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आज का चिंतन

🔥 ओ३म् 🔥 🚩 धर्म क्या है? 🚩

धर्म वह है जो मनुष्य मात्र का कल्याण करने में समर्थ हो, किसी व्यक्ति या वर्ग विशेष का नहीं।
धर्म वह है जो जीवन के सर्वांगीण विकास का मार्ग प्रशस्त करे।बौद्धिक,आत्मिक,शारीरिक,सामाजिक,राष्ट्रीय उन्नति के लिए प्रेरणा दे;जिसमें समानता,एकता,परस्पर प्रेम,सौहार्द,सद्भावना,समदृष्टि उत्पन्न करने की क्षमता हो; जो कर्तव्य पालन के प्रति सचेत करे।ऐसे धर्म को धारण करके मनुष्य का इहलोक भी सुधर सकता है और परलोक भी।
धर्म के प्रति यह दार्शनिक दृष्टिकोण कितना उदात्त व विशाल है।
यतोऽभ्युदयनि: श्रेयसस्सिद्धि स धर्म: ।।
जिससे लौकिक और पारलौकिक उन्नति हो,वही धर्म है।
पारलौकिक उन्नति से अभिप्राय आत्मिक और पारमार्थिक उन्नति है,अर्थात् केवल भौतिक उन्नति ही जीवन के लिए आवश्यक नहीं है अपितु आत्मिक उन्नति की आवश्यकता उससे भी कहीं अधिक है।
भौतिक उन्नति शरीर के लिए है और आत्मिक उन्नति आत्मा के लिए है। दोनों प्रकार की उन्नति ही मनुष्य के लिए महत्वपूर्ण है।
अहिंसा सत्यमस्तेयं शौचमिन्द्रियनिग्रह:।
दानं दमो दया क्षान्ति: सर्वेषां धर्मसाधनम् ।।
अहिंसा,सत्य,अस्तेय(चोरी न करना),पवित्रता,इन्द्रियों का संयम,दान,अन्त:करण का संयम,दया, और धैर्य धारण करना ये सभी व्यक्तियों के लिए धर्म के साधन हैं।
नाश्रम: कारणं धर्मे क्रियमाणे भवेद्धि स: ।
अतो यदात्मनोऽपथ्यम् परेषां न तदाचरेत् ।।
-याज्ञवल्क्य आचार० ७,८,१,२२ प्राय० ६५
किसी धर्म के आचरण में कोई विशेष आश्रम कारण नहीं है, वह तो करने से होता है। इसलिए जो अपने को न रुचे (अच्छा न लगे) वह दूसरों के लिए नहीं करना चाहिए।
👏मनुष्य को सदा इस बात का ध्यान रखना चाहिए कि जिसका सेवन रागद्वेष रहित विद्वान लोग नित्य करें, जिसको आत्मा सत्कर्त्तव्य जाने, वही धर्म माननीय और करणीय है।
👏सम्पूर्ण वेद, स्मृति, तथा ऋषिप्रणीत शास्त्र, सत्पुरुषों का आचार और जिस कर्म में अपनी आत्मा प्रसन्न रहे अर्थात् जिन कर्मों को करने में भय, लज्जा, शंका न हो, उन कर्मों का सेवन करना उचित है।
👏क्योंकि जो मनुष्य वेदोक्त धर्म और वेद से अविरुद्ध स्मृति में कहे गये धर्म का अनुष्ठान करता है,वह इस लोक में कीर्ति और मरकर सर्वोत्तम सुख को प्राप्त होता है।
👏परन्तु जो द्रव्यों के लोभ और काम अर्थात् विषय सेवन में फंसा हुआ नहीं होता, उसी को धर्म का ज्ञान होता है।
जो धर्म को जानने की इच्छा करें, उनके लिए वेद ही परम प्रमाण है।
👏सत्य बोलो, प्रिय बोलो।अप्रिय सत्य न बोलो, प्रिय असत्य न बोलो। यही सनातन धर्म है।
👏जो लोग सुन्दर चाल चलन वाले हैं,जो सदा प्रयत्नशील हैं,जो जप और हवन नित्य करते हैं,उनको कोई कष्ट नहीं होता।
👏धर्माचरण से ही दीर्घायु,उत्तम प्रजा और अक्षय धन मनुष्य को प्राप्त होता है,और धर्माचरण बुरे अधर्मयुक्त लक्षणों का नाश कर देता है।
👏जो दुराचारी पुरुष होता है वह सर्वत्र निन्दित,दु:खभागी और व्याधि से निरन्तर अल्पायु हो जाता है।
👏जो अधार्मिक मनुष्य है और जिसका अधर्म से संचित किया हुआ धन है,जो सदा हिंसा अर्थात् वैर में प्रवृत्त रहता है, वह इस लोक और परलोक में सुख को कभी प्राप्त नहीं हो सकता।
👏धर्माचरण करते हुए दु:ख मिलने पर भी अधर्म में मन को न लगावे, क्योंकि अधार्मिक पापीजनों को (हो सकता है कुछ काल तक सुख मिलता दिखायी पडे,पर) शीघ्र ही विपरीत अर्थात् दु:ख भी मिलता देखा जाता है।
👏मनुष्य निश्चय करके जाने कि इस संसार में जैसे कि गाय की सेवा का फल दूध आदि शीघ्र नहीं होता,वैसे ही किये हुए अधर्म (पाप) का फल भी शीघ्र नहीं होता,किन्तु धीरे-धीरे अधर्म कर्त्ता के सुखों को रोकता हुआ सुख के मूलों को काट देता है।
👏अधर्मात्मा पुरुष धर्म की मर्यादा को तोडकर विश्वासघात आदि कर्मों से पराये पदार्थों को लेकर प्रथम बढता है,धनादि ऐश्वर्य से खान पान,वस्त्र,आभूषण,स्थान,मान,प्रतिष्ठा को प्राप्त होता है,अन्याय से शत्रुओं को भी जीतता है,परन्तु शीघ्र ही नष्ट हो जाता है
जैसे जड से कटा हुआ पेड़ नष्ट हो जाता है।
👏जैसे दीमक धीरे धीरे बडे भारी घर को बना लेती है,वैसे ही मनुष्य परजन्म के सहाय के लिए सब प्राणियों को पीडा न देकर धर्म का संचय धीरे धीरे किया करे।
👏परलोक में न माता,न पिता,न पुत्र,न स्त्री,न सम्बन्धी सहाय कर सकते हैं,किन्तु एक धर्म ही सहायक होता है।
👏यज्ञ,अध्ययन,दान,तप,सत्य,धृति(धैर्य),क्षमा और निर्लोभता-यह आठ प्रकार का धर्म का मार्ग है।
इनमें से प्रारम्भिक चार दम्भ(अभिमान) के लिए भी प्रयुक्त होते हैं,परन्तु अन्तिम चार (दिखावे से रहित) महात्माओं में ही होते हैं।―(विदुर-नीति)
👏दश धर्मं न जानन्ति धृतराष्ट्र निबोध तान् ।
मत्त: प्रमत्त: उन्मत्त श्रान्त: क्रुद्धो बुभुक्षित: ।।
त्वरमाणश्च लुब्धश्च भीत: कामी च ते दश ।
तस्मादेतेषु सर्वेषु न प्रसज्जेत पण्डित: ।।
-विदुर नीति १।१०१,१०२)
हे धृतराष्ट्र ! दश प्रकार के मनुष्य धर्म को नहीं जानते,उनको मुझसे समझो वे हैं-नशेडी,असावधान,पागल,थका हुआ,क्रुद्ध,भूखा,शीघ्रकारी,लोभी,डरा हुआ और कामी।
अत: ज्ञानी मनुष्य इनसे लगाव न रखे।
👏महाराज भोज कहते हैं-
बलवानपि अशक्तोऽसौ धनवानपि निर्धन: ।
श्रुतवानपि मूर्खश्च यो धर्मविमुखो जन: ।।
वह व्यक्ति बलवान् होते हुए भी शक्तिहीन है,धनवान् होने पर भी निर्धन है,विद्वान होते हुए भी मूर्ख है जो धर्म से विमुख है।
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