….और रणभेरी बज गयी
महाराणा प्रताप अपने दृढ़ निश्चय पर अडिग थे कि वह अकबर के दरबार में जाकर शीश नही झुकाएंगे, वह अकबर को अपना शत्रु मानते थे। अकबर ने जब देखा कि महाराणा स्वतंत्रता के गीत गाने की अपनी प्रवृत्ति से बाज आने वाला नही है, तो उसने जून 1776 ई. में मेवाड़ पर आक्रमण कर दिया। यह युद्घ हल्दीघाटी का युद्घ कहलाता है। इस युद्घ का आंखों देखा वर्णन अलबदायूंनी ने अपनी पुस्तक ‘मुन्तखबत्तारीख’ में किया है। वह लिखता है :-
‘‘जब मानसिंह और आसफ खां गोगून्दा से सात कोस पर दर्रे के पास शाही सेना सहित पहुंचे तो राणा लडऩे को आया। ख्वाजा मुहम्मद रफी बदख्शी, शियाबुद्दीन गुरोह, पायन्दाह कज्जाक अलीमुराद उजबक, और राणा लूणकरण तथा बहुत से शाही सवारों सहित मानसिंह हाथी पर सवार होकर मध्य में रहा और बहुत से प्रसिद्घ जवान पुरूष हरावल के आगे रहे। चुने हुए आदमियों में से 80 से अधिक लड़ाके सैय्यद हाशिम बारहा के साथ इराबल के आगे भेजे गये और सैय्यद अहमद खां बारहा दूसरे सैय्यदों के साथ दक्षिण पाश्र्व में रहा। शेख इब्राहीम चिश्ती के संबंधी अर्थात सीकरी के शेखजादों सहित काजी खां वाम पाश्र्व में रहा और मिहतरखां चंदाबल में। राणा कीका ने दर्रे (हल्दीघाटी) के पीछे से तीन हजार राजपूतों सहित आगे बढक़र अपनी सेना के दो विभाग किये।
एक विभाग ने जिसका सेनापति हकीम सूर अफगान था, पहाड़ों से निकलकर हमारी सेना के हरावल पर आक्रमण कर दिया। भूमि ऊंची नीची रास्ते टेढ़े-मेढ़े और कांटों वाले होने के कारण हमारी हरावल में गड़बड़ी मच गयी, जिससे हमारी (हरावल में) पूर्णत: पराजय हुई। हमारी सेना के राजपूत जिनका मुखिया राजा लूणकरण था, और जिनमें से अधिकतर वाम पाश्र्व में थे, भेड़ों के झुण्ड की तरह भाग निकले और हरावल को चीरते हुए अपनी रक्षा के लिए दक्षिण पाश्र्व की ओर दौड़े। इस समय मैंने आसफ खां से पूछा कि ऐसी अवस्था में हम अपने और शत्रु के राजपूतों की पहचान कैसे कर सकें? उसने उत्तर दिया कि तुम तो तीर चलाये जाओ, वाहे जिस पक्ष के आदमी मारे जावें, इस्लाम को तो उससे लाभ ही होगा। इसलिए हम तीर चलाते रहे और भीड़ ऐसी थी कि हमारा एक भी वार खाली नही गया, और काफिरों को मारने का सौभाग्य मुझे प्राप्त हुआ। इस लड़ाई में बारहा के सैय्यदों तथा कुछ जवान वीरों ने रूस्तम की सी वीरता का प्रदर्शन किया। दोनों पक्षों के मरे हुए वीरों से रणखेत छा गया।’’
युद्घ क्षेत्र में महाराणा का ‘रामप्रसाद’ हाथी
अलबदायूंनी के उपरोक्त वर्णन से स्पष्ट है कि युद्घ क्षेत्र में हिंदू (राजपूत) चाहे मुस्लिम पक्ष का ही था उसे भी मारना मुस्लिमों के लिए उचित था। क्योंकि इससे इस्लाम की सेवा करने का अवसर मुस्लिमों को मिल रहा था। युद्घ की विभीषिका भी देखने योग्य थी। कोई सा भी पक्ष पीछे हटना नही चाहता था। राणा की मुट्ठी भर सेना अपने अदम्य साहस और शौर्य का परिचय दे रही थी। मुस्लिमों की सेना के उसने दांत खट्टे कर दिये थे। अबुल फजल ने अकबरनामा में लिखा है :-‘‘दोनों पक्षों के वीरों ने लड़ाई में जान सस्ती और इज्जत महंगी कर दी। जैसे पुरूष वीरता से लड़े वैसे ही हाथी भी लड़े। महाराणा की ओर के शत्रुओं की पंक्ति को तोडऩे वाले लुणा हाथी के सामने जमाल खां फौजदार गजमुक्त हाथी को ले आया। शाही हाथी घायल होकर भाग ही रहा था कि शत्रु के हाथी का महावत गोली लगने से मर गया, जिससे वह लौट गया। फिर राणा का प्रताप नामक एक संबंधी मुख्य हाथी ‘रामप्रसाद’ को ले आया, जिसने कई आदमियों को पछाड़ डाला। हारती दशा में कमाल खां गजराज हाथी को लाकर लड़ाई में सम्मिलित हुआ। पंचू ‘रामप्रसाद’ का सामना करने के लिए रणमदार हाथी को लाया जिसने अच्छा काम दिया। उस हाथी के पांव भी उखडऩे ही वाले थे इतने में ‘रामप्रसाद’ हाथी का महावत तीर से मारा गया। तब वह हाथी पकड़ा गया, जिसकी बहादुरी की बातें शाही दरबार में अक्सर हुआ करती थीं।’
युद्घ हो उठा था रोमांचकारी
अबुलफजल के इस कथन से स्पष्ट है कि महाराणा प्रतापसिंह और उनकी सेना संख्या में कम होने के उपरांत भी कितनी वीरता से लड़ रही थी। आज उन्हें अपनी मातृभूमि के ऋण से उऋण होने का अच्छा अवसर मिला था। शत्रु को देश की सीमाओं से बाहर निकालकर हिंदू वीरता का कीर्तिमान स्थापित करना उनकी एक-एक सांस का उद्देश्य बन गया था। यह नही देखा जा रहा था कि हम संख्या में कितने हैं, अपितु हमारा एक सैनिक कितने मुगल सैनिकों को समाप्त कर सकता है-देखा यह जा रहा था। युद्घ प्राणपण से किया गया। पूरी योजना बनाकर किया गया। राजपूतों के शौर्य ने मुगलों को हिलाकर रख दिया। अकबरनामा का लेखक अबुल फजल स्वयं लिखता है :-‘‘सरसरी तौर से देखने वालों की दृष्टि में तो महाराणा प्रताप की जीत नजर आती थी इतने में ही एकाएक शाही फौज की जीत होने लगी। जिसका कारण यह हुआ कि सेना में यह अफवाह फैल गयी कि बादशाह (अकबर) स्वयं (युद्घक्षेत्र में) आ पहुंचा है। इससे बादशाही सेना में जान आ गयी और शत्रु सेना की, जो जीत पर जीत प्राप्त कर रही थी हिम्मत टूट गयी।’’
हल्दीघाटी का सच अबुल फजल से उत्तम और कौन बता सकता है,जो स्पष्ट कहता है कि महाराणा प्रताप की सेना युद्घ में जीत पर जीत प्राप्त कर रही थी। कर्नल टाड लिखता है-‘‘अपने राजपूतों और भीलों के साथ मारकाट करता हुआ प्रताप आगे बढऩे लगा। लेकिन मुगलों की विशाल सेना को पीछे हटाना और आगे बढऩा अत्यंत कठिन हो रहा था। बाणों की वर्षा समाप्त हो चुकी थी और दोनों ओर के सैनिक एक दूसरे के समीप पहुंचकर तलवारों और भालों की भयानक मार कर रहे थे। हल्दीघाटी के पहाड़ी मैदान में मारकाट करते हुए सैनिक कट-कट कर पृथ्वी पर गिर रहे थे। मुगलों का बढ़ता हुआ जोर देखकर प्रतापसिंह अपने घोड़े पर प्रचण्ड गति के साथ शत्रु सेना के भीतर पहुंच गया और वह मानसिंह को खोजने लगा।’’
कितना रोमांचकारी चित्रण है हल्दीघाटी के युद्घ का? इसके साथ ही यह भी विचारणीय है कि हमारे जिन योद्घाओं ने इस युद्घ में भाग लिया था उनकी वीरता और शौर्य को शत्रुपक्ष ने स्वीकार किया है। जिसे हमें भी यथावत स्वीकार करना चाहिए।
हल्दीघाटी में किसकी जीत हुई
हल्दीघाटी में किसकी जीत हुई ? इस संबंध में 2011 में ‘ नवभारत टाइम्स ‘ में एक लेख छपा था। जिसमें बताया गया था कि उदयपुर के इतिहासकार डॉ. चंद्रशेखर शर्मा ने पहली बार यह सत्य उद्घाटित किया कि महाराणा प्रताप हारे नहीं, जीते थे। अकबर की हार हुई थी। गंगाधर ढोबले उस लेख के माध्यम से हमें बताते हैं कि डॉ. चंद्रशेखर शर्मा इतिहास के प्राध्यापक हैं। और उनकी पीएचडी का विषय भी महाराणा प्रताप ही था। वर्ष 2007 में उन्होंने अपनी थीसिस को ‘ राष्ट्र रतन महाराणा प्रताप ‘ नाम से प्रकाशित किया था। उस लेख के प्रमुख अंश इस प्रकार हैं – हल्दीघाटी के रक्ततलाई में लगा पत्थर अब बदला जाएगा। जिस पर लिखा है यहां से महाराणा प्रताप की सेना पीछे हटने लगी। अब पत्थर पर लिखा होगा ‘ महाराणा प्रताप विजई रहे।’ महाराणा ने छापामार युद्ध किया। अंत में अकबर की फौज वापस जाने लगी । सन 2006 में हल्दीघाटी के इतिहास के पुनर्लेखन की बात मुखरता से सामने आने लगी। उदयपुर के इतिहासकार डॉ चंद्रशेखर शर्मा से प्रभावित होकर उस समय ‘ आर्यावर्त संस्कृत संस्थान ‘ द्वारा उनकी थीसिस को प्रकाशित किया गया। इस पुस्तक की चर्चा होने लगी तो वर्ष 2008 में तत्कालीन उपराष्ट्रपति भैरोसिंह शेखावत ने उन्हें दिल्ली में व्याख्यान के लिए आमंत्रित किया। इस समय सेमिनार में विजय कुमार वशिष्ठ, प्रोफेसर कृष्ण स्वरूप गुप्ता, डॉक्टर मनोरमा उपाध्याय, प्रोफेसर हितेंद्र पटेल जैसे देश के प्रसिद्ध इतिहासकारों ने भाग लिया था । इन सब का मत यही था कि महाराणा प्रताप युद्ध में हर नहीं थे, जीते थे। सबकी राय थी कि हल्दीघाटी युद्ध के बारे में वर्तमान इतिहास अधूरा है।
महाराणा प्रताप की मृत्यु के बारे में हमें कविराज श्यामल द्वारा लिखे गए प्रसिद्ध ग्रंथ ‘ वीर विनोद’ से विशेष जानकारी प्राप्त होती है। जिससे पता चलता है कि महाराणा प्रताप की मृत्यु 15 जनवरी 1597 को हुई थी। अन्य स्रोतों से भी यही स्पष्ट होता है कि उनकी मृत्यु जनवरी 1597 में ही हुई थी। अब विद्वानों की सर्वसम्मत राय है कि यह तिथि 19 जनवरी 1597 थी।
कहा जाता है कि महाराणा प्रताप उस दिन शेर का शिकार करने जा रहे थे। उन्होंने जब अपने कमान को खींचा तो कमान या प्रत्यंचा को खींचने पर महाराणा प्रताप के पेट वाले भाग पर बहुत भयंकर चोट लगी। उस चोट के लगने पर महाराणा प्रताप गंभीर रूप से घायल हो गए थे। महाराणा प्रताप की यह गंभीर चोट उनके लिए प्राण लेवा सिद्ध हुई । क्योंकि कुछ दिनों के पश्चात वह घाव बहुत बड़ा हो गया था और महाराणा प्रताप के लिए उसका कष्ट दिन प्रतिदिन घातक होता चला गया। इसके कारण वह लंबे समय तक बीमार रहे। अंत में 19 जनवरी 1597 को महाराणा प्रताप ने इस असार संसार से विदा ली।
डॉ राकेश कुमार आर्य