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डॉ डी के गर्ग
निवेदन : ये लेखमाला 20 भाग में है। इसके लिए सत्यार्थ प्रकाश एवं अन्य वैदिक विद्वानों के द्वारा लिखे गए लेखो की मदद ली गयी है। कृपयाअपने विचार बतायें और उत्साह वर्धन के लिए शेयर भी करें।
भाग-१
जैन मत परिचय : जैन धर्म के २४ तीर्थंकर हैं , जिनमें प्रथम तीर्थंकर ऋषभदेव (आदिनाथ) तथा अन्तिम तीर्थंकर वर्धमान महावीर हैं।श्वेतांबर व दिगम्बर जैन धर्म के दो सम्प्रदाय हैं, तथा इनके ग्रन्थ समयसार व तत्वार्थ सूत्र आदि हैं।जैनों के प्रार्थना – पूजास्थल, जिनालय या मन्दिर कहलाते हैं। जैन ईश्वर को मानते हैं जो सर्व शक्तिशाली त्रिलोक का ज्ञाता द्रष्टा है पर त्रिलोक का कर्ता नहीं|जगत का न तो कोई कर्ता है और न जीवों को कोई सुख दुःख देनेवाला है। अपने अपने कर्मों के अनुसार जीव सुख दुःख पाते हैं।
जैन मत के अनुसार ‘ जैन’ का अर्थ है – ‘जिन द्वारा प्रवर्तित ‘। जो ‘जिन’ के अनुयायी हैं उन्हें ‘जैन’ कहते हैं। उनके अनुसार ‘जिन’ शब्द बना है संस्कृत के ‘जि’ धातु से। ‘जि’ माने – जीतना। ‘ जैन’ माने जीतने वाला। जिन्होंने अपने मन को जीत लिया, अपनी तन, मन, वाणी को जीत लिया और विशिष्ट आत्मज्ञान को पाकर सर्वज्ञ या पूर्णज्ञान प्राप्त किया हो। जैन धर्म अर्थात ‘जिन’ भगवान् का धर्म।रागद्वेषी शत्रुओं पर विजय पाने के कारण ‘वर्धमान महावीर’ की उपाधि ‘जिन’ थी। अतः उनके द्वारा प्रचारित धर्म ‘जैन’ कहलाता है।
जैन पन्थ में अहिंसा को परमधर्म माना गया है। केवल प्राणों का ही वध नहीं, बल्कि दूसरों को पीड़ा पहुँचाने वाले असत्य भाषण को भी हिंसा का एक अंग बताया है।
जैन धर्म का दूसरा महत्वपूर्ण सिद्धान्त है -कर्म ।महावीर ने बार बार कहा है कि जो जैसा अच्छा, बुरा कर्म करता है उसका फल अवश्य ही भोगना पड़ता है !
जैनधर्म में ईश्वर को जगत् का कर्त्ता नहीं माना गया, तप आदि सत्कर्मों द्वारा आत्मविकास की सर्वोच्च अवस्था को ही ईश्वर बताया है।
जैन मत के अनुसार ज्ञानावरण, दर्शनावरण, वेदनीय, मोहनीय, अन्तराय, आयु, नाम और गोत्र इन आठ कर्मों का नाश होने से जीव जब कर्म के बन्धन से मुक्त हो जाता है तो वह ईश्वर बन जाता है तथा राग-द्वेष से मुक्त हो जाने के कारण वह सृष्टि के प्रपंच में नहीं पड़ता।
जैन दर्शन में कण-कण स्वतंत्र है इस सृष्टि का या किसी जीव का कोई कर्ताधर्ता नही है। सभी जीव अपने अपने कर्मों का फल भोगते है। जैन दर्शन में भगवान न कर्ता और न ही भोक्ता माने जाते हैं। जैन दर्शन मे सृष्टिकर्ता को कोई स्थान नहीं दिया गया है। जैन धर्म में तीर्थंकरों जिन्हें जिनदेव, जिनेन्द्र या वीतराग भगवान कहा जाता है इनकी आराधना को ही विशेष महत्व है।
जैन मत समीक्षा :
१ जैन धर्म’ का अर्थ? –‘जिन द्वारा प्रवर्तित धर्म’ बताया जाता है कि जिन्होंने राग-द्वेष को जीत लिया है अर्थात् जिन्होंने राग-द्वेष को जीत लिया है│वो जैन अथवा जैन धर्म वाले हैं।
जैन शब्द के अर्थ बताने में कमाल की तुकबाजी की गई है।भाषा और व्याकरण का नामो निशान नही है। जिन शब्द से जैन की उत्पत्ति कर दी।
एक दूसरा अर्थ बताया जाता है कि जैन का मतलब जो जितेन्द्रिय है। और जिसने राग द्वेष पर विजय पा ली हो।
फिर भाई पैदा होते ही बच्चे का नाम जैन क्यों लिखते हो?शादी के बाद पत्नी का नाम बदलकर जैन लिखवा देने से क्या जितेंद्रिय होने का प्रमाण मिल गया ?
क्या जितेंद्रिय होने के लिए मनुष्य को केवल राग-द्वेष पर ही विजय पानी है?
जिस जैन परिवार के सदस्य में ये गुण ना हो तो वो जैन नही कहलाएगा क्या?
वैसे सिर्फ राग द्वेष पर विजय पाना ही धर्म नही है। महर्षि मनु के बताये १० नियम सार्वभौम है जिनका अनुपालन जरुरी है। इनमें एक भी कम नहीं हो सकता है। ये है-धृति: क्षमा “दमोऽस्तेयं शौचमिन्द्रियनिग्रह:।
धीर्विद्या सत्यमक्रोधो दशकं धर्मलक्षणम्।।(मनुस्मृति ६.९२)
अर्थ – धृति (धैर्य ), क्षमा (अपना अपकार करने वाले का भी उपकार करना ), दम (हमेशा संयम से धर्म में लगे रहना ), अस्तेय (चोरी न करना ), शौच ( भीतर और बाहर की पवित्रता ), इन्द्रिय निग्रह (इन्द्रियों को हमेशा धर्माचरण में लगाना ), धी ( सत्कर्मों से बुद्धि को बढ़ाना ), विद्या (यथार्थ ज्ञान लेना ). सत्यम ( हमेशा सत्य का आचरण करना ) और अक्रोध ( क्रोध को छोड़कर हमेशा शांत रहना )। यही धर्म के दस लक्षण है।
२” जैन दर्शन के अनुसार प्रत्येक आत्मा स्वयं से, परमात्मा से साक्षात्कार कर सकती है और जन्म-मृत्यु के अंतहीन सिलसिले से मुक्ति पा सकती है ।
विश्लेषण : वैदिक शास्त्रों के अनुसार आत्मा कभी परमात्मा में विलीन नहीं हो सकती। सद्कर्म करने से और पतंजलि द्वारा बताये अष्ट्याङ्ग योग में सातवां और आठवां योग -ध्यान और समाधि है। परन्तु इस विषय में जैन धर्म ने कोई चिंतन नहीं किया।
इस मत ने तो जितेंद्रिय के मायने ही बदल दिए है ।जो जितना दिन अधिक भूखा रह सकता है वो उतना अधिक तपस्वी और पूजनीय है,जितेंद्रिय हैं,मोक्ष का अधिकारी है।
जितेंद्रिय किसे कहते है?जिनलोगों ने अपने इंद्रियों को नियंत्रित कर लिया है अर्थात जिन्होंने काम, क्रोध, लोभ, मोह, मत्सर, जिह्वा आदि को अपने वशीभूत कर कब्जे में कर लिया है उसे ही जितेन्द्रिय कहते हैं !
इस आलोक में अष्टांग योग में यम नियम के पालन को जितेंद्रिय कह सकते है,केवल भूखे प्यासे रहकर शरीर को कष्ट देने वाले को नही।ये है;
पांच ज्ञानेंद्रियां- आंख, कान, नाक, जीभ और त्वचा; पांच कर्मेंद्रियां- हाथ, पैर, मुंह, गुदा और लिंग और चार अंतःकरण- मन ,बुद्धि, चित्त और अहंकार।