पुण्य तिथि 9 जून पर शत शत नमन-
धर्मरक्षक बिरसा मुंडा का जन्म 15 नवम्बर 1875 को खूंटी जिले के अडकी प्रखंड के उलिहातु गाँव में हुआ था। उस समय ईसाई स्कूल में प्रवेश लेने के लिए इसाई धर्म अपनाना जरुरी हुआ करता था। तो बिरसा ने धर्म परिवर्तन कर अपना नाम बिरसा डेविड रख दिया गया। उस समय ईसाई पादरी आदिवासियों की जमीन पर मिशन का कब्जा करने की कोशिश करते थे। बिरसा ने इसका विरोध किया जिस कारण वो स्कूल से निकाल दिए गये। ईसाईयों द्वारा प्रलोभन एवं छल-कपट से वनवासीयों का धर्मांतरण करने के दुष्चक्र को देखकर अत्यंत व्यथित हुए। उन्होंने ईसाई मिशनरी का विरोध करना आरम्भ कर दिया।
1890-91 से करीब पांच साल तक वैष्णव संत आनन्द पांडे से वैष्णव आचार-विचार का ज्ञान प्राप्त किया और व्यक्तिगत एवं सामजिक जीवन पर धर्म के प्रभाव पर मनन किया। परम्परागत धर्म की ओर उनकी वापसी हुई और उन्होंने धर्मोपदेश देना तथा धर्माचरण का पाठ पढाना शुरू किया। ईसाई छोड़ने वाले सरदार सरदार बिरसा के अनुयायी बनने लगे। बिरसा का पंथ मुंडा जनजातीय समाज के पुनर्जागरण का जरिया बना। उनका धार्मिक अभियान कालांतर में आदिवासियों को अंगेजी हुकुमत और इसाई मिशनरियों के विरोध में संगठित होकर आवाज बुलंद करने को प्रेरित करने लगा। उन्होंने मुंडा समाज में व्याप्त अन्धविश्वास और कुरीतियों पर जमकर प्रहार किया। वह जनेऊ ,खडाऊ और हल्दी रंग की धोती पहनने लगे। उन्होंने कहा की ईश्वर एक है। भुत-प्रेत की पूजा और बलि देना निरर्थक है। सार्थक जीवन के लिए सामिष भोजन और मांस -मछली का त्याग करना जरुरी है। हंडिया पीना बंद करना होगा।
अंग्रेजों द्वारा गौहत्या को देखकर बिरसा मुंडा बहुत व्यथित हुए। उन्होंने इसे सरासर अत्याचार बताया। अंग्रेजों द्वारा विदेशी पहनावा, विदेशी विचार भोले भाले वनवासियों पर लादने का भी बिरसा ने विरोध किया। उनके अनुसार ईसाइयत का कार्य भारतवासियों को अपनी ही जड़ों से दूर करने जैसा हैं।
बिरसा मुंडा ने वनवासियों को एकत्र कर अपनी सेना बनाई और अंग्रेजों से लोहा लिया। नींद में सोते हुए उन्हें अपनी सेना के साथ पकड़ कर जेल भेज दिया गया। जहाँ उनकी केवल 25 वर्ष की आयु में 9 जून को मृत्यु हो गई। ब्रिटिश के अनुसार उनकी मृत्यु का कारण हैजा था परन्तु स्थानीय लोगों का कहना था कि उन्हें विष दिया गया था।
बिरसा मुंडा के लक्ष्य को पूरा करने के लिए झारखंड सरकार ने धर्मांतरण विरोधी कानून बनाया है। इस कानून के अंतर्गत झूठ,फरेब और प्रलोभन से ईसाई धर्मान्तरण को क़ानूनी रूप से दंडनीय बताया गया है।
यह कानून ही भगवान बिरसा मुण्डा को सच्ची श्रद्धांजली है।
बिरसा मुंडा गोरक्षक, स्वदेशी जागरण के उद्घोषक, प्राचीन मान्यताओं एवं धार्मिक परम्पराओं के समर्थक, अंग्रेजों के शत्रु, ईसाई धर्मान्तरण के घोर विरोधी थे।खुद को मूल निवासी और अम्बेडकरवादी कहने वाले लोग बिरसा मुंडा का केवल वोट के लिए नाम लेते हैं। उनके चिंतन और जीवन के उद्देश्य को वे किसी भी प्रकार से नहीं मानते। उल्टा उसके विपरीत चलते है। अम्बेडकरवादी वनवासी क्षेत्र में ईसाइयों द्वारा चलाये जा रहे धर्मान्तरण का कभी विरोध नहीं करते। अम्बेडकरवादी न ही कभी गौहत्या का विरोध करते है। उलटे गौहत्या करने वालों की पीठ थपथपाते है। अम्बेडकरवादी यज्ञ, जनेऊ और वेद को अन्धविश्वास बताते है और बाइबिल को धर्मपुस्तक कहकर उसकी प्रशंसा करते हैं। अम्बेडकरवादी केवल मनुवाद और ब्राह्मणवाद चिल्ला कर वनवासियों के वोट लेकर अपनी तुच्छ राजनीति चमकाते हैं। वनवासियों के जीवन में सुधार कार्य करने में उनकी कोई रूचि नहीं हैं। अम्बेडकरवादी विदेशी NGO के माध्यम से वनवासी क्षेत्र में कोई भी विकास कार्य नहीं चलने देते। पर्यावरण प्रदुषण और जमीन अधीग्रहण के नाम पर कोर्ट में याचिकाएं डालकर किसी भी बड़े कारखाने को खुलने से रोकते हैं। क्यूंकि अगर वनवासी निर्धन रहेंगे तो ईसाईयों के धर्मान्तरण का आसानी से शिकार बनेंगे।