कठोपनिषद नाचिकेता और यमाचार्य के संवाद से संबंधित है।
सर्वप्रथम तो यह समझ लें कि ऐसा कोई संवाद यम और नचिकेता पुरुषों के रूप में उनके मध्य नहीं हुआ। बल्कि यह आध्यात्मिक, साहित्यिक संवाद है जो नचिकेता और यमाचार्य को हमारे ऋषियों द्वारा पात्र बनाकर लिखा गया है। वास्तव में प्रस्तुत संदर्भ में नचिकेता मन को कहा गया अथवा समझाया गया है और यम आत्मा है।
और गहराई से समझने के लिए हम यह भी कह सकते हैं कि यम ईश्वर है और नचिकेता आत्मा है।
नचिकेता ने यम से मुख्यतया तीन प्रश्न किए हैं जिसमें तीसरा प्रश्न था आत्मा की अमरता से संबंधित।
यम के द्वारा नचिकेता को उपदेश दिया गया कि यह आत्मा सुगमता से जानने योग्य नहीं है। ईश्वर के अनन्य भक्त के उपदेश किए हुए इस आत्मा में संदेह नहीं होता। वह आत्मा सूक्ष्म से भी अति सूक्ष्म है और निश्चय तर्क करने योग्य नहीं है।
(प्रष्ठ संख्या 153पर)
उपरोक्त से आगे प्रष्ठ संख्या 157 पर यमाचार्य निम्न प्रकार नचिकेता को उपदेश देते हैं।
यह आत्मा में ना उत्पन्न होता है और ना मरता है ।किसी से उत्पन्न नहीं हुआ ।कोई इससे भी उत्पन्न नहीं हुआ ।यह आत्मा जन्म नहीं लेता। नित्य अनादि सनातन है। शरीर के नाश होने पर नष्ट नहीं होता।
अज्ञानी लोग समझते हैं कि उस अर्थात जीव को कोई मार सकता है अथवा वह किसी को मार दिया करता है
प्रष्ठ संख्या 158 पर निम्न प्रकार का उपदेश मिलता है।
सूक्ष्म से भी अत्यंत सूक्ष्म है ।बड़े से भी बड़ा है ।वह इस प्राणी के हृदयाकाश में स्थित है। उस आत्मा की महिमा को बुद्धि के निर्मल होने से निष्काम शोक रहित प्राणी देखता है।
इससे स्पष्ट हुआ कि आत्मा हृदयाकाश में रहता है। हृदय में जो खाली स्थान है उसमें रहता है।
प्रष्ठ संख्या 162 पर निम्न प्रकार लिखा है।
विद्वान उसको( यहां उसको का मतलब है आत्मा को ) गुहा अर्थात हृदयाकाश में देखता है।
कठोपनिषद के पृष्ठ संख्या 176 पर पुनः बहुत ही स्पष्ट शब्दों में लिखा है।
भूतकाल में हुए और भविष्य में होने वाले जगत का अध्यक्ष पूर्ण परमात्मा अंगूठे के बराबर हृदय आकाश में रहने वाला जीवात्मा के मध्य में रहता है। उसके ज्ञान से कोई ग्लानि को नहीं पाता वही वह ब्रह्म है।
स्पष्ट हो गया कि हृदयाकाश में परमात्मा भी रहता है और आत्मा भी रहती है और दोनों का मिलन वहीं होता है।
अर्थात अंगूठे के बराबर मात्रा वाले हृदय आकाश में स्थित जीव के मध्य ब्रह्म का निवास है अर्थात यही स्थान है जहां ब्रह्म का साक्षात्कार हुआ करता है। उस ब्रह्म ज्ञान को पाकर मनुष्य सदैव प्रसन्न रहता है ।उपर्युक्त अंगुष्ठ मात्रा वाले हृदय में रहने वाला विकार रहित ज्योति के सदृश ब्रह्म सब का स्वामी और सदैव एक रस रहने वाला है।
पंचम वल्ली पृष्ठ संख्या 181 कठोपनिषद में निम्न प्रकार का वर्णन आया है।
जो साधक प्राण वायु को ऊपर ले जाता है अपान वायु को नीचे फेंकता है ।बीच में हृदयाकाश में स्थित श्रेष्ठ जीव (अर्थात हृदय में आत्मा जो स्थित है)को संपूर्ण इंद्रिय और प्राण सेवन करते हैं।
उपरोक्त प्रकार से समझाते हुए यमाचार्य द्वारा नचिकेता को बताया गया कि आपका तीसरा प्रश्न यह है कि मरने के बाद जीव बाकी रहता है या शरीर के साथ वह भी नष्ट हो जाता है।
इसका उत्तर देते हुए प्रष्ठ संख्या 183 पर यमाचार्य उपदेश करते हैं कि मरने के बाद जीव अपने कर्मानुसार जंगम और स्थावर योनियों को प्राप्त करता है अर्थात बाकी रहता है और शरीर के साथ नष्ट नहीं हो जाता।
इससे भी अधिक स्पष्ट करते हुए प्रष्ठ संख्या 196, 197 पर यह आचार्य निम्न प्रकार उपदेश करते हुए स्पष्ट करते हैं।
हृदय की 101 नाड़ियां है उनमें से एक मस्तिष्क में जाने के लिए है उस नाडी के साथ ऊपर से निकलता हुआ जीवात्मा अमृत तत्व अर्थात मोक्ष को प्राप्त होता है ।सौ नाडियों द्वारा प्राण के साथ निकलने पर विविध गति होती है।
पृष्ठ संख्या 197 पर निम्न प्रकार उल्लेख मिलता है
“जीवात्मा जो सदैव अंगूठे की मात्रा वाले हृदयाकाश में रहा करता है”
उपरोक्त सभी उदाहरणों से और ऋषियों के द्वारा दिए गए उपदेशामृत के आधार पर यह निश्चित है की आत्मा हमारे हृदय में रहता है ।
देवेंद्र सिंह आर्य एडवोकेट अध्यक्ष उगता भारत समाचार पत्र,
ग्रेटर नोएडा
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7827 681439
शेष तीसरी किस्त में।