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आत्मा शरीर में कहां रहता है? भाग 1

प्रथम किस्त।

विगत में कुछ लोगों के विचार वीडियो के माध्यम से सुनने और मनन करनेको मिले।
जिसमें आत्मा शरीर में कहां रहती है इस पर विभिन्न विचार जानने को मिले।
मुझे विशेष रूप से एक वीडियो ने इसलिए को लिखने पर विवश किया । उस वीडियो में यह बताया गया है कि आत्मा हृदय के अंदर नहीं रहती है । उनका तर्क था कि यदि हृदय के अंदर आत्मा रहती होती तो जब किसी एक मनुष्य का हृदय किसी दूसरे मनुष्य के शरीर में स्थानांतरित किया जाता है तो वह आत्मा उसके अंदर चली जाएगी अथवा जब सूअर का हृदय मनुष्य के हृदय के स्थान पर शरीर में प्रत्यारोपित किया जाता है तो सुअर की आत्मा उस व्यक्ति में आ जाएगी ।यह तर्क पृथक प्रथम दृश्यट्या बहुत ही सशक्त लगता है परंतु इसको लेकर जब मैंने वैदिक वांग्मय तथा दर्शनों का अध्ययन किया तो मुझे यह केवल एक भ्रांति ही उस सज्जन की लगी जो वीडियो में बोल रहे हैं ।
इस पर मैंने यह सोचा कि हमारे वैदिक वाङ्मय में आत्मा का शरीर में निवास करने का स्थान कहां पर लिखा है? उसको सुधी पाठकों के समक्ष प्रस्तुत करके इस शंका का समाधान कर सकूं।

बहुत ही महत्वपूर्ण शंका है कि आत्मा शरीर में कहां रहती है?
इस पर विचार करते समय में मुंडकोपनिषद की द्वितीय मुंडक के मंत्र 6(38 ) हिंदी भावार्थ का उल्लेख करना चाहूंगा। जिसमें निम्न प्रकार लिखा है।

मुंडकोपनिषद।

“ब्रह्म यद्यपि अपने विभुत्व गुण के कारण सभी स्थानों पर मौजूद है। परंतु उसे प्राप्त करने वाला आत्मा वहीं प्राप्त कर सकता है जहां वह भी मौजूद हो ।
शरीर के अंदर हृदय वह स्थान है जहां समस्त नाडियां इस तरह से एकत्रित है जिस तरह पहिए के धुरे में उसके सब अरे एकत्रित होते हैं ।इसी स्थान में जीव(जीवात्मा, आत्मा) निवास करता है। तथा ब्रह्म भी अपने व्यापकता से( विभुत्व से )यहां मौजूद होता है ।इसलिए यही हृदय ही वह स्थान है जहां आत्मा परमात्मा से साक्षात्कार कर सकता है।”

इसलिए उपनिषद में आत्मा और परमात्मा का साक्षात्कार होने का स्थान हृदय ही होना लिखा है ।
हृदय में ही आत्मा रहती है और परमात्मा क्योंकि सर्वत्र विद्यमान है इसलिए वह हृदय में भी होता है इसलिए दोनों का साक्षात्कार हृदय में ही होता है।

अथर्ववेद।

अथर्ववेद दसवे कांड के दूसरे सूक्त में मंत्र संख्या 31 और 32 वें
भी इसका उल्लेख आया है।
32 वे मंत्र का हिंदी अर्थ निम्न प्रकार है।
“तीन आरो से युक्त तीन केंद्रों में स्थित ऐसे उसी तेजस्वी कोष में जो आत्मावन यक्ष है उसको निश्चय ब्रह्म ज्ञानी जानते हैं।”

यहां तीन आरों और तीन केंदों की बात कही गई है। यह तीन केंद्र और तीन अरे कौन से हैं।
तीन आरे आत्मा एवं परमात्मा की तीन अवस्थाएं हैं, क्रमश: जाग्रत, स्वप्न और सूषुप्ति।
वस्तुत: आत्मा और परमात्मा एक जैसे हैं मांडूकोपनिषद के अनुसार। यद्यपि दोनों के गुण कर्म और स्वभाव अलग-अलग हैं। (अर्थात कुछ मामलों में ही आत्मा और परमात्मा एक जैसे होते इसका अर्थ यह कदापि नहीं लगा लेना है की आत्मा सो परमात्मा) परंतु कुछ समानताएं भी होती हैं जैसे आत्मा और परमात्मा दोनों की चार अवस्थाएं होती हैं। लेकिन सत्यव्रत सिद्धांतालंकार जी ने जो भाष्य किया है उसमें जाग्रत ,स्वप्न और सूषुप्ति की तीन अवस्था लिखा है। जागृत अवस्था में संसार को ईश्वर ने बनाया। सूषुप्ति अवस्था ईश्वर की प्रलय काल में होती है। स्वप्न अवस्था जिसमें संसार चलता है।

महर्षि दयानंद ने आत्मा को हृदय में स्थित होना लिखा है। महर्षि स्वामी दयानंद जी महाराज ने दसों उपनिषदों का अध्ययन करने के उपरांत यह महत्वपूर्ण बात लिखी है जो निष्कर्षात्मक और निश्चयात्मक है।
लेकिन जाग्रत स्वप्न और सूषुप्ति की अवस्था में आत्मा शरीर में अलग-अलग स्थान पर रहती है।
आत्मा शरीर में एक स्थान से दूसरे स्थान पर आती जाती रहती है । यह शरीर आत्मा ने धारण कर रखा है ।जैसे ईश्वर अपने संसार में सर्वत्र व्याप्त है और इस संसार को धारण किए हुए हैं, ऐसे ही यह आत्मा अपने इस शरीर में सर्वत्र अपनी दसों इंद्रियों अर्थात अपनी सेना और सेना के सेनापति मन को लेकर घूमती रहती है। आत्मा के शरीर में एक स्थान से दूसरे स्थान पर आने जाने के कारण ही जाग्रत, स्वप्न और सूषुप्ति की अवस्था होती है इसलिए कभी हम जाग जाते हैं, कभी सो जाते हैं।
ब्रह्मोपनिषद के अनुसार आत्मा जागृत अवस्था में आंखों में रहती है । परंतु यह भी थोड़ा गहनता से समझ लेना कोशिश करेंगे कि गोलक में नहीं ।नेत्र इंद्रियों की जो शक्ति है आत्मा उसमें रहती है । हम जानते हैं कि गोलक और नेत्र इंद्रियों की शक्ति दोनो पृथक पृथक हैं।
स्वप्न अवस्था में आत्मा कंठ में रहती है।
तथा सूषुप्ति अवस्था में हृदय में जाकर निवास करती है ।सारे उपनिषद आत्मा के हृदय में होना बताते हैं। परंतु परमात्मा और आत्मा की एक चौथी अवस्था भी है जिसको हम तुर्यावस्था कहते हैं और तुर्य अवस्था में आत्मा तथा परमात्मा अपने मूल शरीर( स्वभाव )में रहता है। यहां शरीर से तात्पर्य भौतिक शरीर नहीं बल्कि उसका अपना निजी स्वभाव है।
आत्मा शरीर में एक स्थान से दूसरे स्थान पर घूमती रहती है। लेकिन सुषुप्ति अवस्था में हृदय से निकलने वाली पुरोतक नामक नाडी में विश्राम करती है।
महर्षि स्वामी दयानंद महाराज ने अमर ग्रंथ सत्यार्थ प्रकाश के सप्तम समुल्लास में अद्वैतवाद खंडन के विषय में वर्णन करते हुए निम्न प्रकार उल्लेख किया।

“जो परमेश्वर आत्मा अर्थात जीव में स्थित और जीवात्मा से भिन्न है जिसको मूढ जीवात्मा नहीं जानता कि वह परमात्मा मेरे में व्यापक है। जिस परमेश्वर का जीवात्मा शरीर अर्थात जैसे शरीर में जीव रहता है वैसे ही जीव में परमेश्वर व्यापक है, जीवात्मा से भिन्न रहकर जीव के पाप पुण्य का साक्षी होकर उनके फल जीवों को देकर नियम (नियंत्रण)में रखता है ,वही अविनाशी स्वरूप तेरा भी अंतर्यामी आत्मा अर्थात तेरे भीतर व्यापक है उसको तू जान।

परमेश्वर शरीर में प्रविष्ट हुए जीवों के साथ अनुप्रविष्टि के समान होकर वेद द्वारा सब नाम रूप आदि की विद्या को प्रकट करता है । तथा शरीर में जीव को प्रवेश करा आप जीव के भीतर अनुप्रविष्ट हो रहा है।”
इस प्रकार से आत्मा और परमात्मा एक दूसरे से अलग नहीं रहते। परमात्मा अपने सर्वव्यापकता एवं विभुत्व गुण के कारण सभी जगह विद्यमान है। परंतु आत्मा सभी जगह विद्यमान नहीं रहता। यह आत्मा और परमात्मा में अंतर है।इसलिए हृदय एक ऐसा स्थान है जहां आत्मा और परमात्मा दोनों का मिलन एवं साक्षात्कार होता है, जैसा कि ऊपर बताया गया है।

क्रमश:
शेष द्वितीय किस्त में
देवेंद्र सिंह आर्य एडवोकेट अध्यक्ष उगता भारत समाचार पत्र ग्रेटर नोएडा
9811838317
7827 681439

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