✍️मनोज चतुर्वेदी “शास्त्री
आदरणीय मोहन भागवत और श्री इंद्रेश जी के बयानों के पश्चात मीडिया और राजनीतिक गलियारों में यह चर्चा ज़ोर पकड़ने लगी है कि क्या राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और भारतीय जनता पार्टी के बीच “खटपट” चल रही है?
यहां यह प्रासंगिक है कि श्री नरेन्द्र मोदी ने सर्वप्रथम 2014 में “हिंदूवाद” के मुद्दे को ख़ूब पुष्पित- पल्लवित किया, उसके बाद 2019 में “सबका साथ- सबका विकास” के नारे के साथ मोदी के नेतृत्व वाली भाजपा “सेक्युलरवाद” पर उतर आई, हालांकि यहां उल्लेखनीय है कि इस “छद्म सेक्युलर वादी” राजनीति को उन्होंने “राष्ट्रवाद” के पर्दे की आड़ में छुपाए रखा। 2024 में मोदी लॉबी की राजनीति केवल “सत्तावाद” तक ही सीमित रह गई है।
जिसका खामियाजा उन्हें इस चुनाव में भुगतना पड़ा, और स्वयं श्री नरेन्द्र मोदी को उन्हीं के संसदीय क्षेत्र वाराणसी में अपनी जीत के लिये लोहे के चने चबाने पड़े।
उत्तर प्रदेश, राजस्थान और महाराष्ट्र में भाजपा की जो दयनीय स्थिति हुई है, वह जगजाहिर है। यहां तक कि भाजपा को अयोध्या में भी मुहं की खानी पड़ी है।
दरअसल, पिछले कुछ वर्षों में भाजपा ने अपनी मूल विचारधारा से “अप्रत्याशित समझौते” करने आरम्भ कर दिए थे। और वह “राष्ट्रवाद” से भटककर “सत्तावाद” की ओर आकर्षित हो गई थी।
पश्चिम बंगाल और मणिपुर सहित कई राज्यों में पिछले वर्षों से अलगाववाद, साम्प्रदायिक तनाव और राजनीतिक विद्वेष बढ़ा है, परन्तु श्री मोदी सरकार चैन की बांसुरी बजाती रही है। NRC और CAA के नाम पर पूरे देश में हिंसा का भयंकर तांडव हुआ, परन्तु उस सबके बावजूद गृह मंत्रालय सख़्त कदम उठाने की अपेक्षा केवल लीपापोती में ही लगा रहा।
जनसंख्या नियंत्रण, एक समान आचार संहिता, NRC जैसे महत्वपूर्ण मुद्दों को किनारे रखकर केवल अयोध्या की परिक्रमा करने पर ही ध्यान केंद्रित किया गया।
श्री मोदी की मूल पहचान एक प्रखर राष्ट्रवादी नेता के रूप में मानी जाती रही है, लेकिन पिछले कुछ वर्षों में श्री नरेन्द्र मोदी ने इस देश के करोड़ों राष्ट्रभक्तों को निराश ही किया है।
बहरहाल, हिंदूवाद से सेक्युलरवाद और उसके बाद मात्र सत्तावाद की राजनीति में सिमट जाने वाले श्री नरेन्द्र मोदी, अब आगे क्या गुल खिलाने वाले हैं, यह देखने वाली बात होगी।
✍️समाचार सम्पादक, हिंदी समाचार-पत्र,
उगता भारत
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