भारतवर्ष अनादि काल से ही अपनी समृद्धता के लिये सम्पूर्ण विश्व में आकर्षण का केन्द्र रहा है, अपने ज्ञान व योग के कारण भारतीय संस्कृति आज भी सभी संस्कृतियों की जननी है।
दुर्भाग्यवश, अधिकतर मनुष्य समृद्धता का अर्थ भौतिकवादी विचारधारा से ग्रस्त होने के कारण आर्थिक दृष्टिकोण पर मापते हैं, परन्तु भारतीय संस्कृति की समृद्धता इस राष्ट्र की बौद्धिक, सांस्कृतिक, आर्थिक, धार्मिक आदि के कारण पराकाष्ठा से है जो इस राष्ट्र को समृद्ध बनाने में कार्यरत हैं।
इण्डस सिन्धु घाटी सभ्यता से ही इण्डस्ट्री (Industry) शब्द उत्पन्न मालुम होता है जो इस राष्ट्र को उस समय उद्योग प्रदान बनाते हैं, परन्तु दुर्भाग्यवश बाह्य आक्रमणों से इस राष्ट्र का स्वरूप कृषिप्रधान बन गया।
आध्यात्मिक विचारों से परिपूर्ण भारतवासियों ने मन्दिर बनाकर देवताओं की प्रसन्न किया और बदले में देवताओं ने समृद्धता देकर भारतवासियों को प्रसन्न किया।
देवताओं को खुश करने के लिये व आत्मिक सुख के लिये भारतवासी यज्ञ करते थे, और सन्यासी उस भस्म को धारण करते थे।
इसी कारणवश भारतवर्ष सम्पूर्ण विश्व ‘सोने की चिड़िया’ के नाम से विख्यात था। आध्यात्मिक दृष्टिकोण से भी भारतवर्ष सम्पूर्ण विश्व में ख्याति प्राप्त है,सनातन, बौद्ध, जैन, नास्तिक सभी के दृष्टिकोण इसमें सहयोग करते हैं।
न्यायिक क्षेत्र में भारतवर्ष में गण राज्य भी हुआ करते थे, परन्तु इन सभी विचारों व तथ्यो को दबाने का सम्पूर्ण प्रयास किया गया। जातिवाद, धार्मिक द्वेषभाव, बाल विवाह, सती प्रथा आदि के द्वारा इस समृद्धता को विपन्नता में लाने का प्रयत्न आज भी कार्यरत है।
किसी भी राष्ट्र को चलाने के लिये वर्ण व्यवस्था आज भी है, आज भी राष्ट्र में राष्ट्र संचालन के लिये शासक, रक्षा के लिये योद्धा, व्यापार के लिये वे व्यापारी एवं इनका सहयोग करने के लिये सेवार्थी होते हैं, परन्तु सेवार्थी पश्चिमी संस्कृति की भाँति दास (Slave) नही होते थे, भारतीय सेवार्थी पुर्णत: स्वतंत्र होते थे।
मनुस्मृति के दशम अध्याय का चौसठवां श्लोक में वर्णित है कि कोई ब्राह्मण से शुद्ध व शुद्ध से ब्राह्मण हो सकता है इसी प्रकार क्षत्रिय व वैश्य की भी वर्ण परिवर्तन हो सकता है।
दुर्भाग्यवश वर्ण व्यवस्था को कर्मानुसार न समझकर जन्मजात माना गया स्वयं नन्द राजा शुद्र हुआ करते थे, शुद्धो के देवता पूषण (अन्न) देवता हैं,
25 वर्ष के ब्रह्मचर्य के पश्चात विवाह करने पर बाल विवाह का प्रश्न ही नहीं उठता। जिन धर्म शास्त्रों के लेखिका महिलायें हो, जिन्होंने वेदों में ऋचायें रचित की हो, उनके लिये सती प्रथा एक कोरा झूठ है।
भारतवर्ष में धार्मिक द्वेषता एक अन्य झूठ है, जिन्होंने स्वयं भगवान बुद्ध क्षुधा मिटाने के लिये उन्हें खीर बनाकर खिलायी, क्या वे उनसे द्वेष करेंगे।
मथुरा जो सनातन, बौद्ध, जैन धर्म का प्रमुख केन्द्र है कभी भी धार्मिक हिंसा तो क्या बल्कि झगड़ो का भी उल्लेख नहीं मिलते।
अपितु आद्य गुरूशंकराचार्य जी पर उठाये गये प्रश्न बौद्ध धर्म की कुरीतियों को नष्ट करने से है।
परन्तु भारतवासी शौर्य प्रदर्शन व राज्य विस्तार हेतु युद्ध नियमों के अधीन होते थे, रात्रि में युद्ध असहाय पर हमला, वर्जित था।
युद्ध युद्ध-क्षेत्र में होते थे, घुड़सवार पैदल सैनिक पर हमला नही कर सकता था।
समय के चक्र के साथ राष्ट्र-समाज में परिवर्तन आये, बाह्मणों द्वारा स्वयं को साक्षात भगवान के रूप में प्रदर्शित किया जाने लगा।
अध्यात्म को त्यागकर लोगों ने आडम्बरों व पाखण्डों का अपनाना प्रारम्भ कर दिया परन्तु अब भी समाज में महिलाओं की स्थिति आज की भाँति न हुई।
राज्य स्थापित करने के लिये नियमो का उल्लंघन प्रारम्भ कर दिया ,
अरब में हुईं धार्मिक क्रांति के बाद भी भारतीयों का अरबों का प्रति व्यवहार मे परिवर्तन नही आया, परन्तु क्रांति मे आयो की अरववासियों की व्यापारिक चेष्टा आक्रमणकारी हो गयी। जो भारतीय संस्कृति के भक्त हुआ करते थे इस संस्कृति के विध्वंसक हो गये
धरती मेरी माँ है और मैं इसका पुत्र हूँ, सम्पूर्ण संसार परिवार है आक्रमणकारियों कीखंडित दृष्टि से लड़ने के लिये भारतवासियो ने जब तक स्वयं को हिन्दू नहीं कहा जब तक कि आक्रमणकारियो ने स्वयं को मुसलमान या ईसाई नही कहा।
राष्ट्र को परिवार को संस्कृति को बचाने के लिये शास्त्रवादियों को शस्त्र उठाने पड़े। जीवनदायिनी माँ सिन्धु की संताने हिन्दू कहलायी। एक किताब व एक भगवान के रंग में रंगने आये दुष्टों से भारतीयों ने राष्ट्र व संस्कृति की रक्षा की।
मूर्तिपूजकों ने मूर्ति तोडे जाने पर हर पत्थर पर सिंदूर डालकर बजरंगबली बना डाले, चालीसा का दल लेकर आये दुष्टों का भक्त शिरोमणि तुलसीदास जी ने हनुमान चालीसा लिखकर सर्वनाश कर दिया।
लोगों ने कतारों में लगकर सर कटवा डाले परन्तु धर्म न छोडा, गायों के बीच तोप लगाकर हमला करने पर क्षत्रियों ने धर्म के कारण वापस हमला नहीं किया, औरंगजेब ने कुरान की प्रतियों पर सन्देश लिखकर विश्वासघात किया।
औरंगजेब एक सूफी सन्त का चेला था. आम भी लोग उसकी कब्र पर सिर झुकाने जाते हैं।
हिन्दूओं के मन्दिर तोडे, शिवलिंग खंडित किये, हिन्दुओ को मौत के घाट उतार दिया. संस्कृति धूमिल कर दी, फिर भी लोग इन्हें अपने पूर्वज मानते हैं।
NCERT के लेखक सतीश चन्द्र जी कहते हैं, कि ‘मुसलमान शासक उदार थे, उन्होंने पहले ही मन्दिर तोड़े उनका उददेश्य मन्दिर का विनाश
से धर्म से नहीं धन ऐसे विचारों को पढ़ने के बाद व्यक्ति आतंकवादियों को हालात से नौजवान मानता है।
तोता ए हिन्दू कहे जाने वाला अमीर खुसरो – तारीक ए अलंई में लिखता है कि ब्राह्मणों व मूर्तियों के शीश काट डाले गये हैं चारो तरफ रक्त बह रहा है। अल्लाह खुश होगा। अगर मकसद पूरा हुआ तो गाजी वरना शहीद मुस्लिम आक्रताओ ने भारतीयो से इल्म भी प्राप्त किया और घृणा भी की।
अगर तुर्की व अरबों द्वारा किये गये अत्याचारों को पढ़ाया जाता या संग्रहालय बनते तो न्यायप्रिय मुसलमान भारत के संरक्षक बन सकते थे।
महाशक्ति अमेरिका को 19 जेहादियों ने घुटनों पर लाकर खड़ा कर दिया।
परन्तु 1300 वर्षों तक जिस शत्रु ने भारत का विनाश किया है उनके क्रूर कर्मों का वर्णन करना साम्प्रदायिकता बन जाता है। तुर्क आक्रमण बौद्ध धर्म की विलुप्ती का कारण रहा। –राहुल सांस्कृत्यायन
यूरोपीयन राष्ट्रों में भारतवर्ष भी सूदूर इतना कुछ होने के पश्चात् की अध्यात्मिक व आर्थिक समृद्धता के किस्से प्रसिद्ध थे। मराठा साम्राज्य पूर्णतः स्थापित नही हो पा रखा था, मुगल साम्राज्य पतनोमुख था,
व्यापार की चेष्टा से आये यूरोपीयनी ने परिस्थिति का लाभ उठाकर भारतवर्ष को अपने अधीन कर दिया,
इसी के साथ भारतीयों की आत्मा का उद्धार करने के लिये यूरोपीयन मिशनरियों द्वारा भी भारतवर्ष में धर्मांतरण कराये।
रेस और रिलीजन की मानसिकता से ग्रस्त यूरोपीयनों ने भारतीय संस्कृति को नष्ट करने का काफी प्रयत्न किया। भारतीय संस्कृति के सर्वोच्च ज्ञान को गलत तरीके से परिवर्तित करने की कोशिश भी की।
भारतीय समृद्धता से द्वेष रखने वाले यूरोपीयन को भारतीय समाज में फैली कुरीतियों को सनातन धर्म से जोड़ दिया, आर्थिक लूट के साथ-साथ सांस्कृतिक तौर पर भी भारतवर्ष को कठिनाई व पीड़ा पहुंचाई।
भारतवर्ष जो समृद्ध भारतवर्ष था. उसमें लोगों को भूख-प्यास ने मार डाला अकाल पड़े किंतु ईस्ट इंडिया कम्पनी के राजस्व में कोई कमी न आई। भारतवासियों ने हजारो पीढ़ियों से विरासत में मिला स्वर्ण बेचकर लगान
और यही स्वर्ण आज लंदन को समृद्ध बनाता है…
जो भारतवासी अन्न को भगवान मानते थे, पहले पक्षियों को, चीटियों को फिर गाय को फिर आते थे व दास को भोजन कराते और स्वयं भोजन के पश्चात कुत्तों को रोटी देते थे, उनको ऐसी भीषण अकाल का सामना करना पड़ा कि अनेक लोग अकाल में भूख से मर गये।
समाज में नई-नई कुरीतियाँ फैला डाली जबरन धर्मपरिवर्तन कराये, एक भगवान और एक किताब का आन्दोलन फिर शुरू कर डाला।
परन्तु पहले की भाँति मन्दिर तोड़कर धर्म स्थापित करने की विचाराधारा अंग्रेजो की नहीं थी वे तो जानते थे कि 1000 वर्षों से हिन्दू शीश कटवाकर पुन: भारतवर्ष में जन्म ले रहे हैं और भक्त बन रहे हैं। इसीलिये यूरोपीयनों ने धर्मग्रंथो मे छेडछाड प्रारम्भ कर डाली।
सफेद चमड़ी को ईश्वर का स्वरूप व अश्वेत लोगों की पिछडी जाति मानकर भारतीयों व अफ्रीकी लोगों का खूब उत्पीडन हुआ।
सफेद चमडी वाले यूरोपीयन स्वयं को अश्वेत लोगों का विकास करने के लिये स्वयं को स्वयं को उत्तरदायी मानते थे, परन्तु इनका उद्देश्य भारतवर्ष का ईसाईकरण व लूट करना ही था।
कुछ अंग्रेजों ने भारतवर्ष को धीमे-धीमे अपने अधीन करना प्रारम्भ कर दिया, किन्तु सम्पूर्ण भारतवर्ष कभी गुलाम नही रहा, भारतवर्ष में स्वतंत्रता प्राप्ति के लिये गदर होती रही।
1857 की क्रांति भारतीय संस्कृति व समाज को स्वतंत्र कराने की महत्वपूर्ण परिघटना है, भारतवासियों ने देह त्यागकर पुनः देह धारण कर 1947 में भारतवर्ष को स्वतंत्र तो करा लिया किन्तु वे भारत – विभाजन को न रोक पाये।
जो भारतवर्ष अनादि काल से अखण्ड था, उसे यूरोपीयन विचारो से ग्रस्त भारतीयों ने अंग्रेजो के अधीन आकर काट डाला , भारतवर्ष का धार्मिक विभाजन हुआ भारतवर्ष ने अपने दोनो हाथ खो दिय शीश पर भी कुछ भाग खो दिया।
जो टेबिल पर बैठकर, भारत का विभाजन कर रहे थे उन्होंने भारत के धार्मिक विभाजन में धर्म व राष्ट्र से कोई रुचि नहीं थी वे राष्ट्र को भौतिक आवश्यकता मानते थे, उनके भारत विभाजन में न तो गंगासागर न कैलास । भारतवर्ष के कुछ विश्वासघातियों का भी योगदान रहा वरना कोई इतनी बडी संस्था को कैसे गुलाम बना सकता है, आज भारतवर्ष पुनः समृद्धता की ओर अवासर है परन्तु आज समृहता का अर्थ यूरोपीयन व तुर्क – अरबी विचारधारी से मस्त होकर धन मात्र रह गया है। चौथी अर्थव्यवस्था के बावजूद 80 करोड़ लोग सरकार द्वारा फ्री राशन लेने को मजबूर है।
समृद्ध भारत को असमृद्ध बनाने में भारतवर्ष के कुछ यूरोपीयन भारतीयों को भारतवर्ष मे घृणा कराने के उद्देश्य में काफी सफल भी हुये।
आज एक भारतवासी में मुसलमानों से द्वेष तो है परन्तु सही मायनों में उन ईसाईयों से नहीं जिन्होंने उनके राष्ट्र को विभाजित किया। भारतवासियों को भारतीय भाषा, धर्म, संस्कृति, रहन-सहन से कराने में यूरोपीयन वास्तव में सफल रहे।
प्रवक्ता से साभार
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