अग्नि पुरुष, एक अनुभूति प्राप्त आत्मा, के क्या लक्षण हैं?

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एक गृहस्थी किस प्रकार अग्नि पुरुष के पदचिन्हों पर चल सकता है?

क्राणा रुद्रेभिर्वसुभिः पुरोहितो होता निषत्तो रयिषाळमर्त्यः।
रथो न विक्ष्वृृंजसान आयुषु व्यानुषग्वार्या देव ऋण्वति ।।
ऋग्वेद मन्त्र 1.58.3 (कुल मंत्र 676)

(क्राणा) प्रकृति के कर्मों का प्रतिनिधि (रुद्रेभिः) ज्ञान और ऊर्जा देने वाले के साथ (वसुभिः) वास देने वाले के साथ (पुरोहितः) ब्रह्माण्ड के यज्ञ का पुजारी (होता) आहुतियों का लाने वाला और प्राप्त करने वाला (निषत्तः) स्थापित (परमात्मा) (रयिषाट) सम्पदा की महिमा बढ़ाते हुए (अमर्त्यः) न मरने लायक (रथः) रथ (न) नहीं (विक्षवुः) लोगों में (ऋन्जसानः) कर्मों से सुसज्जित (आयुषु) जीवन (वि – ऋण्वति से पूर्व लगाकर) (अनुषक) लगातार, मित्रवत (वार्या) उत्तम सुविधाएँ और सम्पदा (देवः) दिव्य (ऋण्वति – वि ऋण्वति) प्राप्त करता है।

व्याख्या:-
अग्नि पुरुष, एक अनुभूति प्राप्त आत्मा, के क्या लक्षण हैं?

जब एक व्यक्ति अग्नि पुरुष बन जाता है, प्रकृति के प्रतिनिधि की तरह कार्य करता है, तो वह निम्न लक्षणों सहित ब्रह्माण्डीय यज्ञ के एक अंग की तरह जीवन जीता है।
(क) वह रुद्रेभि और वसुभि अर्थात् ज्ञान, ऊर्जा और सबके आवास के दाता के साथ कार्य करता है।
(ख) वह पुरोहितः की तरह कार्य करता है अर्थात् ब्रह्माण्डीय यज्ञ के पुजारी की तरह सबका कल्याण करता है।
(ग) वह आहुतियों का लाने वाला और प्राप्त करने वाला बनकर होता की तरह कार्य करता है।
(घ) वह निषत्तः की तरह परमात्मा में स्थापित होता है।
(ङ) वह रयिषाट अर्थात् सम्पदा की महिमा बढ़ाने वाला होता है। वह सम्पदा पर राज करता है। सम्पदा के द्वारा शासित नहीं होता।
(च) वह अमर्त्यः अर्थात् न मरने वाला हो जाता है। वह इस बात की अनुभूति प्राप्त कर लेता है कि वह एक न मरने वाली सत्ता है। अतः वह अगले जन्म की कामना नहीं करता।
(छ) वह अपने जीवन को कर्मों से सुसज्जित कर लेता है अर्थात् ऋन्जसानः आयुषु।
(ज) वह एक सुविधाजनक मार्ग पर उत्तम सुखों और सम्पदाओं को लगातार प्राप्त करता है और उनका प्रयोग करता है।

जीवन में सार्थकता: –
एक गृहस्थी किस प्रकार अग्नि पुरुष के पदचिन्हों पर चल सकता है?

महान् व्यक्तियों के जीवन उनके चित्रों के साथ अपने घरों को सुसज्जित करने तक ही सीमित नहीं करने चाहिए। बल्कि उनका आत्मिक अनुसरण करना चाहिए। प्रत्येक गृहस्थी कर्मों के नियम से बंधा होता है जिसमें अन्य परिजनों के प्रति उसके कुछ दायित्व होते हैं। अपने पारिवारिक और सामाजिक दायित्वों को निभाने के साथ-साथ ही हम अग्नि पुरुष के उन पदचिन्हों पर चल सकते हैं जिनके बारे में ऋग्वेद 1.58.2 तथा 3 में बताया गया है। सर्वोच्च ऊर्जा, परमात्मा, के प्रति चेतना पूर्वक पूरी श्रद्धा और समर्पण वाला मन निश्चित रूप से उच्च चेतना का स्तर प्रदान करता है। इसके बल पर, जब तक हम अपने दायित्वों से मुक्त न हो जायें, अपने गृहस्थ जीवन की गुणवत्ता को सुधार सकते हैं और फिर पूरी तरह से सर्वोच्च चेतना के साथ जुड़कर अपना जीवन और कार्य संचालन कर सकते हैं।
 


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