(यह लेख माला हम पंडित रघुनंदन शर्मा जी की वैदिक सम्पत्ति नामक पुस्तक से सुधि पाठकों के लिए प्रस्तुत कर रहे हैं।)
प्रस्तुति-देवेंद्र सिंह आर्य
(चैयर मैन- ‘उगता भारत ‘)
गतांक से आगे …
इस गति से प्रकृति के पाँचों कर्म उत्पन्न होते हैं।। अग्नि का गुण ऊपर आना है, इसीलिए अग्नि के परमाणु ऊपर को चलते हैं और जल का गुण नीचे जाना है, इसलिए जल के परमाणु नीचे को जाते हैं और दोनों शक्तियाँ टकरा जाती हैं। इन दोनों विरुद्ध शक्तियों के टकराने से एक विशाल ठेलपेल ग्रारम्भ होती है। इसी समय पृथिवी के आकर्षणगुणवाले परमाणु इस विशाल ठेलपेल को ठहराते हैं, वायु के प्रसारण गुणवाले परमाणु उस सघन ठेलपेल में धक्का लगाते हैं और आकाश (ईश्वर) के परमाणु उस ठेलपेल को गमन करने के लिए स्थान देते हैं। फल वह होता है कि वह सारा परमाणुसमूह चक्राकार गति में घूम जाता है। जिस प्रकार गोली खेलनेवाले लड़के उँगलियों से गोली में दो विरुद्ध गतियों को देकर, कलाइयों से थामकर और हाथ आगे बढ़ाकर गोली को जमीन में डाल देते हैं और वह गोली नाचने लगती है, उसी प्रकार प्रकृति के पाँचों कर्म प्रकृति – परमाणु-पुञ्ज को चक्राकार गति में नचा देते हैं। यही चक्राकार गति में फिरनेवाला आदिम प्रकृतिपुब्ज वेद में हिरण्यगर्भ और लोक में ब्रह्मा कहा गया है। ऋग्वेद में लिखा है कि ‘हिरण्यगर्भः समवर्तताचे’ अर्थात् सबसे पहिले हिरण्यगर्भ नाम का महान् चमकीला और बहुत बड़ा प्राकृतिक गोला उत्पन्न हुआ। इसी हिरण्यगर्भ गोले के विषय में मनु भगवान् कहते हैं कि-
तदण्डमभवर्द्धमं सहस्रांशुसमप्रभम् । तस्मिञ्जज्ञे स्वयं ब्रह्मा सर्वलोकपितामहः ।। (मनुस्मृति)
अर्थात् हजारों सूर्य के समानवाले उस गोले में सर्वलोकपितामह – ब्रह्मा- उत्पन्न हुए। ब्रह्मा के नामों को गिनते हुए अमरकोश में लिखा है कि-
ब्रह्मात्मभूः सुरश्रेष्ठः परमेष्ठी पितामहः। हिरण्यगर्भो लोकेशः स्वयंसूचतुराननः ।। (अमरकोश) अर्थात् ब्रह्मा, आत्मभू, सुरश्रेष्ठ, परमेष्ठी, पितामह, हिरण्यगर्भ, लोकेश, स्वयंभू और चतुरानन एक ही पदार्थ के नाम हैं। इसमें ब्रह्मा और हिरण्यगर्भ को एक ही पदार्थ बतलाया है। वेद में दूसरी जगह इसी गोले को ‘सहस्रशीर्षा पुरुषः
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* तस्य सोऽनिशस्यान्ते प्रसुप्तः प्रतिबुद्धधते । प्रतिबुद्धश्व सृजति मनः सदसदात्मकम् ।। मनः सृष्टि विकुरुते चोद्यमानं सिसृक्षया ।। (मनु० १।७४-७५)
† वैशेषिक दर्शन में ‘उत्क्षेपणमवक्षेपणमाकुञ्चनं प्रसारणं गमनमिति कर्माणि’ लिखकर पाँच कर्मों का निर्देश किया गया है। ये पाँचों कर्म पाँचों भौतिक तत्वों के हैं। अग्नि कहीं भी जलाई जाय, उसकी गति ऊपर को ही होती है और जल कहीं भी डाला जाय, उसकी गति नीचे को ही होती है। इसी तरह पृथिवी भाकर्षण करती है, हवा फैलाती है और भाकाश गमनागमन के लिए स्थान देता है।
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सहस्त्राक्षः सहस्त्रपात्’ अर्थात् हजारों शिरों, हजारों आँखों और हजारों पैरोंवाला कहा गया है। अर्थात् इस आदिय सृष्टिगर्न को भारतीय साहित्य में सहस्त्रशीर्ष, हिरण्यगर्भ, स्वयम्भू, हेमाण्ड और ब्रह्मा आदि नामों से कहा गया है और इसी को पाश्चात्य वैज्ञानिक नेब्यूलाथियरी में गेसेसमास कहते हैं। यही इस वर्तमान सृष्टि का मूल और बीज है। कहते हैं कि समय पाकर इसी गोले से अनेक गोले उत्पन्न हो गये और अलग अलग अनेकों सूर्य के नाम से आकाश में फैल गये। इस प्रकार के प्रत्येक सौर जगत् को विराट् कहा गया है। मनुस्मृति में लिखा है कि उसी हिरण्यगर्भ गोले के दो भाग हो गये और उन्हीं से विराट् की उत्पत्ति हुई। वेद में लिखा है कि *’ततो विराडजवत’ अर्थात् उसी सहस्त्र शिरवाले हिरण्यगर्भ से विराट् पैदा हुआा और ‘पश्वाद सूमिमयो पुरः’ अर्थात् इसके बाद भूमि उत्पन्न हुई। इस वर्णन से मालूम होता है कि इस अनन्त सृष्टि में अनेक विराट् हैं। क्योंकि विराट् पुरुष के शरीर की जो मर्यादा वेदों में लिखी है, यह उतनी है, जितनी कि एक सौर जगत् की है। विराट् पुरुत्र का वर्णन करते हुए बेद में कहा गया है कि ‘शोष्र्णो द्यौः समवर्तत, यस्य वातः प्राणः, चक्षोः सूर्योऽजायत, दिशः श्रोत्रम्, नाभ्य सोवन्तरिक्षम् पद्भयो भूमिः’ अर्थात् विराट् का शिर द्यौ-आकाश- है।, वायु प्राण- बाहुबल है, सूर्य नेत्र है, दिशाएँ कान हैं, अन्तरिक्ष नाभि है और पृथिवी पैर है। विराट् का यह सारा वर्णन मनुष्य के रूप से मिलाया गया है और आदिम ब्रह्मारूपी पितामह की उत्पत्ति से लेकर पिता विराट् और माता पृथिवी की उत्पत्ति तक का वर्णन किया गया है। इस उत्पत्तिक्रम में पहले हिरण्यगर्भ – ब्रह्मा की उत्पत्ति बतलाई गई है, फिर ब्रह्मा से विराट् पुरुष अर्थात् सौर जगत् की उत्पत्ति बतलाई गई है और अन्त में कहा गया है कि पृथिवी उत्पन्न हुई। इस प्रकार से यह जड़ सृष्टि की उत्पत्ति का वर्णन करके अब आगे चेतनसृष्टि की उत्पत्ति का वर्णन करते हैं।
आलोक-अगले अंक मेंहम आपको बताएंगे चेतन सृष्टि की उत्पत्ति।
क्रमशः