भारत की 18 लोकसभाओं के चुनाव और उनका संक्षिप्त इतिहास, भाग 11, 11वीं लोकसभा – 1996 – 1998
पी0वी0 नरसिम्हाराव प्रधानमंत्री के रूप में बहुत अधिक लोकप्रिय नहीं हो पाए थे। वह भीड़ को आकर्षित करने वाले नेता कदापि नहीं थे। उन्होंने देश को एक योग्यतम अधिकारी की भांति आगे बढ़ाने का काम किया। अधिकारी से आगे जाकर नेता बनने की बात उन्होंने कभी सोची भी नहीं। शायद वह जानते थे कि जब उन्हें नेता बनने का अवसर प्राप्त हुआ है, तब उनकी अवस्था उनका साथ नहीं दे रही थी। वह अनेक भाषाओं के ज्ञाता थे। एक विद्वान राजनीतिज्ञ के रूप में वह जानते थे कि अब यदि वह अपने आपको नेता बनाने का प्रयास भी करेंगे तो सब व्यर्थ ही जाएगा। इसके अतिरिक्त कांग्रेस के लोगों ने भी उन्हें अपेक्षित सहयोग नहीं दिया था। वह स्वयं इस बात के प्रति उदासीन रहे कि उन्हें या कांग्रेस को दोबारा सत्ता में आना चाहिए। पार्टी दोबारा सत्ता में आएगी या नहीं, इसे उन्होंने नियति पर छोड़ दिया था। कितने ही मामलों पर वह चुप रहना पसंद करते थे। उनके आलोचक कई बार उन्हें 'मौनी बाबा' कहते थे तो कई उन्हें निर्णय न लेने वाला प्रधानमंत्री कहकर संबोधित करते थे। एक बार जब उनसे यह पूछा गया कि उनके आलोचक उन्हें निर्णय न लेने वाले प्रधानमंत्री के रूप में मानते हैं तो उन्होंने बड़े दार्शनिक अंदाज में कहा था कि निर्णय न लेना भी तो एक निर्णय है। कांग्रेस उनका साथ नहीं दे रही थी तो उन्होंने भी कांग्रेस का साथ न देने का निर्णय ले लिया था। पर उन्होंने कभी अपने लिए हुए इस निर्णय को सार्वजनिक नहीं किया। निर्णय न लेकर भी उन्होंने निर्णय ले लिया था।
नरसिम्हा राव की कार्यशैली का परिणाम
वह जानते थे कि यह उनका पहला और अंतिम अवसर है। कांग्रेस के असहयोग के कारण उन्होंने ऐसे प्रयास नहीं किये कि उनकी पार्टी दोबारा सत्ता में आनी चाहिए। यदि पार्टी ने उनके प्रति असहयोग किया तो उन्होंने भी पार्टी के प्रति चुप रह कर असहयोग किया। यही कारण रहा कि देश के लोगों का कांग्रेस के प्रति आकर्षण घट गया। 11वीं लोकसभा के चुनाव जब हुए तो लोगों ने कांग्रेस को पहले की अपेक्षा और भी कम समर्थन दिया। वास्तव में उस समय भारतीय राजनीति अपने संक्रमण काल से गुजर रही थी। तेजी से कुछ ऐसी घटनाएं घटित होती जा रही थीं जो पुराने को कहीं छोड़ देना चाहती थीं और नई व्यवस्था को तेजी से खोज रही थीं। पता नहीं चल रहा था कि राजनीति में बेचैनी है या फिर बेचैनी में राजनीति है। राजनीति और बेचैनी की इसी गड्डमड्ड में देश अस्तव्यस्त हुआ, आगे बढ़ रहा था।
कहा जाता है कि छोटी सोच और पैर की मोच व्यक्ति को आगे नहीं बढ़ने देती है। यही सोच जब राजनीति में काम कर रहे लोगों के आचरण में प्रविष्ट हो जाती है तो उस समय वह देश समाज और राष्ट्र को आगे नहीं बढ़ने देती है। राजनीति में छोटी सोच के लोग जब आचरण और व्यवहार के कारण स्वाभाविक रूप से छोटी बातें करते हैं तो राष्ट्र का स्वरूप भी छोटा हो जाता है और जब राजनीति में रहने वाले लोग बड़ी सोच को प्रकट करने वाली बड़ी बातें करते हैं तो राष्ट्र का दृष्टिकोण भी व्यापक हो जाता है। जैसा नेता होता है, वैसा राष्ट्र बन जाता है। यही कारण है कि नेता का तेजस्वी होना बहुत आवश्यक है। तेजस्वी राष्ट्रवाद के लिए नेता का विद्वान और विशाल हृदय अर्थात विशाल दृष्टिकोण वाला होना भी आवश्यक है। यदि राजनीति में रहकर लोग जाति, संप्रदाय, लिंग ,भाषा , प्रांत व क्षेत्र की बात करेंगे तो राष्ट्र की अवधारणा खंड-खंड हो जाती है। उनकी मानसिकता राष्ट्र की भावना के साथ खिलवाड़ करने लगती है। राष्ट्र हमारी एकता का प्रतीक होता है। इसलिए राजनीति में काम करने वाले लोगों को राष्ट्रीय दृष्टिकोण का होना चाहिए। अर्थात उन्हें मानव को मानव से जोड़ने , संगठित करने वाला होना चाहिए। "एक और नेक" बने रहने की ऊंची सोच वाला होना चाहिए।
संक्रमण काल में राष्ट्र की स्थिति
संक्रमण काल में लोग उत्कृष्ट के स्थान पर निकृष्ट को अपना लेते हैं, उनके हृदय की विशालता संकीर्णता में परिवर्तित हो जाती है। कुछ ढूंढने और पाने की सोच बनी रहती है, पर ना कुछ पाया जाता और ना ही ढूंढने में किसी प्रकार की सफलता मिल पाती है। पुरुषार्थ तो होता है, पर उसकी दिशा ठीक नहीं होती। इसलिए पुरुषार्थ प्रमाद में परिवर्तित हो जाता है। राष्ट्र प्रमादी लोगों से आगे नहीं बढ़ता। राष्ट्र पुरुषार्थी लोगों की प्रतीक्षा करता है ,उन्हीं का अनुगमन करता है, उनका ही अनुकरण और अनुसरण करता है। राष्ट्र निरंतर सतत साधना का प्रतीक है। उसकी निरंतरता में जहां अवरोध आ जाता है, वहीं राष्ट्र रुक जाता है। यही कारण है कि राष्ट्र की गति को निर्बाध बनाए रखने के लिए राष्ट्र सेवी लोग अपना सर्वस्व राष्ट्र को समर्पित कर देते हैं। उनके परिश्रम और पुरुषार्थ से राष्ट्र गतिशील बना रहता है।
राष्ट्र हमसे कुछ मांगता नहीं है और यदि मांगता है तो वह केवल हमारा परिश्रम और पुरुषार्थ मांगता है। हमारी उन सात्विक पवित्र भावनाओं की आहुति मांगता है जिनके माध्यम से हम जागरूक, मर्यादित और धर्माचरण करने वाले सभ्य , सुशिक्षित और सुसंस्कृत समाज का निर्माण कर सकते हैं। वह हमसे मर्यादाओं को स्थापित करने के प्रति हमारी गहन रुचि मांगता है। हमारा सभ्याचरण मांगता है।
प्रान्तों में क्षेत्रीय दलों की राजनीति
नरसिम्हाराव जब देश के प्रधानमंत्री थे तो उस समय देश की राजनीति जातिवाद की कीचड़ में फंसी पड़ी थी। देश में अनेक ऐसे क्षत्रप पैदा हो चुके थे जो अपने-अपने प्रदेशों की संकीर्ण सीमाओं के बाहर देखना उचित नहीं मानते थे। प्रधानमंत्री पद के अनेक दावेदार थे, पर उनमें से एक भी प्रधानमंत्री पद की गरिमा के अनुकूल काम करने वाला नहीं था। क्षेत्रीय राजनीतिक दल सारे प्रदेश में अपना - अपना वर्चस्व स्थापित कर हावी प्रभावी होते जा रहे थे। वे सब अपनी क्षेत्रीय संकीर्ण मानसिकता के चलते लोगों को जाति, संप्रदाय, भाषा प्रांत आदि में विभाजित करते जा रहे थे । उनका राष्ट्रीय दृष्टिकोण मृतप्राय हो चुका था। अपवाद स्वरूप कुछ बड़ी पार्टियों के नेता थे जो अंधेरे में प्रकाश की एक किरण के रूप में दिखाई दे रहे थे । अधिकांश नेताओं की मानसिकता बहुत अधिक संकीर्ण दिखाई दे रही थी। यही कारण था कि भाजपा के नेता अटल बिहारी वाजपेयी उस समय अपने भाषणों में अक्सर कहा करते थे कि देश इस समय संक्रमण काल से गुजर रहा है। उस समय उत्तर प्रदेश में समाजवादी पार्टी और बहुजन समाज पार्टी जातिवाद की राजनीति में उलझी पड़ी थीं। इसी प्रकार अन्य प्रांतों में भी कोई न कोई क्षेत्रीय राजनीतिक दल अपना वर्चस्व स्थापित कर चुका था।
11वीं लोकसभा के चुनाव का परिणाम
11वीं लोकसभा के सदस्यों के चुनाव के लिए जारी किए गए कार्यक्रम के अनुसार 27 अप्रैल, 2 मई और 7 मई 1996 को मतदान हुआ। देश के मतदाताओं ने खंडित जनादेश दिया। किसी भी दल को स्पष्ट बहुमत प्राप्त नहीं हुआ। खंडित जनादेश के कारण त्रिशंकु संसद अस्तित्व में आई। ऐसे में उन सभी महत्वाकांक्षी नेताओं की बात बन गई जो देश का प्रधानमंत्री बनना चाहते थे या किसी भी प्रकार से सत्ता में भागीदार होकर अधिक से अधिक मलाई चाटने की प्रतीक्षा में थे। इस चुनाव में सबसे बड़े राजनीतिक दल के रूप में भारतीय जनता पार्टी 161 सीट लेकर प्रथम स्थान पर रही थी। उसके अन्य सहयोगी दलों की सीटें मिलकर भाजपा के पास कुल 187 सांसदों का आंकड़ा था।
अभी तक भाजपा ने केंद्र में बनी गैर कांग्रेसी सरकारों को समर्थन दिया था, पर जब भाजपा बड़ी पार्टी बनकर आई तो अन्य गैर कांग्रेसी दलों ने उसका साथ देने से इनकार कर दिया। यानी केंद्र में सरकार बनाते समय अपने लिए समर्थन लेते समय इन गैर कांग्रेसी राजनीतिक दलों के लिए भाजपा सांप्रदायिक नहीं थी पर अब वह उनकी दृष्टि में एक सांप्रदायिक दल बन गई थी। इसके उपरांत भी भाजपा के उदारवादी नेता अटल बिहारी वाजपेयी को यह आशा थी कि जब वह सरकार बनाएंगे तो निश्चय ही गैर कांग्रेसी राजनीतिक दल उनका समर्थन करने के लिए आगे आने की उदारता दिखाएंगे। फलस्वरूप उन्होंने सबसे बड़ा दल होने के कारण तत्कालीन राष्ट्रपति डॉ शंकर दयाल शर्मा के सामने अपनी सरकार बनाने का औपचारिक निवेदन प्रस्तुत किया।
अटल जी बने 13 दिन के लिए प्रधानमंत्री
अटल बिहारी वाजपेयी ने देश के 10 वें प्रधानमंत्री के रूप में शपथ ग्रहण की। यद्यपि जब वह देश के प्रधानमंत्री के रूप में शपथ ग्रहण कर रहे थे, तब उनके चेहरे पर उभरने वाली लकीरें उनके भीतर की चिंता को स्पष्ट रूप से प्रकट कर रही थीं कि उन्हें अपने प्रति गैर कांग्रेसी राजनीतिक दलों की ओर से यह संकेत मिल गया था कि वे उन्हें किसी भी मूल्य पर अपना समर्थन नहीं देंगे। समर्थन न मिलने का कारण भाजपा का सांप्रदायिक दल होना नहीं था, अपितु अटल बिहारी वाजपेयी का विशाल व्यक्तित्व होना इसका प्रमुख कारण था। प्रधानमंत्री पद की लालसा पाले कई राजनीतिक दलों के बड़े नेताओं को यह बात अच्छी प्रकार ज्ञात थी कि यदि वे अटल बिहारी वाजपेयी को समर्थन देने की गलती कर गए तो उनके व्यक्तित्व के सामने वह अपने आप में कुछ भी नहीं होंगे।
भारतीय जनता पार्टी ने अटल बिहारी वाजपेयी के नेतृत्व में सरकार बनाई, पर यह सरकार मात्र 13 दिन ही चल पाई। अटल बिहारी वाजपेयी प्रधानमंत्री के रूप में सदन का विश्वास मत प्राप्त करने में असफल रहे। फलस्वरूप उन्हें अपने पद से त्यागपत्र देना पड़ा। अटल जी ने 16 मई 1996 को प्रधानमंत्री पद की शपथ ग्रहण की थी । वह 1 जून 1996 तक इस पद पर कार्य करते रहे।
देवगौड़ा और गुजराल बने देश के प्रधानमंत्री
अटल जी के त्यागपत्र देने के पश्चात विपक्षी दलों की खिचड़ी पकी और उन्होंने कर्नाटक के तत्कालीन मुख्यमंत्री एच0डी0 देवगौड़ा को प्रधानमंत्री बनने के लिए आमंत्रित किया। एच0डी0 देवगौड़ा एक ऐसे नेता थे जिन्होंने कभी स्वयं भी नहीं सोचा होगा कि वह कभी देश के प्रधानमंत्री बन जाएंगे। निश्चित रूप से उन्हें यह पद प्रारब्ध के आधार पर प्राप्त हुआ। श्री देवगौड़ा ने 1 जून 1996 को देश के 11वें प्रधानमंत्री के रूप में पद की शपथ ग्रहण की। वह 21 अप्रैल 1997 तक जनता दल यूनाइटेड फ्रंट के नेता के रूप में प्रधानमंत्री पद पर कार्य करते रहे। इसके पश्चात उनकी सरकार भी गिरा दी गई ,तब इंद्र कुमार गुजराल को यूनाइटेड फ्रंट ने अपना नेता चुना। श्री गुजराल ने 21 अप्रैल 1997 से 19 मार्च 1998 तक 12 वें प्रधानमंत्री के रूप में कार्य किया।
उस समय अटल जी के पास अपनी सरकार चलाने के लिए राजनीतिक दलों का अपेक्षित समर्थन नहीं था, इसलिए वह देश के पी0एम0 न होकर भी नेता बने रहे। जबकि एच0डी0 देवगौड़ा और इंद्र कुमार गुजराल के पास राजनीतिक दलों का अपेक्षित सहयोग होने के उपरांत भी वे ना तो देश के पी0एम0 बन पाए और ना ही नेता बन पाए। वह राजनीति की कठपुतली थे जिन्हें कुछ लोगों ने अपने ढंग से नचाने के लिए प्रधानमंत्री के की कुर्सी पर बैठा दिया था। उन्हें रिमोट से चलाया गया और दुर्भाग्य की बात थी कि कुर्सी के मोह में वे भी रिमोट से चलते रहे। उन्होंने प्रधानमंत्री रहते हुए एक-एक दिन परमपिता परमेश्वर का धन्यवाद कहते हुए व्यतीत किया। वह पहले दिन से जानते थे कि जो लोग उन्हें रिमोट से चला रहे हैं , वह उनकी कृपा से ही प्रधानमंत्री रह सकते हैं । जिस दिन उनकी कृपा हट जाएगी वह धड़ाम से प्रधानमंत्री की कुर्सी से नीचे आ गिरेंगे। हम सभी जानते हैं कि जब नेता कमजोर होता है तो ऐसी स्थिति में सत्ता का दुरुपयोग बहुत होता है। यही कारण रहा कि इन दोनों प्रधानमंत्रियों के शासनकाल में सत्ता स्वार्थी यूनाइटेड फ्रंट के नेताओं ने सत्ता को भी खंड-खंड करके रख दिया। खंडित जनादेश ने प्रत्येक राजनीतिक दल को और उसके नेता को स्वच्छंदी बना दिया था। जिससे देश उस समय रामभरोसे ही चल रहा था।
11वीं लोकसभा में भाजपा की स्थिति
11वीं लोकसभा में ऐसा पहली बार हुआ था जब भारतीय जनता पार्टी सबसे बड़े राजनीतिक दल के रूप में उभर कर सामने आई थी। अटल बिहारी वाजपेयी की पूरे देश में अच्छी छवि थी। जबकि लालकृष्ण आडवाणी ने राम रथ यात्रा के माध्यम से पार्टी को लोकप्रियता दिलाने में महत्वपूर्ण योगदान दिया था। पार्टी अपने अनुशासन के लिए जानी जाती थी। इसके नेताओं ने जनता पार्टी की भांति तात्कालिक आधार पर लाभ लेने के स्थान पर दूरगामी रणनीति तैयार कर आगे बढ़ना स्वीकार किया था। यही कारण था कि जब जनता पार्टी की सरकार गिर गई और कांग्रेस दोबारा केंद्र में सरकार बनाने में सफल हुई तो जनसंघ के पुराने नेताओं ने भारतीय जनता पार्टी का गठन कर देश को कांग्रेस का एक ठोस विकल्प देने का संकल्प लेकर आगे बढ़ना आरंभ किया। भारतीय जनता पार्टी के नेता यह भली प्रकार जानते थे कि जो कांग्रेस अभी तक सत्ता में बनी रही है, यदि देश के मतदाताओं ने उसे इस चुनाव में 140 सीटें देकर भाजपा से भी पीछे कर दिया है तो उसका भविष्य अब उज्जवल नहीं माना जा सकता। यही कारण था कि भारतीय जनता पार्टी के नेता परिश्रम और पुरुषार्थ करते हुए सत्ता की ओर धीरे-धीरे बढ़ रहे थे।
राष्ट्रीय संयुक्त मोर्चा और 11वीं लोकसभा
जिन राजनीतिक दलों ने एच0डी0 देवगौड़ा और इंद्र कुमार गुजराल के नेतृत्व में केंद्र में सरकार बनाने में सफलता प्राप्त की थी उन्होंने मिलकर राष्ट्रीय संयुक्त मोर्चा गठित किया था। जिसके पास 332 सांसदों की संख्या हो गई थी। लोकतंत्र में यह आंकड़ों का खेल बड़ा खतरनाक होता है। जनमत आपके साथ हो या ना हो, बस संसद में बहुमत प्राप्त करने के लिए आपके पास सांसदों की एक निश्चित संख्या होनी चाहिए। इसके पश्चात आप चाहे जो करें। वास्तव में संसदीय लोकतंत्र का यह सबसे दुर्बल पक्ष है। इसके खतरों को भांपते हुए सरकारों को चाहिए कि सिरों की गिनती के साथ-साथ जनमत का ध्यान भी रखना अनिवार्य होना चाहिए। जिन लोगों को देश के मतदाताओं ने खंडित जनादेश देकर इधर-उधर फेंक दिया था, वे सारे एक साथ मिलकर सरकार बनाने का निर्णय लें, यह भी लोकतंत्र की नैतिक पराजय है। यदि लोकतांत्रिक परिणाम को भी अपने पक्ष में व्याख्यायित और स्थापित कर काम करने की चेष्टा की जाएगी तो उससे लूट की प्रवृत्ति बढ़नी निश्चित है।
देश में था अनिश्चितता का दौर
जब इंद्र कुमार गुजराल देश के प्रधानमंत्री थे तो बिहार के नेता लालू प्रसाद यादव ने जनता दल छोड़कर अपना राष्ट्रीय जनता दल अलग गठित कर लिया था। इस प्रकार देश और भी अधिक अनिश्चितता के दौर में चला गया। लालू प्रसाद यादव की महत्वाकांक्षा इंद्र कुमार गुजराल जैसे नेता के साथ कितनी देर तक निभा सकती थी? यह बात तो प्रारंभ से ही दिखाई दे रही थी, पर फिर भी खंडित जनादेश के आधार पर राजनीतिक दल अनैतिक सरकारों का गठन कर बार-बार जनादेश को अपने हक में व्याख्यायित करने का असंवैधानिक, अतार्किक और अनैतिक प्रयास कर रहे थे। वास्तव में यह बेमेल खिचड़ी थी। जो केवल राजनीतिक स्वार्थ की पूर्ति के लिए पकाई जा रही थी। इसे पकना नहीं था। बस, अपने अपने स्वार्थ पूर्ण करने के लिए सत्ता में बैठे रहकर केवल देरी की जा रही थी और जनता का यह कहकर मूर्ख बनाया जा रहा था कि हांडी चढ़ी हुई है और खिचड़ी अवश्य पकेगी।
कुछ समय पश्चात यह सरकार अपने बोझ से अपने आप गिर गई। एक दूसरे के सत्ता स्वार्थ आखिर कितनी देर तक साथ साथ शांत बैठ सकते थे ? उन्हें एक न एक दिन टकराना था और टकराने के पश्चात होने वाले विस्फोट में सबको उड़ जाना था। ऐसे गठबंधनों की सरकार में एक नेता न होकर अनेक नेता हो जाते हैं। जिससे भ्रष्टाचार और घोटालों को प्रोत्साहन मिलता है। एच0डी0 देवगौड़ा और इंद्र कुमार गुजराल की सरकारों के साथ भी यही हुआ। नेताओं के अहंकार परस्पर टकराते रहे। जिसके कारण सर्वत्र अराजकता और अस्थिरता स्पष्ट दिखाई देने लगी। नौकरशाही उस समय बेलगाम थी। जिससे भ्रष्टाचार भी अपने चरम पर पहुंच गया था।
11वीं लोकसभा के पदाधिकारीगण
इस लोकसभा के अध्यक्ष पी0ए0 संगमा रहे। जिन्होंने 23 मई 1996 से 23 मार्च 1998 तक अपने पद पर कार्य किया। लोकसभा के उपाध्यक्ष पद पर सूरजभान 12 जुलाई 1996 से 4 दिसंबर 1997 तक कार्यरत रहे। लोकसभा के मुख्य सचिव के रूप में सुरेंद्र मिश्रा 1 जनवरी 1996 से 15 जुलाई 1996 तक और एस. गोपालन 15 जुलाई 1996 से 14 जुलाई 1999 तक कार्यरत रहे। सरकारी आंकड़ों के अनुसार इस चुनाव पर 597.3 करोड रुपए खर्च हुआ था। इस समय आठवीं और नौवीं पंचवर्षीय योजनाएं चल रही थीं। उनके उद्देश्य एवं लक्ष्य प्राप्ति की ओर सरकारों को काम करने का विशेष अवसर उपलब्ध नहीं हुआ। इस दौरान नेताओं की राजनीति चलती रही, जैसे तैसे देश भी चलता रहा, पर विकास नहीं चला। जिसके कारण राजनीति के प्रति लोगों में वितृष्णा का भाव बढ़ता गया।
श्री टी.एन. शेषन (12 दिसंबर 1990 से 11 दिसंबर 1996) ही 11 वीं लोकसभा के चुनावों समय देश के मुख्य चुनाव आयुक्त थे।
डॉ राकेश कुमार आर्य
(लेखक सुप्रसिद्ध इतिहासकार और भारत को समझो अभियान समिति के राष्ट्रीय प्रणेता हैं।)