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डॉ डी के गर्ग
निवेदन : ये लेखमाला 20 भाग में है।इसके लिए सत्यार्थ प्रकाश एवं अन्य वैदिक विद्वानों के द्वारा लिखे गए लेखों की मदद ली गयी है। कृपया अपने विचार बताये और उत्साह वर्धन के लिए शेयर भी करें।
भाग-2
३ .जैन दर्शन में कहा गया है कि इस जगत को न किसी ने बनाया है न ही कभी इसकी शुरुआत हुई है और न ही कभी इसका अंत होगा । यह जगत अनादि-अनंत है। कोई ईश्वर या परमात्मा नहीं है जो इस जगत को चलाता हो│ यह जगत स्वयं संचालित है । यह अपने नियम से चलता है । यह जगत जिन मूल-तत्वों से बना है , उन तत्वों में ही अनंत शक्ति, गुण और स्वभाव है जो स्वतः काम कर रहे हैं │
विश्लेषण :
1.ईश्वर का अस्तित्व
कल्पना कीजिये कि एक व्यक्ति है जिसकी आँखे नहीं है , वह देख नहीं सकता , सुन भी नहीं सकता , सूंघ भी नहीं सकता , चख भी नहीं सकता और स्पर्श को भी महसूस नहीं कर सकता । तो क्या उसके लिए इस दुनिया का भी कोई अस्तित्व है ? क्या उसके लिए आपका भी कोई अस्तित्व है ?यदि किसी एक चीज का अस्तित्व वह स्वीकार कर सकता है तो वो है खुद का , उसे खुद का अस्तित्व पता होता है । जब भी हमारे सामने यह प्रश्न आता है कि ईश्वर है या नहीं ? क्या प्रमाण है कि ईश्वर है? तब एक सामान्य आस्तिक व्यक्ति आपको कहेगा कि दुनिया में कोई भी वस्तु बिना किसी के बनाये नहीं बनती , इसलिए इस ब्रह्माण्ड को भी किसी ने बनाया है और वह बनाने वाला ही ईश्वर है । तब फिर प्रश्न आता है कि ईश्वर को किसने बनाया ? तब तर्क कहता है दुनिया में कोई भी बनी हुयी वस्तु बिना किसी के बनाये नहीं बनती , ब्रह्माण्ड निर्मित वस्तु है इसलिए उसका कोई निर्माता भी है । फिर ईश्वर को किसने बनाया ? आस्तिक कहता है जो वस्तु निर्मित है , बनी हुयी है उसे बनाने वाला होता है , जो निर्मित नहीं उसे कोई बनाने वाला नहीं होता , ब्रह्माण्ड निर्मित वस्तु है अतः उसका कोई निर्माता भी है । ईश्वर के संबंध में महर्षि दयानन्द ने अपने ग्रन्थ सत्यार्थप्रकाश में यह तर्क दिया है जो कि अपने आप में बहुत महत्वपूर्ण है । किसी भी वस्तु का अस्तित्व उसके गुणों से पता चलता है , गुणी की सत्ता गुणों से होती है , जैसे अग्नि का अस्तित्व उसके गुणों से प्रमाणित होता है , अग्नि में प्रकाश और तेज आदि गुण होने से उसके अस्तित्व का पता चलता है इसी तरह दुनिया में अनेकों वस्तुओं का अस्तित्व उनके गुणों से ही पता चलता है , उदाहरण के लिए हवा दिखाई नहीं देती लेकिन हम उसे स्पर्श कर सकते है , इसलिए उसमे स्पर्श का गुण होने से यह प्रमाणित होता है कि उसका अस्तित्व है , नमक, चीनी , गुड़ में स्वाद होने से उनके अस्तित्व का पता चलता है मान लीजिये कोई आपको चीनी देकर कहे कि ये नमक है , तब आप चखकर देखते हो तो आपको मीठापन महसूस होता है , आप कहते है ये नमक नहीं चीनी है , यानि कि जिस वस्तु को आपने चखा उसमें नमक के गुणों का नहीं बल्कि चीनी के गुणों का अस्तित्व है जिस से यह प्रमाणित हो गया कि यह अमुक वस्तु चीनी है , इसलिए हर वस्तु का अस्तित्व उसके गुणों से होता है अब यह सवाल उठना स्वाभाविक है कि जिस तरह चीनी का गुण मीठापन है ,अग्नि का गुण तेज और प्रकाश आदि है इसी तरह ईश्वर के वे कौन से गुण है जिनसे उसका अस्तित्व साबित होता है ? जिस तरह चीनी में मिठास है , इमली में खटास है , अग्नि में प्रकाश , वायु में स्पर्श और जल में गीलापन है उसी तरह ईश्वर तत्व में चेतनता है , ज्ञान है , बल है ,दया है , न्याय है इस तरह ईश्वर तत्व में अनेकों गुण है । लेकिन अभी सोच रहे होंगे कि जैसे हम मिठास को जानकर चीनी का पता कर लेते हैं , उसी तरह ईश्वर के इन गुणों को हम कैसे पता कर सकते हैं और जब हम ईश्वर के इन गुणों को महसूस नहीं कर सकते तब ईश्वर का अस्तित्व कैसे साबित होता है ?वायु को हम स्पर्श से जान सकते है , चीनी को हम चखकर जान सकते है तो भला ईश्वर को जब हम किसी भी इन्द्रिय से नहीं जान सकते तो कैसे प्रमाणित हुआ कि ईश्वर है ?ईश्वर को न चख सकते हैं न सूंघ सकते है न छू सकते हैं न सुन सकते हैं और न देख सकते है फिर तो ईश्वर का कोई अस्तित्व ही नहीं है ?ईश्वर का गुण है ज्ञान , जिस तरह किसी लेखक को जब आप पढ़ते हो तब उसे आप किसी भी इन्द्रिय से प्रत्यक्ष नहीं कर सकते लेकिन उस लेखक कि बुद्धि का दर्शन उसकी लेखनी में आपको हो जाता है , यानि आप अपनी बुद्धि से उस लेखक का प्रत्यक्ष करते हो , क्यों लेखक का लेख बुद्धिपूर्वक लिखा गया है इसलिए आप एक बुद्धिमान लेखक के अस्तित्व को स्वीकार करते हो , यदि उसका लेख मूर्खता पूर्ण है तब आप एक मूर्ख लेखक का अस्तित्व स्वीकार करते हो यहाँ आपने लेखक के गुणों का प्रत्यक्ष किसी भी इन्द्रिय से नहीं किया बल्कि अपनी बुद्धि से किया है , इसी तरह इस सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड में सूक्ष्म से सूक्ष्म और बड़ी से बड़ी रचनाओं में उस ईश्वर की कला का दर्शन होता है , उसकी बुद्धि या उसके ज्ञान का दर्शन होता है , इसलिए एक सर्वज्ञ सत्ता का होना स्वीकार करना चाहिए । ईश्वर में स्पर्श गुण नहीं है रूप नहीं है रस नहीं है गंध नहीं है शब्द नहीं है जब ईश्वर में ये गुण नहीं है तब उसका प्रत्यक्ष हमारी इन्द्रियों से क्यों होगा भला ?
ईश्वर का अस्तित्व सभी प्राणी प्रतिदिन अनुभव करते हैं। वह यह है कि हमारी आत्मा के भीतर सत्कर्मों परोपकार व पुण्य कर्मों को करने में जो प्रेरणा, उत्साह, निःशंकता होती है और अशुभ व पाप कर्मों को करने में जो भय, शंका व लज्जा आत्मा में उत्पन्न होती है उसका कारण परमात्मा की आत्मा में प्रेरणा ही होती है। इनका अन्य कोई कारण नहीं होता। यह ईश्वर का प्रत्यक्ष प्रमाण है।
दूसरा प्रश्न ईश्वर ने संसार की रचना क्यों की?’
ये जन्म हमारे पूर्व जन्म का पुनर्जन्म है। जन्म से पूर्व हम कहां थे, क्या करते थे, हम कुछ नहीं जानते हैं? इस जन्म से पूर्व की सभी बातों को हम भूल चुके हैं। ऐसा होना स्वाभाविक ही है। हम बहुत सी बातों को जो कुछ मिनट या घंटों पहले हमारे जीवन में घटित होती हैं, उन्हें भी साथ साथ भूलते जाते हैं।
कल क्या पदार्थ भोजन व प्रातराश में खाये, कहां-कहां गये, हमने क्या-क्या दृश्य देखे, इनमें से अधिकांश बातें हम भूल जाते हैं। इस स्थिति में हम यह नहीं मान सकते कि हमारा पूर्वजन्म था ही नहीं।अपने पूर्वजन्म में हम मनुष्य योनि में भी रहे हो सकते हैं और किसी अन्य प्राणी योनि जैसी की हम संसार में गाय, बैल, कुत्ता, बिल्ली व अनेक प्रकार के पक्षियों आदि की योनियां हैं। यदि हम पशु रहे होंगे तो हमें स्मरण होना सम्भव नहीं है। इस जन्म में भी हमारे जो दुःखद क्षण बीते होते हैं उनकी स्मृतियां हमें जीवन भर दुःख देती हैं।अतः यदि हमें अपने पूर्वजन्मों की स्मृतियां रहती तो हम उनमें ही खोये रहते और दुःखी होते रहते जिससे हमारा यह जन्म व इसके बाद के भी जन्म कष्टप्रद होते। ईश्वर की यह महती कृपा है कि उसने हमें पुरानी बातों की स्मृतियां न होने दी अन्यथा हम ईश्वर से इसकी शिकायत करते।
यह संसार ईश्वरकृत रचना है। ईश्वर के अतिरिक्त संसार में ऐसी कोई शक्ति व सत्ता का अस्तित्व नहीं है जो संसार की रचना कर सके। बिना चेतन सत्ता, जिसमें बुद्धि और कर्म करने की शक्ति हो, वही बुद्धिपूर्वक, प्रयोजन सिद्ध करने वाली व विलक्षण रचना को कर सकती है। मनुष्य स्वयं अपने जन्म व पालन आदि अस्तित्व के लिये अपने माता-पिता तथा आचार्यों एवं मित्रादि सहित परमात्मा पर ही निर्भर है , वह स्वतः व स्वयं जन्म को प्राप्त नहीं हो सकती। हमारे दर्शनकारों ने विचार व चिन्तन किया है। उसी का निष्कर्ष है कि मनुष्य सृष्टि की रचना नहीं कर सकता और ईश्वर के अतिरिक्त संसार में सृष्टि-रचना करने में समर्थ अन्य कोई सत्ता है ही नहीं।कार्य-कारण के सिद्धान्त के आधार पर इस सृष्टि का निमित्त कारण परमात्मा ही सिद्ध होता है।
परमात्मा ने इस सृष्टि को उपादान कारण त्रिगुणात्मक सूक्ष्म जड़ प्रकृति से बनाया है। प्रकृति ईश्वर की तरह से ही अनादि व नित्य है। अनादि व नित्य पदार्थों का कदापि अभाव नहीं होता है। उनके स्वरूप में परवर्तन होता है जिसे अवस्थान्तर कहते हैं। अवस्थान्तर की स्थिति न रहने पर वह अपने मूलस्वरूप में आ जाते हैं। प्रकृति भी प्रलय अवस्था व सृष्टि की रचना से पूर्व तक त्रिगुणात्मक सत्व रज व तम गुणों की साम्यावस्था में रहती है।हमारी समस्त सृष्टि परमाणुओं से मिलकर बनी है। वैज्ञानिक भिन्न तत्वों के परमाणुओं को पृथक-2 नहीं कर सकते और न ही परमाणुओं को भी बना ही सकते हैं। सभी वैज्ञानिक मिलकर संसार में विभिन्न तत्वों के परमाणुओं को किंचित नियंत्रित नहीं कर सकते हैं। अतः सृष्टि को ईश्वरकृत मानना ही सत्य एवं उचित है।
संक्षेप में यही कह सकते हैं कि इस विशाल एवं अनन्तहीन सृष्टि की रचना स्वमेव नहीं हो सकती। सबका आधार परमात्मा ही है।
ईश्वर ने सृष्टि की रचना कैसे की?
इसका उत्तर जानने के लिये यह जानना आवश्यक है कि संसार में तीन अनादि, नित्य, अविनाशी व अमर पदार्थ वा सत्तायें हैं। यह हैं ईश्वर, जीव तथा प्रकृति। जीव एक सूक्ष्म, नित्य, अविनाशी, एकदेशी, ससीम, अल्पज्ञ गुणों वाला हैं। इनकी संख्या अनन्त व अगणनीय हैं। सभी जीव इस कल्प से पूर्व की सृष्टियों में भी मनुष्यादि नाना योनियों में अपने पूर्वजन्मों के कर्मों के अनुसार जन्म लेते रहे थे। इन जीवों के लिये ही परमात्मा ने इस सृष्टि को बनाया है व इसका संचालन कर रहा है। उसका इस सृष्टि को बनाने व चलाने में अपना कोई निजी हित व प्रयोजन नहीं है। उसको जीवों की प्रार्थना, स्तुति व उपासना की भी आवश्यकता नहीं है। उसने सृष्टि को इसलिये बनाया है जिससे सभी जीवों को अपने कर्मानुसार सुख व दुःखों की प्राप्ति व भोग प्राप्त हो सकें।
ईश्वर में सृष्टि को रचने की क्षमता व सामर्थ है इसलिये उसने अपनी अनादि प्रजा जीवों के लिये इस अपौरूषेय सृष्टि को बनाया है। ईश्वर ही सृष्टि का स्वामी, पिता व अधिष्ठाता है। सभी जीव ईश्वर के उपकारों से ऋणी हैं। ईश्वर के ऋण को धन्यवाद रूपी सन्ध्या, ध्यान व उपासना एवं अग्निहोत्र यज्ञ सहित परोपकार व दान आदि कर्मों को करके उतारने का प्रयत्न करना चाहिये। तभी वह ईश्वर के प्रति कृतघ्नता के दोष व पाप से बच सकते हैं।
इस जन्म का अन्त मृत्यु पर होगा। मृत्यु के बाद प्रत्येक जीवात्मा का पुर्नजन्म होगा। वह जन्म हमारे इस जन्म के कर्मों एवं उपासना सहित परोपकार एवं दान आदि के कारण ही सुखमय व कल्याणप्रद हो सकता है अन्यथा अनेक नीच योनियों में से किसी एक योनि में हमारा जन्म होगा जहां अनेकानेक दुःख उठाने होंगे। बुद्धिमानों को अधिक समझाने की आवश्यकता नहीं होती और निर्बुद्धि का काम अधिकांश स्थितियों में कुतर्क करना होता है। कुतर्क करने वालों को कोई समझा नहीं सकता। वह तो विद्या के वैरी होते हैं।