अग्नि पुरुष का जीवन कैसा लगता है?

एक सामान्य गृहस्थी किस प्रकार उच्च चेतना के स्तर पर एक महान् आध्यात्मिक जीवन जी सकता है?

आ स्वमद्य युवमानो अजरस्तृृष्वविष्यत्रतसेषु तिष्ठति।
अत्यो न पृृष्ठं प्रुषितस्य रोचते दिवो न सानु स्तनयत्र चिक्रदत्् ।।
ऋग्वेद मन्त्र 1.58.2

(आ – युवमानः से पूर्व लगाकर) (स्वम्) स्वयं, उसका अपना (अद्यम्) भाग (कर्मफल का, भोजन का) (युवमानः – आ युवमानः) संयुक्त करता है, जीवन में मिश्रित करता है (अजरः) बिना रोग के (तृृषु) खाने की भूख पर (अविष्यन्) भोग करता है, सुरक्षित करता है (अतसेषु) आकाश में, अन्तरिक्ष में (तिष्ठति) स्थापित (अत्यः) अश्व (न) जैसे कि (पृृष्ठम्) पीठ पर, सामने (प्रुषितस्य) सर्वोच्च शक्ति का कार्य करते हुए (रोचते) चमकता है, प्रकाशित होता है (दिवः) दिव्य (न) जैसे (सानु) पर्वत की चोटी (स्तनयन्) नाम का उच्चारण करते हुए (परमात्मा के) (अचिक्रदत््) स्तुति की ध्वनि करते हुए, परमात्मा का आह्वान करते हुए।

व्याख्या:-
अग्नि पुरुष का जीवन कैसा लगता है?

ऋग्वेद 1.58.1 के अनुसार एक इन्द्र पुरुष अपने जीवन की प्रारम्भिक अवस्था में ही अग्नि पुरुष बन जाता है और यह वर्तमान मन्त्र अग्नि पुरुष के जीवन की ही आगे व्याख्या करते हुए कहता है:-
1. वह अपने जीवन में कर्मों के फल रूपी अपने भाग को सम्मिलित कर देता है।
2. वह रोगों से रहित जीवन जीता है, क्योंकि वह केवल उतना ग्रहण करता है जितना खाने के लिए नितान्त आवश्यक होता है। वह शरीर के संरक्षण के लिए ही भोजन ग्रहण करता है, आनन्द के लिए नहीं।
3. उसकी आत्मा अपने भीतर ही गहरे अन्तरिक्ष में स्थापित होती है।
4. जिस प्रकार एक अश्व अपनी पीठ पर बोझ लादकर चलता है, एक अग्नि पुरुष भी उसी प्रकार सर्वोच्च शक्ति, परमात्मा, के कार्यों को करने में व्यस्त रहता है।
5. वह एक पर्वत की चोटी की तरह दिव्यता की चमक पैदा करता है।
6. वह परमात्मा की स्तुति और आह्वान के लिए परमात्मा के नाम का उच्चारण करता है।

जीवन में सार्थकता: –
एक सामान्य गृहस्थी किस प्रकार उच्च चेतना के स्तर पर एक महान् आध्यात्मिक जीवन जी सकता है?

हम एक सामान्य गृहस्थी जीवन जीते हुए भी एक अग्नि पुरुष के जीवन से महान् प्रेरणाएं प्राप्त कर सकते हैं।
1. प्रतिक्षण हमें प्रत्येक अवस्था के समक्ष नतमस्तक होना चाहिए, क्योंकि प्रत्येक अवस्था हमारे पूर्व जन्मों एवं कर्मों का ही फल होती है। किसी भी अवस्था के प्रति अच्छे या बुरे की प्रतिक्रिया नहीं होनी चाहिए। पूरी चेतना के साथ हमें प्रत्येक अवस्था को स्वीकार करना चाहिए। यह चेतना हमें मन का संतुलन और परिणामतः एक स्थिर मानसिक स्वास्थ्य प्रदान करेगी।
2. बिना रोगों का जीवन जीने के लिए हमें केवल स्वास्थ्यवर्द्धक भोजन ही ग्रहण करना चाहिए और वह भी तब जब भूख की अनुभूति हो। हमारा ध्यान सदैव स्वास्थ्य जीवन पर रहना चाहिए। स्वास्थ्य के साथ कोई समझौता नहीं। भोजन केवल शरीर के संरक्षण के लिए ग्रहण किया जाये, मजे के लिए नहीं।
3. हमें परमात्मा के अश्व की तरह कार्य करना चाहिए, उसके लिए कार्य करना, उसके नाम पर कार्य करना।
4. हमें उच्च चेतना के स्तर पर अर्थात् परमात्मा तथा उसकी दिव्यताओं पर विचार करते हुए जीवन जीना चाहिए, निरर्थक सांसारिक प्रकृति के विषयों पर कोई ध्यान न दें या न्यूनतम ध्यान दें, विशेष रूप से जब हमारा अपना अहंकार या इच्छाएँ शामिल हों।
5. हमें सदैव परमात्मा के नाम का उच्चारण करते रहना चाहिए या उसकी स्तुति या आह्वान में अपने मन को तरंगित रखना चाहिए और यह केवल उसकी संगति के लिए हो सांसारिक प्रार्थनाओं के लिए नहीं।


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