डॉ डी क गर्ग –भाग-13
नोट : प्रस्तुत लेखमाला 14 भाग में है ,ये वैदिक विद्वानों के द्वारा समय समय पर लिखे गए लेखो के संपादन द्वारा तैयार की गयी है ,जिनमे मुख्य विद्यासागर वर्मा ,पूर्व राजदूत, कार्तिक अय्यर, गंगा प्रसाद उपाधयाय प्रमुख है। कृपया अपने विचार बताये और फॉरवर्ड भी करें ।
क्या गोतम बुध ईश्वर का अवतार थे?
उत्तरः- जब जीवात्माएँ पुनर्जन्म के अनुसार शरीर परिवर्तन करती हैं तो यह उनका अवतार लेना कहा जाता है। ईश्वर कभी भी अवतार नहीं लेता। ईश्वर विराट और अनन्त है वह सीमित होकर एक छोटे से शरीर में नहीं आ सकता।
लेकिन ईश्वर सर्वशक्तिमान है परन्तु सर्वशक्तिमान का अर्थ ये नहीं है कि वह कुछ भी कर सकता है। ईश्वर वही करता है जो उसके स्वभाव में है अथवा उसके नियम में है। अपने स्वभाव के विरुद्ध वह कुछ नहीं करता और उसका स्वभाव अवतार लेने का नहीं है।
इस संदर्भ में डा. सर्वपल्ली राधाकृष्णन् के विचार अवलोकनीय है:
” ईश्वर कभी सामान्य रूप में जन्म (अवतार) नहीं लेता। अवतार केवल मानव की आध्यात्मिक एवं दैवी शक्तियों की अभिव्यक्ति है। अवतार दिव्यशक्ति का मानव शरीर में सिकुड़ कर व्यक्त होना नहीं, बल्कि मानव- प्रकृति का ऊर्ध्वारोहण है जिसका दिव्य शक्ति से मिलन होता है।” वे आगे लिखते हैं,
” जब कोई व्यक्ति अपनी आध्यात्मिक शक्तियों को विकसित कर लेता है, दूरदर्शिता व उदारता दिखाता है, सामयिक समस्याओं पर विचार व्यक्त करता है एवं नैतिक और सामाजिक हलचल मचा देता है, हम कहते हैं कि अधर्म के नाश एवं धर्म की स्थापना के लिये ईश्वर ने जन्म लिया है। “
इस परिप्रेक्ष्य में कुछ पौराणिक श्रद्धालु भक्तों ने महात्मा बुद्ध को अवतार घोषित कर दिया। अवतारवाद पुराणों की परिकल्पना है। वस्तुतः कई पुराणों में महात्मा बुद्ध का विष्णु के नवम अवतार के रूप में वर्णन है।यह बात स्मरणीय है कि न तो महात्मा बुद्ध ने अपने आप को अवतार माना है, न ही बौद्ध मत के अनुयायी उन्हें अवतार मानते हैं।
आपको जान कर हैरानी होगी कि जो व्यक्ति “संघं सरणं” जाता है, बौद्ध धर्म ग्रहण करता है, उसे एक प्रतिज्ञा लेनी पड़ती है। उस प्रतिज्ञा की पांचवी धारा इस प्रकार है:
” मैं बुद्ध को विष्णु का अवतार नहीं मानूंगा, इसे केवल पागलपन और झूठा प्रचार मानता हूँ। “
इसका एक सैद्धान्तिक कारण भी है। बुद्ध को विष्णुध्ईश्वर का अवतार मानने पर, ईश्वर की सत्ता को स्वीकार करना पड़ेगा। ऐसा करने पर, बौद्ध मत के अनुयायियों ने जो शून्यवाद और निरीश्वरवाद का महल (म्कपपिबम) खड़ा कर रखा है, वह ताश के पत्तों की तरह धराशाई हो जाएगा।
यहां यह उल्लेखनीय है कि दक्षिण- पूर्व एशिया ध् वियतनाम, कम्बोडिया आदि देशों में महात्मा बुद्ध को श्रीकृष्ण का अवतार माना जाता है, विष्णु का नहीं। ऐसी स्थिति में श्रीकृष्ण एक महापुरुष सिद्ध होते हैं, अवतार नहीं।
प्रश्न क्या ईश्वर अवतार लेता है ?
उत्तरः- जब जीवात्माएँ पुनर्जन्म के अनुसार शरीर परिवर्तन करती हैं तो यह उनका अवतार लेना कहा जाता है। ईश्वर कभी भी अवतार नहीं लेता। ईश्वर विराट और अनन्त है वह सीमित होकर एक छोटे से शरीर में नहीं आ सकता।
लेकिन ईश्वर सर्वशक्तिमान है परन्तु सर्वशक्तिमान का अर्थ ये नहीं है कि वह कुछ भी कर सकता है। ईश्वर वही करता है जो उसके स्वभाव में है अथवा उसके नियम में है। अपने स्वभाव के विरुद्ध वह कुछ नहीं करता और उसका स्वभाव अवतार लेने का नहीं है।
एक प्रश्न ये भी है की क्या बुद्ध ने कभी ये कहा की वह भगवान् है ?
बुद्ध ने कभी ये नहीं कहा कि वे भगवान है, और ना ही कभी सीधे सीधे ये कहा कि भगवान नहीं है। वे नहीं चाहते थे कि इस सवाल के चक्कर में पड़ा जाए। बुद्ध का दर्शन आस्तिकों और नास्तिकों, दोनों के लिए है। लेकिन उनके दर्शन में से ज्ञान के मोती लेने के बजाए स्वयं को आस्तिक कहने वालो ने उन्हें खुद भगवान बना दिया गया और बाकि महापुरुषों और अन्य ईश्वर के अस्तित्व को भुलाने पर तुले हैं।
यह जिद केवल आज नहीं, यह बुद्ध के वक्त पर भी थी।
बुद्ध समाज सुधार के लिए महात्मा बने और अपनी योग्यता से ये कार्य किया,राज पाठ भी छोड़ा ,लेकिन इसका गलत अर्थ नही निकालना चाहिए की वे भगवान थे,भगवान होते तो बिना जंगलों मे गए और बिना राज पाठ छोड़े स्वत ये कार्य कर सकते थे, जिस ईश्वर ने अग्नि ,जल ,वायु ,सूर्य ,समुंद्र ,प्रथ्वी ,जीव जंतु आदि बनाए है उसके लिए ये सब संभव है,जन्म लेने की आवश्यकता नहीं।
जब कोई व्यक्ति अपनी आध्यात्मिक शक्तियों को विकसित कर लेता है, दूरदर्शिता व उदारता दिखाता है, सामयिक समस्याओं पर विचार व्यक्त करता है एवं नैतिक और सामाजिक हलचल मचा देता है, हम कहते हैं कि अधर्म के नाश एवं धर्म की स्थापना के लिये ईश्वर ने जन्म लिया है।इस परिप्रेक्ष्य में कुछ स्वार्थी तत्वों ने महात्मा बुद्ध को अवतार घोषित कर दिया और प्रमाण के लिए महात्मा बुध का नाम पुराणों से जोड़ दिया उनको मालूम है की श्रद्धालु के घर पे ना तो पुराण मिलेंगे और ना ही वह पुराणों से सत्यापन करेगा ।इसलिए झूट चलने दो।
मालुंकयपुत्त भिक्षु बुद्ध के पास पहुँचे और कहा कि जो चैदह बिना जवाब के प्रश्न हैं, उनका उत्तर दें, नहीं तो मैं आपकी सीख को ही छोड़ दूँगा। ये चैदह प्रश्न संसार के अनादि होने या ना होने (म्जमतदंस वत दवज), अनंत होने या ना होने (पदपिदपजम वत दवज), इंसान के शरीर और आत्मा के अलग होने ना होने, और मृत्यु के पश्चात जीवन की आशंका से संबंधित हैं।बुद्ध ने इसके जवाब में एक उदाहरण दिया कि –
किसी आदमी को एक जहरीला तीर लगा। उसके परिजन उसे वैद्य के पास लेकर गए ताकि तीर निकाला जाए और उसके दर्द को खत्म किया जाए। लेकिन वह इंसान इस बात पर अड़ गया कि मैं तीर तब नहीं निकलवाऊँगा जब तक मुझे यह ना बताया जाए कि तीर किसने चलाया? क्या वह ब्राह्मण था, क्षत्रिय था या व्यापारी? उसका रंग कैसा था? उसका कद कितना था – लंबा था या छोटा? वह तीर सीधा था या मुड़ा हुआ था? जिस धनुष से तीर चला, वह धनुष किस चीज से बना था? उसकी प्रत्यंचा कौनसे पदार्थ से बनी थी? और इस तरह वह आदमी तीर के जख्म और दर्द के साथ ही मर जाता है। और इन सवालों का जवाब उस वक्त भी उसके पास नहीं होता।
यदि बुद्ध के साथ हुए वार्तालाप पर ध्यान दे तो उन्होंने बहुत से प्रश्नों के उत्तर टाल दिए जिनको वो अनावश्यक समझते थे। कालांतर में उनके शिष्यों ने गलत अर्थ अपना लिया जैसा की आज भी है की देश में हजारों की संख्या में धर्म गुरु है और उनके शिष्य उन्हें भगवान मानकर उनकी तस्वीर पर माला चढ़ाते है,पूजा करते है,गले में ताबीज डालते है, क्योंकि वे धर्म गुरु इस विषय पर शांत है।इसके दोनो मतलब निकाल सकते है। बुद्ध को संशयवादी या अज्ञेयवादी (ंहदवेजपब) कह सकते हैं।गौतम बुद्ध चाहते हैं कि आप इन प्रश्नों को छोड़कर पहले अपना तीर निकालें, अपने दुःख का अंत करें।
विष्लेषण
अवतारवाद पुराणों की परिकल्पना है। कहते है की कई पुराणों में महात्मा बुद्ध का विष्णु के नवम अवतार के रूप में वर्णन है। वास्तविकता ये है कि न तो महात्मा बुद्ध ने अपने आप को अवतार माना है, न ही बौद्ध मत के अनुयायी उन्हें अवतार मानते हैं।
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