डॉ डी के गर्ग
निवेदन : ये लेखमाला 20 भाग में है।इसके लिए सत्यार्थ प्रकाश एवं अन्य वैदिक विद्वानों के द्वारा लिखे गए लेखों की मदद ली गयी है। कृपया अपने विचार बताये और उत्साह वर्धन के लिए शेयर भी करें।
भाग-3
४ जैन दर्शन में व्यक्ति पूजा का कोई स्थान नहीं है । जैन दर्शन में कहीं नहीं कहा गया कि भगवान महावीर या किसी अन्य तीर्थंकर , ऋषि अथवा मुनि की उपासना से कोई भौतिक लाभ हो सकेगा या कोई सांसारिक इच्छा की पूर्ति हो सकेगी ।
विश्लेषण : लेकिन वास्तविकता इसके बिलकुल उलट है ,जैन धर्म के अनुयायी सबसे ज्यादा व्यक्ति पूजा करते है। सभी मंदिरो , दफ्तरों और घरों में जैन साधुओं की आशीर्वाद देती हुई तस्वीर मिलेगी और उन्हीं के दर्शन से स्वयं को धन्य मानते है।
५ जैन धर्म में सांसारिक इच्छाओं की पूर्ति के लिए कोई मनोती मनाने वाली उपासना नहीं है । केवल आत्मा ही आराध्य है । आत्म-शुद्धि द्वारा ज्ञान , तप, समता और साधना से आत्मा पर विजय प्राप्त कर परमात्मा बनने का उपदेश है ।
विश्लेषण : दरअसल जैन धर्म कोई धर्म नहीं है एक मत है जिसमे केवल अहिंसा को प्रमुख माना गया है। आत्मा को आराध्य कहने से तो काम नहीं चलेगा। इसके लिए स्वाध्याय और धर्म के अनुपालन पर कोई बल नहीं दिया गया। मंदिर बनाना ,रथ पर सवारी करना एक ंत्र ध्येय लगता है।
६ जैन धर्म का मुख्य मंत्र ‘नवकार महामंत्र’ किसी व्यक्ति विशेष, परमात्मा या तीर्थंकर (महावीर स्वामी इत्यादि) को नमस्कार नहीं करता है । उसमें तो संसार के सभी (धर्मो के ) महापुरुषों ,सिध्दों एवं अरिहंतो को वंदना की गई है , उनके गुणों की और पद की उपासना की गई है ।
विश्लेषण : एक तो ये समझ लेना जरुरी है की नवकार मंत्र के नाम से किसी गुणी व्यक्ति को केवल नमस्कार करना और नमस्कार के गीत गाना ही काफी नहीं है महान व्यक्तियों के गुणों को धारण करना और महान वयक्ति बनना आवश्यक है ,लेकिन ये इस सूत्र का जाप करना ही सब कुछ मानते है।
7 जैन दर्शन के अनुसार प्रत्येक आत्मा स्वयं से, परमात्मा से साक्षात्कार कर सकती है और जन्म-मृत्यु के अंतहीन सिलसिले से मुक्ति पा सकती है ।
विश्लेषण : वैदिक शाश्त्रो के अनुसार आत्मा कभी परमात्मा में विलीन नहीं हो सकती। सद्कर्म करने से और पतंजलि के बताये अष्ट्याङ्ग योग में सातवां और अथवा योग -ध्यान और समाधि है। परन्तु इस विषय में जैन धर्म ने कोई कार्य नहीं किया। केवल सिद्धांत प्रतिपादित किया है। इसलिए आजकल कुछ आश्रम अपने चलो को बुलाते है और तुरंत ध्यान लगवाने का झांसा देकर भ्रमित कर रहे है।
८। जैन दर्शन में कहा गया है कि इस जगत को न किसी ने बनाया है न ही कभी इसकी शुरुआत हुई है और न ही कभी इसका अंत होगा । यह जगत अनादि-अनंत है । कोई ईश्वर या परमात्मा नहीं है जो इस जगत को चलाता हो│ यह जगत स्वयं संचालित है । यह अपने नियम से चलता है । यह जगत जिन मूल-तत्वों से बना है , उन तत्वों में ही अनंत शक्ति, गुण और स्वभाव है जो स्वतः काम कर रहे हैं │
विश्लेषण : कल्पना कीजिये कि एक व्यक्ति है जिसकी आँखे नहीं है , वह देख नहीं सकता , सुन भी नहीं सकता , सूंघ भी नहीं सकता , चख भी नहीं सकता और स्पर्श को भी महसूस नहीं कर सकता । तो क्या उसके लिए इस दुनिया का भी कोई अस्तित्व है ? क्या उसके लिए आपका भी कोई अस्तित्व है ?यदि किसी एक चीज का अस्तित्व वह स्वीकार कर सकता है तो वो है खुद का , उसे खुद का अस्तित्व पता होता है ।
जब भी हमारे सामने यह प्रश्न आता है कि ईश्वर है या नहीं ? क्या प्रमाण है कि ईश्वर है? तब एक सामान्य आस्तिक व्यक्ति आपको कहेगा कि दुनिया में कोई भी वस्तु बिना किसी के बनाये नहीं बनती , इसलिए इस ब्रम्हांड को भी किसी ने बनाया है और वह बनाने वाला ही ईश्वर है । तब फिर प्रश्न आता है कि ईश्वर को किसने बनाया ? तब तर्क कहता है दुनिया में कोई भी बनी हुयी वस्तु बिना किसी के बनाये नहीं बनती , ब्रम्हांड निर्मित वस्तु है इसलिए उसका कोई निर्माता भी है ।
* ईश्वर को किसने बनाया* ? आस्तिक कहता है जो वस्तु निर्मित है , बनी हुयी है उसे बनाने वाला होता है , जो निर्मित नहीं उसे कोई बनाने वाला नहीं होता , ब्रम्हांड निर्मित वस्तु है अतः उसका कोई निर्माता भी है । ईश्वर के संबंध में महर्षि दयानन्द ने अपने ग्रन्थ सत्यार्थप्रकाश में यह तर्क दिया है जो कि अपने आप में बहुत महत्वपूर्ण है की किसी भी वस्तु का अस्तित्व उसके गुणों से पता चलता है , गुणी की सत्ता गुणों से होती है , जैसे अग्नि का अस्तित्व उसके गुणों से प्रमाणित होता है , अग्नि में प्रकाश और तेज आदि गुण होने से उसके अस्तित्व का पता चलता है इसी तरह दुनिया में अनेकों वस्तुओं का अस्तित्व उनके गुणों से ही पता चलता है , उदाहरण के लिए हवा दिखाई नहीं देती लेकिन हम उसे स्पर्श कर सकते है , इसलिए उसमे स्पर्श का गुण होने से यह प्रमाणित होता है कि उसका अस्तित्व है , नमक, चीनी , गुड़ में स्वाद होने से उनके अस्तित्व का पता चलता है द्यमान लीजिये कोई आपको चीनी देकर कहे कि ये नमक है , तब आप चखकर देखते हो तो आपको मीठापन महसूस होता है , आप कहते है ये नमक नहीं चीनी है , यानि कि जिस वस्तु को आपने चखा उसमे नमक के गुणों का नहीं बल्कि चीनी के गुणों का अस्तित्व है जिस से यह प्रमाणित हो गया कि यह अमुक वस्तु चीनी है , इसलिए हर वस्तु का अस्तित्व उसके गुणों से होता है। अग्नि का गुण तेज और प्रकाश आदि है इसी तरह ईश्वर के वे कौनसे गुण है जिनसे उसका अस्तित्व साबित होता है ? जिस तरह चीनी में मिठास है , इमली में खटास है , अग्नि में प्रकाश , वायु में स्पर्श और जल में गीलापन है उसी तरह ईश्वर तत्व में चेतनता है , ज्ञान है , बल है ,दया है , न्याय है इस तरह ईश्वर तत्व में अनेकों गुण है ।
जब हम ईश्वर के इन गुणों को महसूस नहीं कर सकते तब ईश्वर का अस्तित्व कैसे साबित होता है ?ईश्वर को न चख सकते हैं न सूंघ सकते हैन छू सकते हैं न सुन सकते हैं और न देख सकते है फिर तो ईश्वर का कोई अस्तित्व ही नहीं है ?ईश्वर का गुण है ज्ञान , जिस तरह किसी लेखक को जब आप पढ़ते हो तब उसे आप किसी भी इन्द्रिय से प्रत्यक्ष नहीं कर सकते लेकिन उस लेखक कि बुद्धि का दर्शन उसकी लेखनी में आपको हो जाता है , यानि आप अपनी बुद्धि से उस लेखक का प्रत्यक्ष करते हो , क्यों लेखक का लेख बुद्धिपूर्वक लिखा गया है इसलिए आप एक बुद्धिमान लेखक के अस्तित्व को स्वीकार करते हो , यदि उसका लेख मूर्खता पूर्ण है तब आप एक मूर्ख लेखक का अस्तित्व स्वीकार करते हो यहाँ आपने लेखक के गुणों का प्रत्यक्ष किसी भी इन्द्रिय से नहीं किया बल्कि अपनी बुद्धि से किया है , इसी तरह इस सम्पूर्ण ब्रम्हांड में सूक्ष्म से सूक्ष्म और बड़ी से बड़ी रचनाओं में उस ईश्वर की कला का दर्शन होता है , उसकी बुद्धि या उसके ज्ञान का दर्शन होता है , इसलिए एक सर्वज्ञ सत्ता का होना स्वीकार करना चाहिए । ईश्वर में स्पर्श गुण नहीं है रूप नहीं है रस नहीं है गंध नहीं है शब्द नहीं है जब ईश्वर में ये गुण नहीं है तब उसका प्रत्यक्ष हमारी इन्द्रियों से क्यों होगा भला ?
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