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धर्म-अध्यात्म

“महर्षि दयानन्द एवं ब्रह्मचर्य”*

लेखक- ब्रह्मचारी इन्द्रदेव “मेधार्थी” (गुरुकुल झञ्जर)
प्रस्तुति- प्रियांशु सेठ

समय-समय पर अनेक ऐसे लोकोत्तर महापुरुष हुये हैं जिन्होंने अपनी अद्भुत प्रतिभा एवं कर्मशीलता से संसार में मानवता की स्थापना की है। और ब्रह्मचर्य को अपने जीवन में धारण के साथ साथ लोक में भी प्रचार करने का यत्न किया है। किन्तु इस विषय में जितना उत्कर्ष महर्षि दयानन्द जी महाराज को उपलब्ध हुआ ऐसा अन्य महापुरुषों के जीवन में प्रायः नहीं दीख पड़ता। ब्रह्मचर्य के सब प्राणियों का विकास उनके जीवन में अन्तिम सीमा तक पहुंचा हुआ था। उनको हम ब्रह्मचर्य की साक्षात् साकार प्रतिमा एवं आप्त पुरुष मान सकते हैं। ब्रह्मचर्य शब्द की संसार में जितनी व्याख्याएं विद्यमान हैं, उन सबके वे आदर्श उदाहरण स्वरूप हैं। उनके इस ब्रह्मचर्य के महान् गुण को सभी विरोधी एवं प्राणघाती शत्रुओं तक ने मुक्त-कण्ठ से स्वीकार किया है।
ब्रह्मचर्य का पालन सामान्य कार्य नहीं है। जिन लोगों को इस मार्ग पर चलने का सौभाग्य प्राप्त हुआ है, वही इसकी दुरूहता को अनुभव कर पाते हैं। वास्तव में यह कार्य तलवार की धार पर चलने से भी कठिनतम साधना है। मन या आचरण की क्षणिक असावधानी बहुत भयंकर परिणाम को लाकर उपस्थित कर सकती है। ब्रह्मचर्य रक्षा की चिन्ता योगियों की उन्निद्र आंखों में, ऋषियों के चेहरों की झुर्रियों में और ब्रह्मचारियों की नियमित नियन्त्रित दिनचर्या में किसे नहीं दीख पड़ती? वास्तव में यह एक कठिन परीक्षा है, तपस्या है। बिना ब्रह्मचारी बने कोई भी मनुष्य भगवान् को भी नहीं पा सकता। महर्षि दयानन्द एक निष्कलंक ब्रह्मचारी थे, जो मनुष्य अपने जीवन को जीवन रूप में देखना चाहते हैं, तथा मानव जीवन के आनन्द का उपभोग करना चाहते हैं, उन्हें इस ब्रह्मचर्य मार्ग का पथिक अवश्य बनना चाहिए। वर्तमान युग में लोग ब्रह्मचर्य पालन को असम्भव सा मान बैठे हैं। किन्तु निराश होने की आवश्यकता नहीं, मनुष्य पतन के गर्त में जाने के पश्चात् भी तथा कुसंस्कारों से परिवेष्टित होने पर भी यत्न करके अपने जीवन को पवित्र बना सकता है। हमारे समक्ष महर्षि दयानन्द जी जैसे दिव्य ब्रह्मचारियों के जीवन तथा आदेश प्रकाश-स्तम्भ के रूप में उपस्थित है। जिस मनुष्य को जीवन में ब्रह्मचर्य रक्षा के आनन्द का एक बार भी आस्वादन हो गया, बस फिर तो वह इस अमूल्य रत्न के लिए सर्वस्व वारने को भी उद्यत हो जाता है। महर्षि दयानन्द जी महाराज ने ‘सब सुधारों के सुधार’ ब्रह्मचर्य को ही माना है।
जिस आर्य जाति में किसी समय ब्रह्मचर्य को सर्वोपरि स्थान दिया जाता था, और जीवन का सारा कार्यक्रम ब्रह्मचर्य पालन को मुख्य मान कर निर्धारित होता था, आज वही जाति ब्रह्मचर्य से हीन होकर पद्दलित हो चुकी है। आज की कामज सन्तान और फिर ये नाच-गाने स्वाङ्ग-सिनेमे तथा श्रृंगार की प्रधानता ब्रह्मचर्य को समूल नष्ट करने पर तुले हुये हैं, किन्तु यह निश्चित ही सत्य सिद्धान्त है कि ब्रह्मचर्य की समाप्ति के साथ संसार की भी इतिश्री हो जावेगी। जो मनुष्य थोड़ी भी बुद्धि रखते हैं, उनका प्रधान कर्तव्य है कि वे अपने भोजन, दिनचर्या, वेशभूषा, पठन-पाठन तथा अन्य बाह्य एवं आन्तरिक व्यवहार को ब्रह्मचर्य के अनुकूल बनावें, और ब्रह्मचर्य का सन्देश को अपनी शक्ति अनुसार चारों दिशाओं में फैला दें। महर्षि दयानन्द जी ने किन मौलिक तत्त्वों को जीवन में धारण करके ब्रह्मचर्य में सिद्धि प्राप्त की थी यह तो पृथक् ही लेख का विषय है। हम लोग ब्रह्मचर्य के महत्त्व को समझ सकें, अतः महर्षि के ग्रन्थों से ब्रह्मचर्य विषयक वचनों का संग्रह मैं पाठकों के समक्ष उपस्थित कर रहा हूं। हमारा सभी का कर्तव्य है कि हम अपने आचार्य के दिव्य वचनों को धारण करके जीवन को पवित्र बनावें।
१. मनुष्य ब्रह्मचर्यादि उत्तम नियमों से त्रिगुण चतुर्गुण आयु कर सकता है, अर्थात् चार सौ वर्ष तक भी सुख से जी सकता है। (ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका, वेदसंज्ञाविचार)
२. जिसके शरीर में वीर्य नहीं होता, वह नपुंसक, महाकुलक्षणी और जिसको प्रमेह रोग होता है, वह दुर्बल, निस्तेज-निर्बुद्धि और उत्साह-साहस-धैर्य-बल, पराक्रम आदि गुणों से रहित होकर नष्ट हो जाता है। (सत्यार्थप्रकाश, २ समुल्लास)
३. आयु वीर्यादि धातुओं की शुद्धि और रक्षा करना तथा युक्तिपूर्वक ही भोजन-वस्त्र आदि का जो धारण करना है, इन अच्छे नियमों से आयु को सदा बढ़ाओ। (ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका, वेदोक्तधर्मविषय)
४. देखो, जिसके शरीर में सुरक्षित वीर्य रहता है, उसको आरोग्य, बुद्धि, बल और पराक्रम बढ़ कर बहुत सुख की प्राप्ति होती है। इसके रक्षण की यही रीति है कि विषयों की कथा, विषयी लोगों का सङ्ग, विषयों का ध्यान, स्त्री दर्शन, एकान्त सेवन, सम्भाषण और स्पर्श आदि कर्म से ब्रह्मचारी लोग सदा पृथक् रहकर उत्तम शिक्षा और पूर्ण विद्या को प्राप्त होवें। (सत्यार्थप्रकाश, २ समुल्लास)
५. जो तुम लोग सुशिक्षा और विद्या के ग्रहण और वीर्य की रक्षा करने में इस समय चूकोगे तो पुनः इस जन्म में तुमको यह अमूल्य समय प्राप्त नहीं हो सकेगा। जब तक हम लोग गृह कार्यों को करने वाले जीते हैं, तभी तक तुमको विद्या ग्रहण और शरीर का बल बढ़ाना चाहिये। (सत्यार्थप्रकाश, २ समुल्लास)
६. जो सदा सत्याचार में प्रवृत्त, जितेन्द्रिय और जिनका वीर्य अधःस्खलित कभी न हो उन्हीं का ब्रह्मचर्य सच्चा होता है। (सत्यार्थप्रकाश, ४ समुल्लास)
७. जिस देश में ब्रह्मचर्य विद्याभ्यास अधिक होता है, वही देश सुखी और जिस देश में ब्रह्मचर्य, विद्याग्रहणरहित बाल्यावस्था वाले अयोग्यों का विवाह होता है, वह देश दुःख में डूब जाता है। क्योंकि ब्रह्मचर्य विद्या के ग्रहणपूर्वक विवाह के सुधार ही से सब बातों का सुधार और बिगड़ने से बिगाड़ हो जाता है। (सत्यार्थप्रकाश, ४ समुल्लास)
८. जिस देश में यथायोग्य ब्रह्मचर्य विद्या और वेदोक्त धर्म का प्रचार होता है, वही देश सौभाग्यवान् होता है। (सत्यार्थप्रकाश, ३ समुल्लास)
९. ब्रह्मचर्य जो कि सब आश्रमों का मूल है। उसके ठीक-ठीक सुधरने से सब आश्रम सुगम होते हैं और बिगड़ने से बिगड़ जाते हैं। (ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका, वर्णाश्रमविषय)
१०. सर्वत्र एकाकी सोवे। वीर्य स्खलित कभी न करें। जो कामना से वीर्य स्खलित कर दे तो जानो कि अपने ब्रह्मचर्य व्रत का नाश कर दिया। (सत्यार्थप्रकाश, ३ समुल्लास)
११. ब्रह्मचर्य सेवन से यह बात होती है कि जब मनुष्य बाल्यावस्था में विवाह न करे, उपस्थेन्द्रिय का संयम रखे, वेदादिशास्त्रों को पढ़ते-पढ़ाते रहें। विवाह के पीछे भी ऋतुगामी बने रहें। तब दो प्रकार का वीर्य अर्थात् बल बढ़ता है, एक शरीर का और दूसरा बुद्धि का। उसके बढ़ने से मनुष्य अत्यन्त आनन्द में रहता है। (ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका, उपासनाविषय)
१२. अड़तालीस वर्ष के आगे पुरुष और चौबीस वर्ष के आगे स्त्री को ब्रह्मचर्य न रखना चाहिये। परन्तु यह नियम विवाह करने वाले पुरुष और स्त्रियों के लिए है। और जो विवाह करना ही न चाहें वे मरणपर्यन्त ब्रह्मचारी रह सकें तो भले ही रहें। परन्तु यह काम पूर्ण विद्या वाले, जितेन्द्रिय और निर्दोष योगी स्त्री और पुरुष का है। यह बड़ा कठिन कार्य है कि जो काम के वेग को थाम के इन्द्रियों को अपने वश में रख सके। (सत्यार्थप्रकाश, ३ समुल्लास)
१३. ब्रह्मचारी और ब्रह्मचारिणी मद्य, मांस, गन्ध, माला, रस, स्त्री और पुरुष का संग, सब खटाई, प्राणियों की हिंसा, अङ्गों का मर्दन, बिना निमित्त उपस्थेन्द्रिय का स्पर्श, आंखों में अञ्जन, जूतों और छत्रधारण, काम-क्रोध, लोभ-मोह-भय-शोक-ईर्ष्याद्वेष, नाच-गान और बाजा बजाना, द्यूत, जिस किसी की कथा, निन्दा, मिथ्याभाषण, स्त्रियों का दर्शन, आश्रय, दूसरों की हानि आदि कुकर्मों को छोड़ देवें। (सत्यार्थप्रकाश, ३ समुल्लास)
१४. पाठशाला से एक योजन अर्थात् चार कोश दूर ग्राम वा नगर रहे। (सत्यार्थप्रकाश, ३ समुल्लास)
१५. जहां विषयों वा अधर्म की चर्चा भी होती हो, वहां ब्रह्मचारी कभी खड़े भी न रहें। भोजन छादन ऐसी रीति से करें कि जिससे कभी रोग-वीर्य हानि, वा प्रमाद न बढ़े। जो बुद्धि का नाश करने हारे नशे के पदार्थ हों उनको ग्रहण कभी न करें। (व्यवहारभानु)
१६. जिससे विद्या, सभ्यता, धर्मात्मना, जितेन्द्रियता आदि की बढ़ती होवे और अविद्या आदि दोष छूटें उसको शिक्षा कहते हैं। (स्वमन्तव्यामन्तव्यप्रकाश)
१७. सब को तुल्य वस्त्र, खान-पान और तुल्य आसन दिया जावे। चाहे वे राजकुमार वा राजकुमारी हो, चाहे दरिद्र की सन्तान हों। सबको तपस्वी होना चाहिये। (सत्यार्थप्रकाश, ३ समुल्लास)
१८. उनके माता-पिता अपनी सन्तानों से वा सन्तान माता-पिता से न मिल सकें और न किसी प्रकार का पत्र-व्यवहार एक-दूसरे से कर सकें। जिससे संसारिक चिन्ता से रहित होकर केवल विद्या पढ़ने की चिन्ता रखें। जब भ्रमण की जावे, तब उनके साथ अध्यापक रहें। जिससे किसी प्रकार की कुचेष्टा न कर सकें और न आलस्य प्रमाद करें। (सत्यार्थप्रकाश, ३ समुल्लास)
१९. जो वहां अध्यापिका और अध्यापक पुरुष वा भृत्य अनुचर हों, वे कन्याओं की पाठशाला में सब स्त्री और पुरुषों की पाठशाला में पुरुष रहें। स्त्रियों की पाठशाला में पांच वर्ष का लड़का और पुरुषों की पाठशाला में पांच वर्ष की लड़की भी न जाने पावे। अर्थात् जब तक वे ब्रह्मचारी वा ब्रह्मचारिणी रहें, तब तक स्त्री वा पुरुष का दर्शन-स्पर्शन, एकान्तसेवन, भाषण, विषयकथा, परस्परक्रीड़ा, विषय का ध्यान और सङ्ग इन आठ प्रकार के मैथुनों से अलग रहें और अध्यापक लोग उनको इन बातों से बचावें। जिससे उत्तम विद्या, शिक्षाशील, स्वभाव, शरीर और आत्मा से बलयुक्त होके आनन्द को नित्य बढ़ा सकें। (सत्यार्थप्रकाश, ३ समुल्लास)
२०. यथावत् ब्रह्मचर्य में आचार्यानुकूल वर्तकर धर्म से चारों, तीन वा दो, अथवा एक वेद को साङ्गोपाङ्ग पढ़ के जिसका ब्रह्मचर्य खण्डित न हुआ हो वह पुरुष वा स्त्री गृहाश्रम में प्रवेश करे। (सत्यार्थप्रकाश, ४ समुल्लास)
२१. स्त्रियां आजन्म ब्रह्मचर्य व्रत धारण करती थीं, और साधारण स्त्रियों के भी उपनयन और गुरु गेह में वासादि संस्कार होते थे। (उपदेश मञ्जरी)
२२. ब्रह्मचर्य पूर्ण करके गृहस्थ और गृहस्थ होके वानप्रस्थ तथा वानप्रस्थ होके संन्यासी होवे। (संस्कार विधि, संन्यास संस्कार)
२३. परन्तु जो ब्रह्मचर्य से संन्यासी होकर जगत् को सत्यशिक्षा कर जितनी उन्नति कर सकता है, उतनी गृहस्थ वा वानप्रस्थ आश्रम करके संन्यास आश्रमी नहीं कर सकता। (सत्यार्थप्रकाश, ५ समुल्लास)
२४. जिस पुरुष ने विषय के दोष और वीर्य संरक्षण के गुण जाने हैं, वह विषयासक्त कभी नहीं होता, और उनका वीर्य विचार अग्नि का ईंधनवत् है अर्थात् उसी में व्यय हो जाता है। जैसे वैद्य और औषधियों की आवश्यकता रोगी के लिये होती है, वैसे निरोगी के लिये नहीं, इस प्रकार जिस पुरुष वा स्त्री को विद्या धर्म वृद्धि और सब संसार का उपकार करना ही प्रयोजन हो, वह विवाह न करे। (सत्यार्थप्रकाश, ५ समुल्लास)
२५. जो मनुष्य इस ब्रह्मचर्य को प्राप्त होकर लोप नहीं करते, वे सब प्रकार के रोगों से रहित होकर धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष को प्राप्त होते हैं। (सत्यार्थप्रकाश, ३ समुल्लास)
२६. सब आश्रमों के मूल, सब उत्तम कर्मों में उत्तम कर्म और सब के मुख्य कारण ब्रह्मचर्य को खण्डित करके महादुःख सागर में कभी नहीं डुबना। (संस्कार विधि, वेदारम्भ संस्कार)
२७. यदि कोई इस सर्वोत्तम धर्म से गिराना चाहे, उसको ब्रह्मचारी उत्तर देवे कि अरे छोकरों के छोकरे! मुझ से दूर रहो। तुम्हारे दुर्गन्ध रूप भ्रष्ट वचनों से मैं दूर रहता हूं। मैं इस उत्तम ब्रह्मचर्य का लोप कभी न करूंगा। (संस्कार विधि, वेदारम्भ संस्कार)
इस प्रकार महर्षि दयानन्द जी महाराज ने अपने ग्रन्थों एवं प्रवचनों में ब्रह्मचर्य को जीवन का मूल आधार बताया है। यदि हम चाहते हैं कि हमारा देश पुनः अपने प्राचीन गौरव को प्राप्त करे तो इसके लिए सब आर्यों को कटिबद्ध होना चाहिए।

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