एक व्यक्ति किसी नगर से गुजर रहा था। उसे अपने लक्ष्य पर जाना था। परंतु रास्ते में ही रात हो गई, इसलिए उसे रात को एक धर्मशाला में रुकना पड़ा।
"जैसे वह व्यक्ति किसी धर्मशाला में एक रात को ठहर जाता है, वहां की सुविधाओं का लाभ लेता है। यदि वह उन सुविधाओं को अस्थाई समझता है, तो वह धर्मशाला की उन सुविधाओं में आसक्त नहीं होता, फंसता नहीं, बंधता नहीं। और अगले दिन बड़ी आसानी से उन सुविधाओं को छोड़कर आगे अपने लक्ष्य की ओर चल देता है। धर्मशाला की उन सुविधाओं को छोड़ते समय उसे कोई कष्ट नहीं होता।"
"ठीक इसी प्रकार से आप भी अपने लक्ष्य = मोक्ष की ओर जा रहे हैं। रास्ता लंबा है, इसलिए कुछ समय के लिए यहां संसार में आपको रुकना पड़ा। यह संसार भी धर्मशाला के समान ही है। आप भी यहां सदा रहने वाले नहीं हैं। केवल इस संसार से गुजर रहे हैं।" "यदि आप भी ऐसा ही विचार करेंगे, तो आप यहां की सुविधाएं भोगने पर भी इनमें आसक्त नहीं होंगे। और संसार को छोड़ते समय आपको कोई कष्ट नहीं होगा।"
"जो व्यक्ति धर्मशाला की सुविधाओं में आसक्त हो जाता है, फिर अगले दिन धर्मशाला छोड़ते समय उसे बहुत कष्ट होता है।" ऐसे कष्ट से बचने के लिए वह यही सोचता है, कि "यह तो रास्ते की बात है, यहां मुझे स्थाई नहीं रहना है। कल तो मुझे यह स्थान छोड़ देना है। मैं तो अपने काम से जा रहा था। बीच में रात हो गई, इसलिए मुझे यहां रुकना पड़ा।" ऐसे सोचने वाला व्यक्ति अगले दिन धर्मशाला की सुविधाओं को छोड़ने पर दुखी नहीं होगा।
ऐसा ही संसार को भी समझना चाहिए, कि "मैं तो अपने लक्ष्य = मोक्ष के लिए जा रहा था। बीच में काम बढ़ गया, इसलिए मुझे यहां संसार में कुछ समय रुकना पड़ा। यह भी रास्ते से गुज़रने के समान ही है। जैसे मैं सांसारिक कार्य के लिए उस नगर से गुजरता हुआ आगे चला गया। ऐसे ही मैं संसार से गुजर रहा हूं। मुझे भी कुछ समय बाद इस संसार को छोड़कर आगे अपने लक्ष्य की ओर चल देना है। यहां की सुविधाओं में भी मुझे आसक्त नहीं होना है।"
"यदि आप ऐसा विचार करेंगे, तो आप भी संसार की सुविधाओं में नहीं फंसेंगे, यहां के बंधनों में नहीं बंधेंगे, और इस संसार रूपी रास्ते से आसानी से गुज़र जाएंगे, और अपने लक्ष्य = मोक्ष को प्राप्त कर लेंगे।"
—– “स्वामी विवेकानन्द परिव्राजक, निदेशक दर्शन योग महाविद्यालय रोजड़, गुजरात।”
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