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राजनीति

विकसित भारत के निर्माण में सबसे बड़ी बाधा है भ्रष्टाचार

ललित गर्ग –

लोकसभा के सातवें चरण के चुनाव होने शेष रहे हैं, सबकी नजरें चुनाव परिणामों पर लगी है। ये चुनाव परिणाम ही तय करेंगे कि नये भारत, विकसित भारत एवं समृद्ध भारत की तस्वीर क्या करवट लेगी। भ्रष्टाचार एवं उससे उपजे हादसों ने चुनाव के दौरान ही ऐसे वीभत्स दृश्य उपस्थित किये, जो चुनावी मुद्दा न बनना एवं राजनेताओं के बीच इनकी चर्चा न होना, दुर्भाग्यपूर्ण तो है ही, लेकिन उससे ज्यादा चिन्ताजनक यह है कि हमारी राजनीति अभी भी विकसित भारत के सपने को आकार देने के लिये तैयार नहीं दिख रही है। पुणे पोर्शे कार एक्सीडेंट ने भ्रष्टाचार की इतने परतें खोली दी है कि उसमें न्यायालय, पुलिस, राजनेता, डाक्टर सभी अपना जमीर बेचते हुए दिखाई दिये हैं। इसी तरह राजकोट एवं दिल्ली की अग्निकांडों ने प्रशासन एवं व्यवसाय में पसरे भ्रष्टाचार की काली परतों को उजागर किया है। इस तरह अस्पताल हो चाहे होटल, गेम जोन या मॉल, सुरक्षा इंतजामों, प्रशासनिक जिम्मेदारी एवं ईमानदारी की खुलकर धज्जियां उड़ती रहेगी या पुणे की तरह अब बिकते रहेंगे तो विकसित भारत का सपना कैसे आकार लेगा?
छह सौ करोड़ी पिता ने अपने बेटे के अपराध पर पर्दा डालने एवं उसे बचाने के लिये किसको नहीं खरीदा। कैसे जनता की रक्षा होगी एवं उसे न्याय मिलेगा, जब सब बिकने के लिये तैयार बैठे हैं। बेबी केयर अस्पताल हो या राजकोट का गेम जोन का हादसा- किसी की जान की कीमत कागज के चंद टुकड़े कैसे हो सकती है? न्यायालय भी ऐसे मामलों में संज्ञान लेकर शुरुआत तो करता है, लेकिन यह शुरुआत अंजाम तक नहीं पहुंच पाती। हादसे की आंच ठंडी पड़ी नहीं कि मिलीभगत का खेल फिर शुरू हो जाता है। संबंधित अधिकारी भी आंख मूंदकर सो जाते हैं और फिर किसी हादसे के बाद ही उनकी कुंभकरणी नींद खुलती है। इन ज्वलंत एवं भ्रष्ट हालातों में कैसे भारत की तकदीर एवं तस्वीर बदलेगी?
भ्रष्टाचार और घोटालों के इस घटाटोप मौसम में ऐसा कुछ भी कह पाना मुश्किल हो गया है, जो भारत या इसके लोगों की जिंदगी पर उजली रोशनी डालता हो। भारत अपनी दुश्वारियों में लस्त-पस्त उस मध्ययुगीन योद्धा की तरह दिखता है, जो चुनावी जंग के मैदान में आहें भर रहा है। कोई नहीं जानता, किसके दामन में कितने दाग हैं? कोई नहीं जिस पर यकीन किया जा सके, धरती का कोई कोना नहीं, जिसके नीचे दबा कोई घोटाला खुदाई का इंतजार न कर रहा हो। लेकिन यही चुनाव, हादसों एवं भ्रष्टता के मौके होते हैं, जब किसी देश के सच्चे चरित्र का पता चलता है। आगे-पीछे चुनावों के तहत तथाकथित नेता द्वारा हजारों जुमलों में किसी समाज व्यवस्था को बहलाया जा सकता है, लेकिन बुरे वक्त में नहीं। भारत के चरित्र को परखने का सही समय चुनाव है या ऐसे वीभत्स हादसें एवं भ्रष्टता की अंधी गलियां।
भारत दुनिया का गुरु बनने एवं तीसरी अर्थ-व्यवस्था बनने की ओर अग्रसर है, दुनिया भारत के आध्यात्मिक अनुभवों से मोहित है और यह एक पक्की बात है कि धर्म को लेकर जैसा काम भारत में हुआ, वैसा कहीं नहीं हुआ और पिछले दशक में उसे और जीवंतता मिली। लेकिन यह एकांगी महानता है, क्योंकि दुनिया में तरक्की के पैमाने भौतिक हैं और उस मामले में भारत की ताकत सदियों पहले खत्म हो गई थी, अब प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी अध्यात्म के साथ उसी भौतिक ताकत को बढ़ा रहे हैं। जहां तक ईमानदारी, निष्ठा और सत्य जैसे मूल्यों का सवाल है, वे कितने हमारी जिंदगी में हैं इसका पता करप्शन के आंकड़ों एवं बार-बार होने वाले हादसों से लग जाता है।
हाल के बरसों में जानकारों और मीडिया ने यह बात फैला दी है कि भारतीय इसलिए दुनिया में अनूठे हैं कि वे कुछ भी कर सकते हैं। लेकिन हमारे देश में ऐसे राजनेता हैं जो दुश्मन देशों की तरफदारी करते हुए लोगों के दिलों को जीतने की जुगाड़ में लगे हैं। ऐसे भी राजनेता है जो भ्रष्टाचार मुक्ति का नारा देते हुए कहते है कि आप हमें वोट देंगे तो हमारा जेल जाना रूक सकता है। यानी खुले आम अपने भ्रष्टाचार एवं घोटालों में भी जन-समर्थन मांग रहे हैं। स्मार्टनेस की इस दुहाई के चलते एक मामूली-से दिखने वाले व्यक्ति ने अब सिलेब्रिटी स्टेटस एवं सफल राजनेता होने की गरिमा को हासिल कर लिया है, और वह है जुगाड़ एवं जनता को गुमराह करने की कला। मैसेज यह है कि जरूरत पड़ने पर हमारे राजनेता किसी भी तरह काम निकाल लेते हैं। अब इस सोच का क्या किया जाए?
बात नये भारत एवं विकसित भारत की है, अपने देश में हर तरह के नियम-कानून है, पर उनके उल्लंघन की जैसी सुविधा यहां है, वैसी शायद ही अन्य कहीं हो। पुणे, राजकोट और दिल्ली के मामले इकलौते ऐसे प्रकरण नहीं, जिनमें सरकारी तंत्र को जवाबदेही से दूर रखने की कोशिश की गई हो। इस तरह के मामले रह-रहकर होते ही रहते हैं और उनमें बड़ी संख्या में लोग जान गंवाते हैं अथवा घायल होते हैं, लेकिन नियामक तंत्र के उन लोगों को कभी भी कठघरे में नहीं खड़ा किया जाता, जिनकी अनदेखी और लापरवाही के चलते जानलेवा घटनाएं होती रहती हैं। इसका उदाहरण है मुंबई में एक विशालकाय होर्डिंग गिरने से कई लोगों की मौत। यह विशालकाय होर्डिंग अवैध रूप से था, लेकिन किसी को ‘नजर’ नहीं आ रहा था। जब यह गिर गया और उसमें कई लोगों की जान चली गई तो सरकारी तंत्र ने उससे अपना पल्ला झाड़ लिया। होर्डिंग लगवाने वाला तो गिरफ्तार हो गया, इसी तरह गेम जोन एवं बेबी केयर अस्पताल के मालिक भी सलाखों के पीछे आ गये, लेकिन नगर निकाय एवं सरकार के किसी अधिकारी-कर्मचारी को गिरफ्तार करने की आवश्यकता नहीं समझी गई। कोई नहीं जानता कि क्यों? दिल्ली के ग्यारह सौ से अधिक अस्पतालों में मात्र 190 के पास एनओसी है, यह प्रशासन तले अंधेरा नहीं तो क्या है?
भारत दुनिया का सबसे बड़ा लोकतंत्र एवं एक बड़ी आबादी वाला देश है, लेकिन इसका यह मतलब नहीं कि सरकारी तंत्र की लापरवाही एवं भ्रष्टता से रह-रहकर हादसे होते रहें और उनमें बड़ी संख्या में लोग मरते रहें। दुर्भाग्य से अपने देश में यही हो रहा है। जब कोई बड़ी घटना घट जाती है और उसमें अधिक संख्या में लोग मारे जाते हैं तो शोक संवेदनाओं का तांता लग जाता है और तत्काल कार्रवाई करने के नाम पर उच्चस्तरीय जांच के आदेश दे दिए जाते हैं, लेकिन कुछ समय बाद उन्हीं कारणों से वैसी ही घटना फिर सामने आती है, जैसी पहले हो चुकी होती है, इसका मतलब प्रशासन अपनी जिम्मेदारी का निर्वाह ठीक से नहीं कर रहा है और व्यवसायी प्रशासन की इन्हीं कमजोरियों का फायदा उठाते हुए मौत के सौदागर बने रहते हैं। यही कारण है कि न तो हादसे कम हो रहे हैं और न ही उनमें जान गंवाने वालों की संख्या में कमी आ रही है। हादसे दुनिया में हर कहीं होते हैं, लेकिन विकसित और विकासशील देश कम से कम उनसे सबक लेते हैं और ऐसी व्यवस्था करते हैं, जिससे बार-बार एक जैसे कारणों से हादसे न हों।
लोकतंत्र एक पवित्र प्रणाली है। पवित्रता ही इसकी ताकत है। इसे पवित्रता से चलाना पड़ता है। अपवित्रता से यह कमजोर हो जाती है। ठीक इसी प्रकार अपराध के पैर कमजोर होते हैं। पर अच्छे आदमी की चुप्पी उसके पैर बन जाती है। अपराध, भ्रष्टाचार अंधेरे में दौड़ते हैं। रोशनी में लड़खड़ाकर गिर जाते हैं। हमें रोशनी बनना होगा और रोशनी भ्रष्टता एवं घोटालों से प्राप्त नहीं होती। भारत में कोई सबक सीखने को तैयार नहीं है, और यही कारण है कि विकसित देश बनने के संकल्प को साकार करना कहीं अधिक कठिन दिख रहा है। अपने देश में हर तरह के नियम-कानून हैं, राजनेताओं के बड़े-बड़े संकल्प भी है, लेकिन उनके उल्लंघन की जैसी सुविधा यहां है, वैसी शायद ही किसी विकासशील और विकसित राष्ट्र का स्वप्न देखने वाले देश में हो। भारत में लोग किस कदर कदम-कदम पर नियम-कानूनों का धडल्ले के साथ उल्लंघन करते हैं और सरकारी तंत्र में बैठे लोग उनकी मदद करने या फिर उनके अपराध को ढकने के लिए तैयार रहते हैं, इसका शर्मनाक एवं दर्दनाक उदाहरण पुणे का कार हादसा भी है। आज यह स्वीकारते कठिनाई हो रही है कि देश की कानून एवं व्यवस्था को सम्भालने वाले सभी हाथ दागदार हो गए हैं। इस मनःस्थिति के पीछे अलग-अलग कारण हो सकते हैं। दिन-प्रतिदिन जो सुनने और देखने में आ रहा है, वह पूर्ण असत्य भी नहीं है। पर हां, यह किसी ने भी नहीं सोचा कि जो हाथ प्रशासन, कानून एवं सुरक्षा की बागडोर सम्भाले हुए थे, क्या वे सब बागडोर छोड़कर अपनी जेब सम्भाल लेंगे?

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