Categories
संपादकीय

भारतीय लोकतंत्र और महंगे चुनाव

स्वाधीनता के पश्चात भारत का प्रथम आम चुनाव 1952 में हुआ था। 1947 में महात्मा गांधी ने अपने शिष्य और राजनीतिक उत्तराधिकारी पंडित नेहरू को देश की जनता से पूछे बिना ही देश का प्रधानमंत्री बना दिया था। अब उन्हें पहली बार लोगों के बीच जाकर अपने लिए वोट मांगने का अवसर मिला। अन्य कोई विकल्प सामने न देखकर जनता ने उनके प्रधानमंत्री पद की दावेदारी पर पहली बार अपनी सहमति की मुहर लगाई। पंडित नेहरू ने देश का प्रधानमंत्री बनने के पश्चात पंचवर्षीय योजनाओं को आरंभ किया। वे रूस के समाजवादी दृष्टिकोण से प्रभावित थे। यही कारण था कि उन्होंने समाजवाद की ओर झुकाव रखते हुए देश को ” लोकतांत्रिक समाजवादी ” दृष्टिकोण से चलाने का निर्णय लिया।
भारत के संविधान में दी गई व्यवस्था के अनुसार संपन्न हुए लोकसभा के पहले चुनावों में उस समय मात्र 10.50 करोड़ रुपए व्यय हुए थे। भारत ने संसदीय लोकतंत्र को अपनाकर पूर्णतया दूषित हो चुकी राजतंत्रीय व्यवस्था को विदा कर दिया था। तब लोगों ने सोचा था कि अब बड़ी सहजता से अपने मध्य के लोगों को अपना प्रतिनिधि बनाकर शासन अपने हाथ में लेकर चलाएंगे। बहुत बड़ी आशाओं और सपनों के साथ हमने आगे बढ़ना आरंभ किया। यद्यपि कुछ देर पश्चात ही हमें पता चल गया कि हम गलत दिशा में आगे बढ़ते जा रहे हैं। क्योंकि कुछ परिवारों ने पुरानी राजतंत्रीय व्यवस्था के नए संस्करण के परिवारवादी राजनीतिक दलों की स्थापना करना आरंभ किया। ये राजनीतिक दल अपने-अपने नेताओं के लिए साम्राज्य स्थापित कर लोकतंत्र के अपहरण के लिए स्थापित किए गए। उन्होंने लोकतांत्रिक मूल्यों के विरुद्ध काम करना आरंभ किया। ये राजनीतिक दल धीरे-धीरे देश में एक ऐसी सेना का काम करने लगे जो अपने अपने साम्राज्य स्थापित करने के लिए कभी मुगलों के शासन काल में देखने को मिला करती थी। इन राजनीतिक दलों ने धीरे-धीरे राजनीति पर अपना एकाधिकार स्थापित किया। शासन सत्ता को हथियाने की राजनीतिज्ञों की आपाधापी में जब भारत के लोकतंत्र ने आगे बढ़ना आरंभ किया तो राजनीतिक व्यवस्था अस्त-व्यस्त होती चली गई। बाहुबली और धनबली लोगों ने सज्जनों का राजनीति में प्रवेश सर्वथा बाधित और वर्जित कर दिया । जिन लोगों को देश का जनप्रतिनिधि बनाकर उनके माध्यम से जन सेवा और राष्ट्र सेवा कराने का सुनहरा सपना लोकतंत्र ने भारत के लोगों को दिखाया था , वे जनसेवी और राष्ट्र सेवी लोग विधानमंडलों के दरवाजे को देख भी ना पाएं, ऐसी व्यवस्था कर दी गई।
देश का लोकतंत्र समाजवादी राजतंत्रात्मक लोकतंत्र के रूप में परिवर्तित हो गया। प्रधानमंत्री आते रहे और जाते रहे, परन्तु किसी ने रोगी के रोग के उपचार की ओर ध्यान नहीं दिया। निहित स्वार्थ में सत्ताधारी लोग राजनीति और लोकतंत्र का उपयोग करते रहे। फलस्वरूप राजनीति की दलदल में लोकतंत्र का रथ फंसता चला गया।

चुनावों पर सरकारी व्यय का विवरण

1952 में हुए स्वाधीन भारत के पहले आम चुनाव के पश्चात 1957 के लोकसभा चुनाव आए तो अब तक का सबसे सस्ता चुनाव उस समय हमने होता हुआ देखा। उन चुनावों में केवल 5.9 करोड़ रुपए ही सरकारी स्तर पर व्यय हुए। इसके बाद 1962 के चुनाव में 7.3 करोड़, 1967 के चौथी लोकसभा चुनाव पर10.8 करोड़ , पांचवी लोकसभा के 1971 के चुनाव में 11.6 करोड़ रुपए खर्च हुए। इसके पश्चात 1977 में जब छठी लोकसभा के चुनाव हुए तो उस समय सरकारी व्यय दुगुने से भी अधिक बढ़ा। तब सरकारी स्तर पर 23 करोड़ रूपया चुनाव पर व्यय हुआ। 1980 में यह व्यय बढ़कर 54.8 करोड़, 1984- 85 में 81.5 करोड़, 1989 में 154.2 करोड़ और 1991 – 92 में बढ़कर 359.1 करोड़ हो गया। यह व्यय 1952 के चुनाव की अपेक्षा 35 गुणा अधिक था।

1996 के लोकसभा चुनाव के समय इस खर्चे में वृद्धि होकर 597.3 करोड़ रुपया सरकारी स्तर पर व्यय हुआ । जबकि 1998 के चुनाव के समय 666.2 करोड़, 1999 के चुनाव में 947.7 करोड़, 2004 के लोकसभा के चुनाव में 1016.1 करोड़, 2009 के चुनाव पर 1114.4 करोड़ , 2014 के लोकसभा चुनाव पर 3870.3 करोड़ और 2019 के लोकसभा चुनाव पर 7000 करोड़ रूपया खर्च हुआ।
2024 में संपन्न हो रहे लोकसभा चुनाव पर यह खर्च बढ़कर 1.20 लाख करोड़ का हो गया है। विशेषज्ञों की मानें तो भारत में ग्राम सभा से लेकर लोकसभा तक जितना चुनाव खर्च होता है, यदि सरकारी आंकड़ों के अनुसार भी उसको देखा जाए तो यह 10 लाख करोड़ से भी ऊपर चला जाता है। निश्चित रूप से इतनी बड़ी धनराशि हमारे देश के कई राज्यों के बजट से भी अधिक है। जिस फिजूलखर्ची की प्रतीक राजशाही से बचने के लिए हमारे संविधान निर्माताओं ने लोकशाही को देश में स्थापित किया था, क्या उसके बारे में उन्होंने कभी सोचा होगा कि यह भविष्य में जाकर इतनी महंगी हो जाएगी कि फिजूलखर्ची भी इसे देखकर अपने आपको लज्जित अनुभव करने लगेगी? इतनी बड़ी धनराशि को देखकर लगता है कि हम अपने लिए जनप्रतिनिधि नहीं चुन रहे हैं अपितु राजा चुन रहे हैं । देश के संविधान निर्माताओं ने इतनी महंगी चुनावी प्रक्रिया की संभवत: कल्पना भी नहीं की होगी। उनका सपना था कि लोकतंत्र में विद्वान, देशभक्त, समाज सेवी और राष्ट्र प्रेमी लोग आगे आएं। उन्हें अपनी योग्यता का उत्कृष्टतम प्रदर्शन करने का अवसर उपलब्ध हो। उन योग्यतम विद्वान व्यक्तियों के चुनाव के लिए धनबल और बाहुबल कहीं दूर तक भी दिखाई ना दे, परंतु यथार्थ में हमने देखा कि देश के संविधान की मूल भावना की हत्या करके धनबली और बाहुबली आगे बढ़ने लगे। अयोग्यतम व्यक्ति देश के प्रतिनिधि बनने लगे और योग्यतम प्रतियोगिता की दौड़ से बाहर हो गये। यद्यपि अपवाद हर स्थान पर होते हैं, माना जा सकता है कि राजनीति में भी अपवाद हैं ,परंतु वर्चस्व उन लोगों का होना माना जाना चाहिए जो राजनीति के लिए भले ही उपयुक्त हों, पर देश सेवा के लिए उपयुक्त नहीं कहे जा सकते।
यही कारण है कि स्वाधीन भारत की राजनीति भ्रष्टाचार की जननी हो गई। जनता के प्रतिनिधियों की सुरक्षा और सुविधाओं पर हमें राजा महाराजाओं की भांति खर्च करना पड़ता है।
आज अयोग्यतम व्यक्तियों के चुनाव के लिए ही राजकोष पर इतना अधिक भार देश की अर्थव्यवस्था को झेलना या ढोना पड़ रहा है । यह तो हुआ चुनाव खर्च , जो 5 वर्ष में आधुनिक राजा महाराजाओं के चुनाव पर हमें खर्च करना पड़ता है, इसके अतिरिक्त उनके वेतन, भत्ते सुविधा, सरकारी आवास, सुरक्षा आदि पर होने वाले खर्च को भी यदि इसमें जोड़ा जाए तो आंखें फटी की फटी रह जाती हैं।
एक आंकलन के अनुसार अब तक 17930 करोड़ रूपया ( इसमें प्रत्याशियों के द्वारा खर्च की जाने वाली लाखों करोड़ रुपए की धनराशि सम्मिलित नहीं है ) देश के खजाने से लोकसभा चुनावों पर खर्च हो चुका है। स्वाधीनता के पश्चात हुए अब तक के लोकसभा चुनावों पर 73 वर्ष में चुनावी खर्च 380 गुणा बढ़ा है। यह बात भी ध्यान देने योग्य है कि 1951 में जब पहले चुनाव की तैयारी की जा रही थी तो 25000 रुपया एक प्रत्याशी को उस समय अपने चुनाव पर खर्च करने की अनुमति दी गई थी। 1980 में इसे 10 लाख कर दिया गया। 1998 में 15 लाख, 2004 में संपन्न हुए लोकसभा चुनाव के समय 25 लाख रुपए और 2014 में 70 लाख रुपए किया गया। इसके पश्चात 2019 में इसे बढ़ाकर 95 लाख रुपए कर दिया गया। इसी धनराशि को 2024 में संपन्न हुए लोकसभा चुनावों के समय प्रत्येक प्रत्याशी द्वारा खर्च करने के लिए निर्धारित किया गया। यह अलग बात है कि अधिकांश प्रत्याशी चुनाव में इस धनराशि से बहुत आगे जाकर खर्च करते हैं। इस बात को चुनाव आयोग भी जानता है।

समस्या का दूसरा पहलू

अब आते हैं समस्या के एक दूसरे पहलू पर। हमारा मानना है कि यह समस्या ही वर्तमान में भारत में व्याप्त बेरोजगारी, भुखमरी, अपराध और निर्धनता को बढ़ाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभा रही है। इसको समझने पर पता चल जाता है कि वर्तमान भारत की बेरोजगारी, भुखमरी, अपराध और गरीबी की समस्याओं का मूल कारण भी यह लोकतंत्र ही बन चुका है। कहा जाता है कि लोकतंत्र इन सबसे लड़ता है, परन्तु यदि भारत की सामाजिक समस्याओं को समझा जाए तो पता चलता है कि भारत में लोकतंत्र ही इन सारी समस्याओं को उत्पन्न करता है। समझने की बात है कि भारत में ग्राम प्रधान से लेकर संसद तक के चुनाव में खड़े होने वाले लोग विपुल धन पानी की तरह बहाते हैं।
इसमें दो मत नहीं हैं कि अनेक लोग भारत में इस समय ऐसे हैं जो राज्यसभा सांसद बनने के लिए कई सौ करोड़ रुपए देने को तत्पर बैठे हैं। यही लोग जब किसी पार्टी से लोकसभा में जाने के लिए चुनाव लड़ते हैं तो उसमें भी पानी की भांति धन बहाते हैं। चुनाव में हारा हुआ प्रत्याशी नए सिरे से अगले चुनाव लड़ने की तैयारी करता है । जिसके लिए वह पहले दिन से ही धन जोड़ना आरंभ करता है। इसके लिए उसे पार्टी में बड़े नेताओं का संरक्षण पाने के लिए वहां भी ‘चढ़ावा’ चढ़ाना पड़ता है। अपने साथ कुछ लोगों को साथ लेकर चलना पड़ता है, उन सबकी सारी आर्थिक जिम्मेदारियों को सहन करना पड़ता है। तब उसे इस सारे खर्चे को निकालने के लिए लोगों की संपत्तियों पर अवैध कब्जा करना और अपराध के माध्यम से लोगों में डर पैदा करने जैसे हथकंडों को अपनाना पड़ता है।
आज की राजनीति का सच यह है कि जो व्यक्ति इन सब कामों को कर सकता है, वही राजनीति में टिक सकता है। ऐसा न करने वालों को या तो राजनीति छोड़ देती है या वह राजनीति को छोड़कर चले जाते हैं। राजनीतिक लोगों की यह ‘ समाज सेवा’ ही देश में गरीबी, भुखमरी, बेरोजगारी आदि को फैलाती है। निश्चित रूप से हमने भारत की 18वीं लोकसभा के चुनाव को विश्व के सबसे महंगे चुनाव के रूप में लड़ा है। जिसमें सरकारी कोष से व्यय होने वाली धनराशि और प्रत्याशियों के द्वारा खर्च किए जाने वाले धन को जोड़ने से पता चलता है कि हम चुनाव पर ही लाखों करोड़ रुपए खर्च कर रहे हैं।
सांसद और विधायक से अलग हमारे देश में जिला परिषदों के चुनाव भी होते हैं। जिसके अध्यक्ष के लिए पार्टियों में बड़ी मारामारी होती है। यदि बात एन0सी0आर0 की करें तो यहां पर जिला परिषद का अध्यक्ष बनने के लिए लोग बहुत भारी धन खर्च करते हैं। यहां तक कि ब्लॉक प्रमुख बनने के लिए भी लोग एक-एक मतदाता को बड़ी-बड़ी गाड़ी दान में दे देते हैं। राजनीतिक दलों को सच्चाई की पता है, पर पता होते हुए भी उपचार करने को कोई उद्यत नहीं है। इस प्रकार के राजनीतिक दुराचरण के चलते सज्जनों का राजनीति में प्रवेश कुंठित हो गया
है।

कभी इस बात पर चर्चा नहीं होती….

देश से बाहर कितना काला धन है ? इस पर अक्सर लेख लिखे जाते हैं,चर्चाएं होती हैं। राजनीतिक दल भी एक दूसरे पर कीचड़ उछालते रहते हैं कि अमुक पार्टी के अमुक नेता ने इतना काला धन ले जाकर विदेश में जमा कर दिया है ? परंतु इस पर चर्चा नहीं होती कि राजनीतिक लोगों के द्वारा देश के आम चुनाव को ही कितना महंगा कर दिया गया है ? चर्चा इस बात पर भी नहीं होती कि लोकतंत्र में एक साधारण व्यक्ति को अपनी योग्यता और विद्वत्ता को देश सेवा के लिए समर्पित करने का अवसर क्यों नहीं दिया जाता ? अंततः किसने उसके अवसर की समानता को उससे छीन लिया है?
ग्राम प्रधान से लेकर सांसद तक की सीट को खुले आम लोग खरीद रहे हैं। सीटें नीलाम हो रही हैं। उसके साथ-साथ लोकतंत्र नीलाम हो रहा है। संविधान की धज्जियां उड़ाई जा रही हैं। संविधान की मूल भावना के साथ खिलवाड़ किया जा रहा है। …..और हम सब मौन होकर देखने के लिए अभिशप्त हैं। ऐसे में प्रश्न उत्पन्न होता है कि क्या हमारे लिए राजतंत्रीय व्यवस्था ही उपयुक्त नहीं थी ? जिसमें बैठे लोग कम से कम धन के भूखे तो नहीं थे। हमने ‘भूखों’ को ‘राजा’ बनाने के लिए देश के संसदीय लोकतंत्र की खोज की थी या फिर ” राजाओं ” को भूखों की सेवा करने के लिए संसदीय लोकतंत्र को स्थापित किया था? निश्चित रूप से हमारे संविधान निर्माताओं ने राजाओं को अर्थात देश के जनप्रतिनिधियों को भूखों की सेवा करने के लिए ही संसदीय लोकतंत्र को स्थापित किया था। हमने ही “भूखों को ” अर्थात सर्वथा निकृष्ट और निम्न स्तरीय लोगों को राजा अर्थात अपना जन प्रतिनिधि बनाकर देश के संसदीय लोकतंत्र का गला घोंट दिया है। ऐसे निकृष्ट लोगों के कारण ही देश का संसदीय लोकतंत्र का चुनाव महंगा होता जा रहा है। लोगों की ओर से यह मांग आनी चाहिए कि सरकार चुनाव सुधार की दिशा में काम करते हुए इस ओर विशेष ध्यान दे। अभी तक देश में जितने भी आम चुनाव हुए हैं, उनमें किसी में भी देश की राजनीति को शुद्ध करने का नारा किसी राजनीतिक दल द्वारा नहीं दिया गया। कभी किसी भी राजनीतिक दल को हमने राजनीति में शुचिता लाने के लिए काम करने की प्रतिज्ञा लेते हुए नहीं देखा।

राजनीति, राजनीतिज्ञ और राजनेता

हमारे संविधान की मूल भावना है कि देश के राजनीतिक दल ” राष्ट्रनीति ” को अपनाएंगे और राष्ट्र नीति के माध्यम से जन सेवा को अपने जीवन का व्रत बनाएंगे। उनका व्रत राष्ट्रीय संकल्प बनेगा और उस राष्ट्रीय संकल्प से देश वैश्विक नेतृत्व करने की स्थिति में आएगा। इस संवैधानिक संकल्पना के विरुद्ध देश के हर राजनीतिज्ञ को वर्तमान परिस्थितियों में अपना स्वार्थ सिद्ध करना प्राथमिकता पर दिखाई देता है। इसके विपरीत किसी भी राजनेता को राष्ट्रहित दिखाई देता है। राजनीतिज्ञ अपने निहित स्वार्थ की राजनीति करता है। जब कि राजनेता देश के और राष्ट्र के भविष्य निर्माण की योजना में निमग्न रहता है। यही कारण है कि जहां राजनीतिज्ञ छोटी-छोटी बातों को तूल देकर देश के माहौल को बिगाड़ने का प्रयास करके अपने लिए सत्ता में पहुंचने या सत्ता में बने रहने की राह सुगम करते हुए देखे जाते हैं, वहीं राजनेता छोटी-छोटी नहीं अपितु बड़ी-बड़ी बातों पर भी मरहम लगाते दिखाई देते हैं।
कांग्रेस के नेता राहुल गांधी वर्तमान में जिस प्रकार की राजनीति कर रहे हैं उनकी वह राजनीति उन्हें राजनीतिज्ञ बनाती है या राजनेता बनाती है ? राहुल गांधी के साथ सबसे बड़ी समस्या यह है कि वह अपने आप को यह सिद्ध नहीं कर पाए हैं कि वह हिंदू विरोध की राजनीति कर रहे हैं या बहुसंख्यक समाज के हितों को भी उतनी ही प्राथमिकता देने की राजनीति कर रहे हैं जितनी वह अल्पसंख्यकों के हितों को प्राथमिकता देकर राजनीति देते रहे हैं ? राहुल गांधी भारत के बहुसंख्यक समाज और भारतीयता के प्रतीक श्री राम की जन्म भूमि पर जहां नकारात्मक सोच और चिंतन रखते हैं वहीं वे इस्लाम के मूलतत्ववाद पर अपना दूसरा दृष्टिकोण रखते हैं। यह तब है जबकि भारत का भारतीय दर्शन , सोच और चिंतन श्री राम जी के माध्यम से देश में समरसता और सद्भाव को जन्म देता है जबकि इस्लाम का मूलतत्ववाद देश में उपद्रव , हिंसा और आगजनी को बढ़ावा देता है। अपनी इस सोच के कारण राहुल गांधी इस्लामिक मूलतत्ववाद में विश्वास रखने वाले लोगों के विरुद्ध सर्वथा मौन साधते देखे जाते हैं। उनकी इस प्रकार की राजनीति को देश का जनमानस नकार रहा है। पिछले लोकसभा चुनावों के समय में भी कांग्रेस के नेताओं ने मुस्लिम तुष्टिकरण का खेल खेला था,परंतु उस समय लोग इतने अधिक जागरूक नहीं थे, जितने आजकल हैं।

डॉ राकेश कुमार आर्य

Comment:Cancel reply

Exit mobile version