का कारण बनने का जोखिम हो सकता है। खाना खाने के बाद भोजन के कुछ अंश दांतों और मसूड़ों के बीच फंस जाते हैं, अगर इन्हें अच्छे तरीके से साफ न किया जाए तो इसके कारण दांतों की सड़न और मसूड़ों की बीमारी होने का खतरा बढ़ जाता है।गंभीर स्थितयों में दांत निकालने तक की नौबत आ सकती है। यही कारण है कि सभी लोगों के लिए नियमित रूप से मुंह की सफाई करते रहना आवश्यक है।

3.जैन साधु स्नान नहीं करते,मुंह भी नहीं साफ करते

तर्क: ये मुनि मानते है की नहाने से भी हिंसा होती है। इनका कहना है कि हमारे शरीर पर अनगिनत सूक्ष्म जीव रहते हैं। हमारे स्नान करने से वह मर जाते हैं। अब चूंकि जैन धर्म में हिंसा का कोई स्थान नहीं है, इसलिए वह स्नान नहीं करते हैं।
लेकिन स्नान के बजाय गीले कपड़े से शरीर को साफ कर लेते है।
जैन धर्म में साधु या साधवी इस विचारधारा पर चलते हैं कि शारीरिक शुद्धता मायने नहीं रखती है। आंतरिक शुद्धता रखना ज्यादा जरूरी है यानी कि मन में शुद्ध और सात्विक विचार होना ही पूरी देह को शुद्ध बना देता है फिर स्नान की आवश्यकता नहीं।

संत को नहाने की अनुमति नहीं है। क्योंकि ऐसा करने से उसका ध्यान नहाने या शरीर पर ही लगा रहेगा । इसी कारण से जैन धर्म के साधु-साधवी स्नान नहीं करते हैं।

विश्लेषण; लो भाई ,नहाने से भी हिंसा होने लगी और पाप लगने लगा। जब नहाने से शरीर पर लगे कीट मरने का डर है तो फिर गीले तौलिए से शरीर को साफ क्यो करते हो?
वैसे तो जैन मुनि ईश्वर का कोई ध्यान नही लगाए ,हमेशा दर्शन करने वालो भक्तो से घिरे रहते है ,फिर कहते है की नहाने के बजाय ध्यान लगाने में समय लगाना चाहिए,फिर जो तोलिए से शरीर साफ करते हो वो समय क्या है?
नहाने में कितना समय लगेगा?
ये सभी इनके कुतर्क है।
आयुर्वेद क्या कहता है?

हमारी त्वचा पर कई तरह के बैक्टीरिया रहते हैं. नहाने से ही ये खतरनाक बैक्टीरिया आपके शरीर से खत्म हो जाते है. इसीलिए नहाना आपके शरीर के लिए जरूरी है।

बॉडी को हेल्दी और फ्रेश रखने के लिए नहाना (Bath)काफी जरूरी माना जाता है. नहाने से ना केवल दिमाग को रिलैक्स मिलता है बल्कि इससे शरीर की थकान भी दूर होती है और हाइजीन की नजर से ये बेहद जरूरी भी है. कुछ देशों में लोग सुबह नहाते हैं और कुछ देशों में लोग रात को नहाकर सोते हैं.

1 नहाने से कम होता है ह्रदय रोग का खतरा .
2 नियमित स्‍नान से श्वसन तंत्र मज़बूत होता है .
3 मस्तिष्क और तंत्रिका तंत्र में सुधार भी होता है .
4 नहाने से मांसपेशियों, जोड़ों और हड्डियों को फायदा हो सकता है .
5 नहाने से हॉर्मोन संतुलित रहते हैं .
6 त्वचा के लिए फायदेमंद है नहाना .
7 स्नान करने से शरीर का तापमान नियंत्रित रहता है

आयुर्वेद के अनुसार स्नान कैसे करें?

आयुर्वेद के अनुसार नहाने के लिए गुनगुने पानी का इस्तेमाल करना फायदेमंद होता है। लेकिन ध्यान रखें कि गुनगुने पानी का इस्तेमाल आप बालों या चेहरा पर न करें। क्योंकि इससे त्वचा और बालों को नुकसान हो सकता है। अपने चेहरे और बालों के लिए सादे पानी का इस्तेमाल करें।

3.जैन मुनि खड़े होकर भोजन करते है

जैन मुनि खड़े होकर भोजन करते है .उनका तर्क है की अगर हम खड़े होकर खाना खाते है, तो पेट भरकर नही खाया जाता है। अगर वो भर पेट भोजन करेंगे तो आलस्य आएगा और साधना नही कर पाएंगे। और अगर खड़े होने लायक शक्ति ना बचे तो, समय आ गया है कि समाधी ले ली जाए।
विश्लेषण : आयुर्वेद के अनुसार भोजन का नियम है की सुबह राजा की तरह भोजन करो और शाम को कंगाल की तरह। भोजन के बाद पेट कुछ खाली रखे।
लेकिन जो तर्क जैन मुनि कह रहे वे अवैज्ञानिक है।इस प्रकार की व्यस्था किसी भी धर्म का हिस्सा नहीं होनी चाहिए। इसमें केवल दिखावा ही प्रतीत होता है। हमारे शाश्त्रो के अनुसार पहला सुख निरोगी काया है। भूखा रहना,शरीर को आवश्यकता अनुसार भोजन ना देना , किसी ना किसी प्रकार से शरीर को कमजोर करते रहना , इस प्रकार से शरीर को निकम्मा बना देना आदि ईश्वर के नियम के विरुद्ध है।
महाकवि कालिदास ने अपने महाकाव्य- ‘कुमारसम्भव’ । ३३ में एक अनुपम बात लिखी- ‘शरीरमाद्यं खलु धर्म साधनम्’ अर्थात् शरीर ही धर्म का पहला और उत्तम साधन है। व शरीर ही धर्म को जानने का माध्यम है।स्वामी विवेकानन्द जी ने अपने उद्बोधन में कहा कि स्वस्थ शरीर में स्वस्थ आत्मा का वास होता है। उन्होंने व्यक्ति के जीवन में स्वास्थ्य के महत्व पर बल दिया।

विज्ञान कहता है कि खड़े होकर भोजन करने से ये ठीक से पेट तक नहीं पहुंचता है तो यह पच नहीं पाता है और पेट में गैस और भारीपन की समस्याएं होनी लगती है जो कि रात के समय तो अधिकतर परेशान करती है। जब हम खड़े होकर भोजन करते हैं तो उस समय हमारी आंते सिकुड़ जाती हैं और भोजन ठीक से नहीं पच पाता है। इसका असर हमारे पाचन तंत्र पर पड़ता है और हमें अपच, कब्ज, एसिडिटी की समस्या होती है। कई बार बेचैनी भी महसूस होती है ,अपाचन, एसिडिटी, और गैस की समस्याएँ हो सकती हैं।
हमारी संस्कृति में खड़े होकर खाने की परंपरा नहीं है। हमारे यहां बैठकर भोजन करने की परंपरा है और यही स्वास्थ्यकर है।
मनुष्यों को ध्यान, उपासना और भोजन शांत और एकाग्रचित्त होकर किया जाना चाहिए।

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