Categories
पर्यावरण

ग्राम समुदाय की सहभागिता से संभव है पर्यावरण संरक्षण

दिलीप बीदावत
बीकानेर, राजस्थान

दुनिया भर में पर्यावरण एक अहम मुद्दा बनता जा रहा है. यह वह मुद्दा है जिस पर क्रियान्वयन कम और संपूर्ण सृष्टि पर इसका प्रभाव अधिक नजर आ रहा है. थार का पर्यावरण भी अति संवेदनशील है. जरा सी नकारात्मक छेड़छाड़ अथवा सकारात्मक पहल का प्रभाव बड़ा होता है. विकास के संदर्भ में पिछले दो दशकों में यहां बहुत कुछ बदला है. थार में तेल की धार और क्लीन एनर्जी को बढ़ावा देने की अपार संभावनाओं के कारण पर्यावरण का मुद्दा अंतिम पायदान पर चला गया है, वर्ना तो पीढ़ियों से यहां की आजीविका, जीवनशैली, सामाजिक परंपराओं और सांस्कृतिक पर्वों में पर्यावरण को प्रमुखता से देखा जाता रहा है. यहां के पारंपरिक जल स्रोतों, जैसलमेर की खड़ीनों (पारंपरिक खेती का एक स्वरूप) और बेरियों (वर्षा जल को संरक्षित करने का एक माध्यम) के इर्द गिर्द विकसित किया गया इकोसिस्टम पूरे विश्व में अनूठा ही नहीं बल्कि अनुकरणीय भी रहा है.

विकास के नाम पर पर्यावरण के साथ छेड़छाड़ ने एक ओर जहां यहां के पारिस्थितिक तंत्र को तोड़ा है वहीं समुदाय और ग्राम पंचायत की सहभागिता से इसे पुनः ठीक करने के प्रयास भी हो रहे हैं. इसमें पिछले तीन दशकों से भी अधिक समय से स्थानीय स्तर पर काम कर रही गैर सरकारी संस्था उरमूल ट्रस्ट बीकानेर की बड़ी भूमिका है जो भारतीय स्टेट बैंक फाउंडेशन के सीएसआर फंड के उपयोग से थार के मरुस्थलीय पर्यावरण के मामले में विशेष पहल कर रहा है. इसमें एक्शन आधारित टिकाऊ और अनुकरणीय पर्यावरण जागरूकता संबंधी गतिविधियां प्रमुख रूप से शामिल है.

दरअसल हमारे देश के ग्रामीण क्षेत्रों में भले ही बुनियादी ढ़ाचे विकसित न हों, लेकिन यहां के लोगों के अनुभव अवैज्ञानिक और अतार्किक नहीं होते हैं. उनमें विकास के प्रति जागरूकता दिखती है. उनकी आवाज सीमित जरूरतों और टिकाऊ पर्यावरण से संदर्भित होती है. ग्रामीण आधारभूत सुविधाओं की कमी के बावजूद सहभागिता के माध्यम से अपने स्तर पर पर्यावरण संरक्षण में योगदान दे रहे हैं. स्वच्छता अभियान समुदाय आधारित वेस्ट मैनेजमेंट का एक अनूठा मॉडल ग्राम पंचायत एवं समुदाय की सहभागिता से सफल हो रहा है. जैसलमेर के अलग अलग पंचायतों स्थित गाँव मोकला, ब्रह्मसर, जेठवाई और लानेला का सूखा व गीला कचरा घर-घर से एकत्रित किया जाता है तथा डंपिंग सेंटर जैसलमेर में पहुंचाने का काम नियमित रूप से किया जा रहा है.

इस संबंध में उरमूल ट्रस्ट के सचिव रमेश सारण बताते हैं कि “ग्राम पंचायत व ग्रामीण समुदाय की प्रबंधन व्यवस्था में संचालित यह कार्यक्रम पूर्णतः सतत और टिकाऊ है. संस्थान की तरफ से इन गाँव में वेस्ट कलेक्शन के लिए ई-रिक्शा उपलब्ध कराया गया है. परियोजना समाप्ति के बाद यह संसाधन ग्राम पंचायत को हस्तांतरित कर दिए जाएंगे जो ग्राम स्वच्छता अभियान को नई दिशा प्रदान करेंगे.” ग्रामीण क्षेत्रों में पेयजल की सरकारी वैकल्पिक व्यवस्थाओं के बावजूद सत्तर से अस्सी प्रतिशत पेयजल पूर्ति समुदाय द्वारा निर्मित पारंपरिक जल स्रोतों से होती है. यही पारंपरिक जल स्रोत यहां की जैव विविधता, पर्यावरण और पारिस्थितिकी तंत्र के प्रमुख केंद्र हैं.

समुदाय की सहभागिता से तीन गांवों में चार तालाबों का जीर्णोद्धार किया गया है. इनमें मोकला और ब्रह्मसर में एक एक और जेठवाई में दो तालाबों का निर्माण किया गया है. इन तालाबों की खुदाई का कार्य महात्मा गांधी नरेगा से होता है लेकिन कैचमेंट क्षेत्र (जलग्रहण क्षेत्र) को ठीक करने का नियोजन नहीं है. ग्रामीणों के अनुसार इन तालाबों में पानी की आवक क्षमता बढ़ाने के लिए कैचमेंट को ठीक करने, आवक चैनलों को दुरुस्त करने की जरूरत है. जैसलमेर केे गांव जैठवाई, भादासर व मोकला में चार तालाबों के कैचमेंट क्षेत्र का समतलीकरण और आवक चैनलों की सफाई का कार्य होने से जल स्रोतों में पानी भराव की क्षमता डेढ़ गुना बढ़ गई है.

इस संबंध में जेठवाई गांव के मोहन कुमार और मोकला के दुलतसिंह बताते हैं कि “पहले इन तालाबों में केवल सात से आठ माह पानी रहता था. अब हमें पशुओं व जंगली जीव-जंतुओं के लिए सालों भर पानी उपलब्ध होता है. यह काम होने से हम जल स्वावलंबी हो गए हैं.” वह बताते हैं कि पहले हमें चार महीने बाहर से पानी के टैंकर मंगवाने पड़ते थे. इससे एक परिवार का प्रतिमाह दो से तीन हजार रु. पानी पर ही खर्च हो जाता था, जो अब बचने लगा है. गांव के करीब 11 गरीब परिवारों के घरों में पेयजल क्षमता बढ़ाने के लिए टांकों (अंडरग्राउंड टैंक) का निर्माण किया गया है और उन्हें छत से जोड़ा गया है ताकि वर्षा का पानी सीधे वहां पहुंच सके.

पारंपरिक खड़ीन के माध्यम से प्राकृतिक खेती जैसलमेर की खास पहचान है. इसमें दूर ढलानी मगरों (चट्टानी भू-भाग) से बहकर आए पानी को मिट्टी का बांध बनाकर रोका जाता है और फिर जब वह पानी ज़मीन के अंदर चली जाती है तो उस पर खेती का काम शुरू किया जाता है. रबी सीजन में इस प्राकृतिक माध्यम से गेहूं और चना की फसल उगाने की परंपरा उस जमाने से ली जा रही है जब हरित क्रांति का जन्म भी नहीं हुआ था और देश में खाद्यान्न का संकट था. इसमें सामूहिक खेती को प्राथमिकता दी जाती रही है. जैसलमेर के ब्रह्मसर व रूपसी गांव के लोगों ने बताया कि लगभग 100 परिवारों की दो हजार बीघा जमीन पारंपरिक खड़ीन के माध्यम से होती थी लेकिन जीर्णोद्धार नहीं होने से इसमें पानी कम रुकता था जिससे पैदावार घट गई. जिसके बाद कार्य के अनुसार मिट्टी के बांध की हाइट बढ़ाने का कार्य हुआ.

खड़ीन के माध्यम से खेती करने वाले किसान प्रकाष राम बरमसर ने बताया कि वर्षों से पानी के साथ बह कर आई मिट्टी जमा होने और मिट्टी के बांध की हाइट कम होने से पानी कम रुकता था. बांध की हाइट बढ़ाने से 100 परिवारों के पिछले साल रबी की फसल अच्छी हुई है. खड़ीनें खेती के साथ साथ पर्यावरण संरक्षण का पमुख केंद्र भी रही है. देसी जीव-जंतुओं व पक्षियों के अतिरिक्त साइबेरियन क्रेन एवं प्रवासी पक्षी इन खड़ीनों में डेरा डालते हैं तथा यहां के इक्को सिस्टम को मजबूती प्रदान करते हैं.

इसके अतिरिक्त जन-वन एवं विद्यालयों में किचन गार्डन न केवल नवीन गतिविधियां है बल्कि आज के संदर्भ में जरूरी भी है जिनको बढ़ावा दिया जाना चाहिए. उरमूल ट्रस्ट जैसलमेर के कार्यकारी पंकज कुमार बताते हैं, जन-वन के तहत ब्रह्मसर गांव में ग्राम पंचायत के सहयोग से सार्वजनिक भूमि पर दो सौ नीम, खेजड़ी, पीपल, कैर, कूमटा जेसे स्थानीय पौधे लगाए गए हैं जिनकी देखभाल ग्राम पंचायत व गांव के लोग करते हैं. परियोजना की तरफ से एक बार फैन्सिंग व पौधे उपलब्ध कराने का सहयोग किया गया है. ब्रह्मसर, जेठवाई, लानेला गांव के विद्यालयों में बच्चों व शिक्षकों की सहभागिता से किचन गार्डन लगाए गए हैं. इनमें भिंडी, टमाटर, पालक, मेथी, लौकी आदि सब्जियां उगाई गई हैं. इसका उपयोग विद्यालयों में दोपहर भोजन में किया जाता है. यह पर्यावरण के साथ बच्चों में पोषण को भी बढ़ावा दे रहा है.

कुल मिलाकर थार के अति संवेदनशील पर्यावरण ज़ोन में उरमूल और एसबीआई के कार्य सीमित दायरे में छोटे प्रयास हो सकते हैं लेकिन इनका अनुकरण ग्राम पंचायत, ग्रामीण समुदाय मिलकर करें तथा सरकार अपनी योजनाओं में उनके कार्यों को प्राथमिकता दे, तो सभी अभियान और मिशन सफलता की तरफ अग्रसर हो सकते हैं. इससे न केवल ग्रामीणों के जीवन में सुधार होगा बल्कि ग्राम समुदाय की सहभागिता से पर्यावरण संरक्षण भी संभव मुमकिन होगा. (चरखा फीचर)

Comment:Cancel reply

Exit mobile version