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पर्यावरण

वेदों में पर्यावरण विज्ञान

लेखक- स्वर्गीय डॉ रामनाथ वेदालंकार
प्रस्तोता- प्रियांशु सेठ
सहयोगी- डॉ विवेक आर्य
(आज 5 जून “विश्व पर्यावरण दिवस” पर विशेष रूप से प्रकाशित)
वेद का सन्देश है कि मानव शुद्ध वायु में श्वास ले, शुद्ध जल को पान करे, शुद्ध अन्न का भोजन करे, शुद्ध मिट्टी में खेले-कूदे, शुद्ध भूमि में खेती करे। ऐसा होने पर ही उसे वेद-प्रतिपादित सौ वर्ष या सौ से भी अधिक वर्ष की आयु प्राप्त हो सकती है। परन्तु आज न केवल हमारे देश में, अपितु विदेशों में भी प्रदूषण इतना बढ़ गया है कि मनुष्य को न शुद्ध वायु सुलभ है, न शुद्ध जल सुलभ है, न शुद्ध अन्न सुलभ है, न शुद्ध मिट्टी और शुद्ध भूमि सुलभ है। कल-कारखानों से निकले अपद्रव्य, धुओं, गैस, कूड़ा-कचरा, वन-विनाश आदि इस प्रदूषण के कारण हैं। प्रदूषण इस स्थिति तक पहुंच गया है कि कई स्थानों पर तेजाबी वर्षा तक हो रही है। 18 जुलाई, 1983 के दिन भारत के बम्बई शहर में तेजाबयुक्त वर्षा हो चुकी है। यदि प्रदूषण निरन्तर बढ़ता गया तो वह दिन दूर नहीं जब यह भूमि मानव तथा अन्य प्राणियों के निवासयोग्य नहीं रह जायेगी।
पर्यावरण-प्रदूषण की चिन्ताजनक स्थिति को देखकर 5 जून, 1972 को बारह संयुक्त राष्ट्रों की एक बैठक इस विषय पर विचार करने के लिए स्टाकहोम (स्वीडन) में आयोजित हुई थी, जिसके फलस्वरूप विभिन्न राष्ट्रों द्वारा पर्यावरण-सुरक्षा हेतु प्रभावशाली कदम उठाए गए। उक्त गोष्ठी में भारत की तीसरी प्रधानमंत्री श्रीमती इंदिरा गांधी ने भी ‘पर्यावरण की बिगड़ती स्थिति एवं उसका विश्व के भविष्य पर प्रभाव’ विषय पर भाषण दिया था। उसके पश्चात् भारत में पर्यावरण-प्रदूषण का अध्ययन करने, उसे रोकने के उपाय सुझाने एवं उनके क्रियान्वयन करने हेतु अनेक सरकारी तथा व्यक्तिगत या जनता की ओर से सामूहिक प्रयास होते रहे हैं तथा आज भी अनेक संस्थाएं इस दिशा में कार्यरत हैं। प्रस्तुत लेख में हम यह दर्शायेंगे कि वेद का पर्यावरण के सम्बन्ध में क्या विचार है!
1. वायु- स्वच्छ वायुमण्डल का महत्त्व
स्वच्छ वायु का सेवन ही प्राणियों के लिए हितकर है यह बात वेद के निम्न मन्त्रों से प्रकट होते हैं-
वात आ वातु भेषजं शम्भु मयोभु नो हृदे।
प्र ण आयूंषि तारिषत्।। -ऋ० १०/१८६/१
वायु हमें ऐसा ओषध प्रदान करे, जो हमारे हृदय के लिए शांतिकर एवं आरोग्यकर हो, वायु हमारे आयु के दिनों को बढ़ाए।
यददो वात ते गृहेऽमृतस्य निधिर्हित:।
ततो नो देहि जीवसे।। -ऋ० १०/१८६/३
हे वायु! जो तेरे घर में अमृत की निधि रखी हुई है, उसमें से कुछ अंश हमें भी प्रदान कर, जिससे हम दीर्घजीवी हों।
यह वायु के अन्दर विद्यमान अमृत की निधि ओषजन या प्राणवायु है, जो हमें प्राण देती है तथा शारीरिक मलों को विनष्ट करती है। उक्त मन्त्रों से यह भी सूचित होता है कि प्रदूषित वायु में श्वास लेने से मनुष्य अल्पजीवी तथा स्वच्छ वायु में कार्बन-द्विओषिद की मात्रा कम तथा ओषजन की मात्रा अधिक होती है। उसमें श्वास लेने से हमें लाभ कैसे पहुंचता है, इसका वर्णन वेद के निम्नलिखित मन्त्रों में किया गया है-
द्वाविमौ वातौ वात आ सिन्धोरा परावत:।
दक्षं ते अन्य आ वातु परान्यो वातु यद्रप:।।
आ वात वाहि भेषजं वि वात वाहि यद्रप:।
त्वं हि विश्वभेषजो देवानां दूत ईयसे।। -ऋ० १०/१३७/२,३ अथर्व० ४/१३/२,३
ये श्वास-निःश्वास रूप दो वायुएँ चलती हैं, एक बाहर से फेफड़ों के रक्त-समुद्र तक और दूसरी फेफड़ों से बाहर के वायुमंडल तक। इनमें से पहली, हे मनुष्य तुझे बल प्राप्त कराए और दूसरी रक्त में जो दोष है उसे अपने साथ बाहर ले जाये। हे शुद्ध वायु, तू अपने साथ ओषध को ला। हे वायु, शरीर में जो मल है उसे तू बाहर निकाल। तू सब रोगों की दवा है, तू देवों का दूत होकर विचरता है।
वनस्पतियों द्वारा वायु-शोधन-
कार्बन-द्विओषिद की मात्रा आवश्यकता से अधिक बढ़ने पर वायु प्रदूषित हो जाता है। वैज्ञानिक लोग बताते हैं कि प्राणी ओषजन ग्रहण करते हैं तथा कार्बन-द्विओषिद छोड़ते हैं, किन्तु वनस्पतियां कार्बन-द्विओषिद ग्रहण करती हैं तथा ओषजन छोड़ती हैं। वनस्पतियों द्वारा ओषजन छोड़ने की यह प्रक्रिया प्रायः दिन में ही होती है, रात्रि में वे भी ओषजन ग्रहण करती तथा कार्बन-द्विओषिद छोड़ती हैं। पर कुछ वनस्पतियां ऐसी भी हैं जो रात्रि में भी ओषजन ही छोड़ती हैं। कार्बन-द्विओषिद को चूसने के कारण वनस्पतियां वायु-शोधन का कार्य करती हैं। वायु-प्रदूषण से बचाव के लिए सबसे कारगर उपाय वनस्पति-आरोपण है। वेद भगवन् का सन्देश है “वनस्पति वन आस्थापयध्वम् अर्थात् वन में वनस्पतियाँ उगाओ -ऋ० १०/१०१/११”। यदि वनस्पति को काटना भी पड़े तो ऐसे काटें कि उसमें सैकड़ों स्थानों पर फिर अंकुर फूट आएं। वेद का कथन है-
अयं हि त्वा स्वधितिस्तेतिजान: प्रणिनाय महते सौभगाय।
अतस्त्वं देव वनस्पते शतवल्शो विरोह, सहस्रवल्शा वि वयं रुहेम।। -यजु० ५/४३
हे वनस्पति, इस तेज कुल्हाड़े ने महान सौभाग्य के लिए तुझे काटा है, तू शतांकुर होती हुई बढ़, तेरा उपयोग करके हम सहस्रांकुर होते हुए वृद्धि को प्राप्त करें।
अथो त्वं दीर्घायुर्भूत्वा शतवल्शा विरोहतात्। -यजु० १२/१००
हे ओषधि, तू दीर्घायु होती हुई शत अंकुरों से बढ़।
वेद सूचित करता है कि सूर्य और भूमि से वनस्पतियां में मधु उत्पन्न होता है, जिससे वे हमारे लिए लाभदायक होती हैं-
मधुमान्नो वनस्पतिर्मधुमाँ अस्तु सूर्य्य:।
माध्वीर्गावो भवन्तु न:।। -यजु० १३/२९
वनस्पति हमारे लिए मधुमान हो, सूर्य हमारे लिए मधुमान् हो, भूमियाँ हमारे लिए मधुमती हों।
फूलों-फलों से लदी हुई ओषधियां नित्य भूमि पर लहलहाती रहें, ऐसा वर्णन भी वेद में मिलता है- “ओषधी: प्रतिमोदध्वं पुष्पवती: प्रसूवरी: -ऋ० १०/९७/३”। वेद यह भी कहता है “मधुमन्मूलं मधुमदग्रमासां मधुमन्मध्यं वीरुधां बभूव। मधुमत्पर्णं मधुमत्पुष्पमासां अर्थात् ओषधियों का मूल, मध्य, अग्र, पत्ते, फूल सभी कुछ मधुमय हों -अथर्व० ८/७/१२”।
वेद मनुष्य को प्रेरित करता है “मापो मौषधीहिंसी: अर्थात् तू जलों की हिंसा मत कर, ओषधियों की हिंसा मत कर -यजु० ६/२२”। जलों की हिंसा से अभिप्राय है उन्हें प्रदूषित करना तथा ओषधियों की हिंसा का तात्पर्य है उन्हें विनष्ट करना।
अथर्ववेद के एक मन्त्र में ओषधियों के पांच वर्ग बताए गए हैं तथा यह भी कहा गया है कि ये हमें प्रदूषण (अहंस्) से छुड़ाए-
पञ्च राज्यानि वीरूधां सोमश्रेष्ठानि ब्रूम:।
दर्भो भङ्गो यव: सहस्ते नो मुञ्चन्त्वंहस:।। -अथर्व० ११/६/१५
‘सोम, दर्भ, भंग, यव, सहस्’ आदि ओषधियों का ज्ञानपूर्वक प्रयोग करते हुए हम रोगों का समूल विनाश करते हैं।
वेद में घरों के समीप कमल-पुष्पों से अलंकृत छोटे-छोटे सरोवर बनाने का विधान मिलता है- उप त्वा तिष्ठन्तु पुष्करिणी: समन्ता: -अथर्व ४/३४/५,-७। फव्वारों का विधान इस हेतु किया गया प्रतीत होता है कि ऊपर उठती तथा चतुर्दिक् फैलती जल-धाराओं पर जब सूर्य-किरणें पड़ती हैं, तब उनमें प्रदूषण को हरने की विशेष शक्ति आ जाती है।
अथर्ववेद के भूमिसूक्त में भूमि को कहा गया है, “अरण्यं ते पृथिवी स्योनमस्तु अर्थात् तेरे जंगल हमारे लिए सुखदाई हों। -अथर्व० १२/१/११,१७”।
2. शुद्ध जलों का महत्त्व
वेद का कथन है “अप्स्वन्तरमृतम् अप्सु भेषजम् अर्थात् शुद्ध जलों के अन्दर अमृत होता है, ओषध का निवास रहता है -ऋ० १/२३/१९”। “आपो अद्यान्वचारिषं रसेन समगस्महि अर्थात् शुद्ध जल के सेवन से मनुष्य रसवान् हो जाता है -ऋ० १/२३/२३”। “उर्जं वहन्तीरमृतं घृतं पय: कीलालं परिस्त्रुतम् अर्थात् शुद्ध जलों में ऊर्जा, अमृत, तेज एवं पोषक रस का निवास होता है -यजु० २/३४”। “शुद्ध जल पान किये जाने पर पेट के अंदर पहुंचकर पाचन-क्रिया को तीव्र करते हैं। वे दिव्यगुणयुक्त, अमृतमय, स्वादिष्ट जल रोग न लानेवाले, रोगों को दूर करनेवाले, शरीर के प्रदूषण को दूर करनेवाले तथा जीवन-यज्ञ को बढ़ानेवाले होते हैं -यजु० ४/१२”।
आपो हि ष्ठा मयोभुवस्ता न ऊर्जे दधातन।
महे रणाय चक्षसे।। -ऋ० १०/९/१
शुद्ध जल आरोग्यदायक होते हैं, शरीर में ऊर्जा उत्पन्न करते हैं, वृद्धि प्रदान करते हैं, कण्ठस्वर को ठीक करते हैं तथा दृष्टि-शक्ति बढ़ाते हैं।
शन्नो देवीरभिष्टय आपो भवन्तु पीतये।
शं योरभि स्त्रवन्तु न:।। -ऋ० १०/९/४
शुद्ध जलों का पान करके एवं उन्हें अपने चारों ओर बहाकर अर्थात् उनमें डुबकी लगाकर या कटि-स्नान करके हम अपना स्वास्थ्यरूप अभीष्ट प्राप्त कर सकते हैं।
जलों के प्रकार-
वेदों में जल कई प्रकार के वर्णित किये गए हैं और उनके सम्बन्ध में यह कहा गया है कि वे सबके लिए प्रदूषणशामक एवं रोगशामक हों:
शं त आपो हैमवती: शमु ते सन्तूत्स्या:।
शं ते सनिष्यदा आप: शमु ते सन्तु वर्ष्या:।।
शं त आपो धन्वन्या: शं ते सन्त्वनूष्या:।
शं ते खनित्रिमा आप: शं या: कुम्भेभिराभृता:।। -अथर्व० १९/२/१-२
इन मन्त्रों में जलों के निम्नलिखित प्रकारों का उल्लेख हुआ है:
१. हिमालय के जल (हेमवती: आप:)- ये हिमालय पर बर्फ-रूप में रहते हैं अथवा चट्टानों के बीच में बने कुंडों में भरे रहते हैं, अथवा पहाड़ी झरनों के रूप में झरते रहते हैं।
२. स्त्रोतों के जल (उत्स्या: आप:)- ये पहाड़ी या मैदानी भूमि को फोड़कर चश्मों के रूप में निकलते हैं। कई चश्मों में गन्धक होता है, गन्धक का एक चश्म देहरादून के समीप सहस्रधारा में है।
३. सदा बहते रहनेवाले जल (सनिष्यदा: आप:)- ये सदा बहते रहने के कारण अधिक प्रदूषित नहीं हो पाते हैं।
४. वर्षाजल (वर्ष्या: आप:)- वर्षा से मिलनेवाले जल शुद्धि तथा ओषधि-वनस्पतियों एवं प्राणियों को जीवन देनेवाले होते हैं। अथर्ववेद के प्राण-सूक्त (११/४/५) में कहा है कि जब वर्षा के द्वारा प्राण पृथिवी पर बरसता है तब सब प्राणी प्रमुदित होने लगते हैं।
५. मरुस्थलों के जल (धन्वन्या: आप:)- मरुस्थलों की रेती में अभ्रक, लोहा आदि पाए जाते हैं, उनके सम्पर्क से वहां के जलों में भी ये पदार्थ विद्यमान होते हैं।
६. आर्द्र प्रदेशों के जल (अनूप्या: आप:)- जहां जल की बहुतायत होती है वे प्रदेश अनूप कहलाते हैं, तथा उन प्रदेशों में होनेवाले जल अनूप्य। यहां के जल कृमि-दूषित भी हो सकते हैं।
७. भूमि खोदकर प्राप्त किये जल (खनित्रिमा: आप:)- कुएं, हाथ के नलों आदि के जल इस कोटि में आते हैं।
८. घड़ों में रखे जल (कुम्भेभि: आभृता: आप:)- घड़े विभिन्न प्रकार की मिट्टी के तथा सोना, चांदी, तांबा आदि धातुओं के भी हो सकते हैं।
जल-शोधन-
जलों को प्रदूषित न होने देने तथा प्रदूषित जलों को शुद्ध करने के कुछ उपायों का संकेत भी वेदों में मिलता है।
यासु राजा वरुणो यासु सोमो विश्वेदेवा यासूर्जं मदन्ति।
वैश्वानरो यास्वग्नि: प्रविष्टस्ता आपो देवीरिह मामवन्तु।। -ऋ० ७/४९/४
वे दिव्य जल हमारे लिए सुखदायक हों, जिनमें वरुण, सोम, विश्वेदेवा: तथा वैश्वानर अग्नि प्रविष्ट हैं।
यहां वरुण शुद्ध वायु या कोई जलशोधक गैस है, सोम चन्द्रमा या सोमलता है, विश्वेदेवा: सूर्यकिरणें हैं तथा वैश्वानर अग्नि सामान्य आग या विद्युत् है।
ऋग्वेद में लिखा है “यन्नदीषु यदोषधीभ्य: परि जायते विषम्। विश्वेदेवा निरितस्तत्सुवन्तु अर्थात् यदि नदियों में विष उत्पन्न हो गया है तो सब विद्वान् जन मिलकर उसे दूर कर लें -ऋ० ७/५०/३”।
3. भूमि
भूमि को वेद में माता कहा गया है “माता भूमि: पुत्रो अहं पृथिव्या: -अथर्व० १२/१/१२”, “उपहूता पृथिवी माता -यजु० २/१०”। वेद कहता है-
यस्यामाप: परिचरा: समानीरहोरात्रे अप्रमादं क्षरन्ति।
सा नो भूमिर्भूरिधारा पयो दुहामथो उक्षतु वर्चसा।। -अथर्व० १२/१/९
जिस भूमि की सेवा करनेवाली नदियां दिन-रात समान रूप से बिना प्रमाद के बहती रहती हैं वह भूरिधारा भूमिरुप गौ माता हमें अपना जलधार-रूप दूध सदा देती रहें।
भूमि की हिंसा न करें
वेद मनुष्य को प्रेरित करते हुए कहता है “पृथिवीं यच्छ पृथिवीं दृंह, पृथिवीं मा हिंसी: अर्थात् तू उत्कृष्ट खाद आदि के द्वारा भूमि को पोषक तत्त्व प्रदान कर, भूमि को दृढ़ कर, भूमि की हिंसा मत कर”। भूमि की हिंसा करने का अभिप्राय है उसके पोषक तत्वों को लगातार फसलों द्वारा इतना अधिक खींच लेना कि फिर वह उपजाऊ न रहे। भूमि पोषकतत्त्वविहीन न हो जाये एतदर्थ एक ही भूमि में बार-बार एक ही फसल को न लगाकर विभिन्न फसलों को अदल-बदलकर लगाना, उचित विधि से पुष्टिकर खाद देना आदि उपाय हैं। आजकल कई रासायनिक खाद ऐसे चल पड़े हैं, जो भूमि की उपजाऊ-शक्ति को चूस लेते हैं या भूमि की मिट्टी को दूषित कर देते हैं।
भूमि में या भूतल की मिट्टी में यदि कोई कमी आ जाये तो उस कमी को पूर्ण किये जाने की ओर भी वेद ने ध्यान दिलाया है “यत्त ऊनं तत्त आ पूरयाति प्रजापति: प्रथमजा ऋतस्य अर्थात् प्रजापति राजा विभिन्न उपायों द्वारा उस कमी को पूरा करे -अथर्व० १२/१/६१”। यजुर्वेद के एक मन्त्र में कहा गया है “सं ते वायुर्मातरिश्वा दधातु उत्तानाया हृदयं यद् विकस्तम् अर्थात् उत्तान लेटी हुई भूमि का हृदय यदि क्षतिग्रस्त हो गया है तो मातरिश्वा वायु उसमें पुनः शक्ति-संधान कर दे -यजु० ११/३९”। मातरिश्वा वायु का अर्थ है अंतरिक्षसंचारी पवन, जो जल, तेज आदि अन्य प्राकृतिक तत्त्वों का भी उपलक्षक है। परन्तु यदि जल, वायु आदि ही प्रदूषित हो गए हों तो उनसे भूमि की क्षति-पूर्ति कैसे हो सकेगी?
4. अग्निहोत्र द्वारा पर्यावरण-शोधन
वैदिक संस्कृति में अग्निहोत्र या यज्ञ का बहुत महत्त्व है। प्रत्येक गृहस्थ एवं वानप्रस्थ के करने योग्य पंच यज्ञों में अग्निहोत्र का भी स्थान है, जिसे देवयज्ञ कहा जाता है। अग्निहोत्र यज्ञाग्नि में शुद्ध घृत एवं सुगन्धित, वायुशोधक, रोगनिवारक पदार्थों की आहुति द्वारा सम्पन्न किया जाता है। एक अग्निहोत्र वह है जो धार्मिक विधि-विधानों के साथ मन्त्रपाठपूर्वक होता है, दूसरे उसे भी अग्निहोत्र कह सकते हैं जिसमें मन्त्रपाठ आदि न करके विशुद्ध वैज्ञानिक या चिकित्साशास्त्रीय दृष्टि से अग्नि में वायुशोधक या रोगकृमिनाशक पदार्थों का होम किया जाता है। आयुर्वेद के चरक, बृहन्निघन्टुरत्नाकर, योगरत्नाकर, गदनिग्रह आदि ग्रन्थों में ऐसे कई योग वर्णित हैं, जिनकी आहुति अग्नि में देने से वायुमण्डल शुद्ध होता है तथा श्वास द्वारा धूनी अन्दर लेने से रोग दूर होते हैं। वेद में अनेक स्थानों पर अग्नि को पावक, अमीवचातन, पावकशोचिष्, सपत्नदंभन आदि विशेषणों से विशेषित करके उसकी शोधकता प्रदर्शित की गई है। यज्ञ का फल चतुर्दिक् फैलता है (यज्ञस्य दोहो वितत: पुरुत्रा) -यजु० ८/६२। अग्निहोत्र ओषध का काम करता है (अग्निष्कृणोतु भेषजम्) -अथर्व० ६/१०६/३। अग्निहोत्र से शरीर की न्यूनता पूर्ण होती है (अग्ने यन्मे तत्त्वा ऊनं तन्म आपृण) -यजु० ३/१७। अग्नि वायुमण्डल से समस्त दूषक तत्त्वों का उन्मूलन करता है (अग्निर्वृत्राणि दयते पुरुणि) -ऋ० १०/८०/२। वेद मनुष्यों को आदेश देता है “आ जुहोता हविषा मर्जयध्वम् अर्थात् तुम अग्नि में शोधक द्रव्यों की आहुति देकर वायुमण्डल को शुद्ध करो -साम० ६३”।
अग्निहोत्र की अवश्यकर्तव्यता की ओर संकेत करते हुए वेद कहते हैं-
स्वाहा यज्ञं कृणोतन अर्थात् स्वाहापूर्वक यज्ञ करो -ऋ० १/१३/१२, सुसमिद्धाय शोचिषे घृतं तीव्रं जुहोतन अर्थात् सुसमिद्ध अग्निज्वाला पर पिघले घी की आहुति दो -यजु० ३/२, अग्निमिन्धीत मर्त्य: अर्थात् मनुष्य को चाहिए कि वह अग्नि प्रज्वलित करे -साम० ८२, सम्यञ्चोऽग्निं सपर्यत अर्थात् सब मिलकर अग्निहोत्र किया करो -अथर्व० ३/३०/६।
सायं सायं गृहपतिर्नो अग्नि: प्रातः प्रातः सौमनसस्य दाता।
प्रातः प्रातः गृहपतिर्नो अग्नि: सायं सायं सौमनसस्य दाता।। -अथर्व० १९/५५/३-४
अग्निहोत्र का समय सायं और प्रातः है। सायं किया हुआ अग्निहोत्र प्रातःकाल तक वायुमण्डल को प्रभावित करता रहता है और प्रातः किये गए अग्निहोत्र का प्रभाव सायंकाल तक वायुमण्डल पर पड़ता है।
सुत्रामाणं पृथिवीं द्यामनेहसं सुशर्माणमदितिं सुप्रणीतिम्।
दैवीं नावं स्वरित्रामनागसमस्त्रवन्तीमा रुहेमा स्वस्तये।। -यजु० २१/६
अग्निहोत्र ऐसी विशाल, दिव्य, दीप्तिमयी, निश्छिद्र, कल्याणदायिनी, अखण्डित, निश्चित रूप से आगे ले जानेवाली, विधिविधानरूप सुन्दर चप्पुओं वाली, निर्दोष, न चूनेवाली नौका है जो सदा यजमान की रक्षा ही करती है।
आयुर्यज्ञेन कल्पतां, प्राणो यज्ञेन कल्पतां, चक्षुर्यज्ञेन कल्पतां,
श्रोत्रंयज्ञेन कल्पतां, वाग् यज्ञेन कल्पतां, मनो यज्ञेन कल्पतामात्मा यज्ञेन कल्पताम्।। -यजु० १८/२९
अग्निहोत्र-रूप यज्ञ से आयु बढ़ती है, प्राण सबल होता है, चक्षु सशक्त होती है, श्रोत्र और वाणी सामर्थ्ययुक्त होते हैं, मन और आत्मा बलवान् बनते हैं।
ऋग्वेद में कहा है- सो अग्ने धत्ते सुवीर्यं स पुष्यति अर्थात् जो अग्निहोत्र करता है उसे सुवीर्य प्राप्त होता है, वह पुष्ट होता है -ऋ० ३/१०/३।
5. आंधी, वर्षा और सूर्य द्वारा पर्यावरण-शोधन
प्राकृतिक रूप से आंधी, वर्षा और सूर्य द्वारा कुछ अंशों में स्वतः प्रदूषण-निवारण होता रहता है।
वातस्य नु महिमानं रथस्य रुजन्नेति स्तनयन्नस्य घोष:।
दिविस्पृग् यात्यरुणानि कृण्वन्नुतो एति पृथिव्या रेणुमस्यन्।। -ऋ० १०/१६८/१
वायु-रथ की महिमा को देखो। यह बाधाओं को तोड़ता-फोड़ता हुआ चला आ रहा है। कैसा गरजता हुआ इसका घोष है! आकाश को छूता हुआ, दिक्प्रांतों को लाल करता हुआ, भूमि की धूल को उड़ाता हुआ वेग से जा रहा है।
मानसून पवन रूप मरुत् मेह बरसाते हैं – वपन्ति मरुतो मिहम् -ऋ० ८/७/४। ये वर्षा द्वारा प्रदूषण को दूर करते हैं।
आ पर्जन्यस्य वृष्ट्योदस्थामामृता वयम्।
व्यहं सर्वेण पाप्मना वि यक्ष्मेण समायुषा।। -अथर्व० ३/३१/१
बदल की वृष्टि से हम उत्कृष्ट स्थिति को पा लेते हैं, सब पेड़-पौधे, पर्वत, भूप्रदेश धुलकर स्वच्छ हो जाते हैं, रोग दूर हो जाते हैं, प्राणियों की आयु लम्बी हो जाती है।
उभाम्यां देव सवित: पवित्रेण सवेन च।
मां पुनीहि विश्वत:।। -यजु० १९/४३
प्रकृति में सूर्य भी प्रदूषण का निवारक है। वह अपने रश्मिजाल से तथा अपने द्वारा की जानेवाली वर्षा से पवित्रता प्रदान करता है।
येन सूर्य ज्योतिषा बाधसे तमो जगच्च विश्वमुदियर्षि भानुना।
तेनास्मद् विश्वामनिरामनाहुतिमपामीवामप दुष्वप्न्यं सुव।। -ऋ० १०/३७/४
सूर्य अपनी ज्योति से अन्धकार को बांधता है, समस्त अन्नाभाव को, अन्नाहुति को, रोग को और दुःस्वप्न को दूर करता है।
वेद में कहा है “सा घा नो देवः सविता साविषदमृतानि भूरि अर्थात् सूर्य अमृत बरसाता है -अथर्व० ६/१/३”, “सूर्य यत् ते तपस्तेन तं प्रति तप। योऽस्मान् द्वेष्टि यं वयं द्विष्म: अर्थात् हे सूर्य, जो तेरा ताप है उससे तू उसे तपा डाल जो हमसे द्वेष करता है और जिससे हम द्वेष करते हैं -अथर्व० २/२१/१”।
अंत में उपसंहार-रूप में हम कह सकते हैं कि वायु, जल, भूमि, आकाश, अन्न आदि पर्यावरण के सभी पदार्थों की शुद्धि के लिए वेद भगवन् हमें जागरूक करते हैं तथा आई हुई अस्वच्छता को दूर करने का आदेश देते हैं। पर्यावरण की शुद्धि के लिए वेद भगवन् वनस्पति उगाना, अग्निहोत्र करना, विद्युत, अग्नि, सूर्य एवं ओषधियों का उपयोग करना आदि उपायों को सुझाते हैं।
।।आओ लौटें वेदों की ओर।।

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